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भारत का वो आइलैंड जहां घुसने का मतलब है मौत

बंगाल की खाड़ी में अंडमान द्वीप समूह में बसा है एक आइलैंड जहां भारत सरकार भी नहीं घुसती

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1996 के बाद भारत सरकार ने सेन्टिनली लोगों से कांटेक्ट पर बैन लगा दिया है (तस्वीर : नेशनल जियोग्राफिक)

2 अगस्त 1981 की तारीख. आधी रात से ठीक पहले की बात है. प्रिम रोज़ नाम का एक मालवाहक जहाज मुर्गी का चारा लेकर बांग्लादेश और ऑस्ट्रेलिया के बीच सफर कर रहा था. ख़राब मौसम और कुछ कन्फ्यूजन के चलते जहाज भटक गया. और सुबह पता चला कि जहाज एक श्वाल की चट्टान के टकराया है. सूखी जमीन देखकर जहाज को कैप्टन को हिम्मत मिली. सामने एक बड़ा सा टापू था. जिसमें मीलों लम्बा बीच था.

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जहाज टापू से नजदीक था. लेकिन समुन्द्र में काफी हलचल थी. इसलिए लाइफ बोट उतारना मुश्किल हो रहा था. चूंकि जहाज के डूबने जैसा कोई खतरा नहीं था, इसलिए कप्तान ने फैसला किया कि जहाज पर ही रुककर मदद का इंतज़ार करेंगे. कुछ दिन गुजरे. एक दिन शिप के वॉचटॉवर में खड़े एक लड़के को कुछ लोग दिखाई दिए. उसने देखा कि कुछ लोग टापू के जंगलों से उस ओर आ रहे हैं. पहले तो उसे लगा शिपिंग कंपनी ने रेस्क्यू के लिए लोग भेजे होंगे. फिर उसने नजर जरा पैनी की. ये आम लोग नहीं थे. छोटे कद के लेकिन तगड़े आदमी जिनके घुंघरालु बाल थे. इनमें से किसी ने भी कपड़े नहीं पहन रखे थे. सिवाए एक बेल्ट जैसी चीज के जो उनके कमर से बंधी थी. साथ ही इन लोगों ने भाले और धनुष- तीर पकड़ रखे थे. जिन्हें वो हवा में लहरा रहे थे.

उसी वक्त वहां से कोसों दूर हॉन्ग-कॉन्ग में रेजेंट शिपिंग कंपनी के ऑफिस में फोन की घंटी बजी. फोन उठा. सामने से प्रिमरोज के कप्तान की कांपती हुई आवाज आई, ‘50 की आसपास जंगली लोग लकड़ी की नाव से जहाज पर हमला करने आ रहे हैं. शाम तक ये शिप पर चढ़ जाएंगे. कोई नहीं बचेगा, जल्दी हेलीकाप्टर भेजकर हथियार गिराओ’. 

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प्रिमरोज़ जहाज के अवशेष (तस्वीर: गूगल मैप्स )

इस बातचीत से से ऐसा लग रहा था मानो 18 सदी का कॉल 20 वीं को आ गया हो. लेकिन इसका कारण भी था. जिस टापू के किनारे प्रिमरोज रुका था. उस टापू पर सदियां कभी बीती ही नहीं थीं. 
बहरहाल ये कॉल आते ही कंपनी ऑफिस में हंगामा मच गया. बात हॉन्ग-कॉन्ग सरकार तक पहुंची. एक सरकारी प्रवक्ता ने कहा, लगता है प्रिमरोज का कप्तान पागल हो गया है. अगले दिन प्रेस में खबर छपी कि इस द्वीप के लोग आदमखोर हैं, इंसान को मार कर खा जाते है. 

इधर शिप पर हालत खराब थी. एक फ्लेयर गन, कुछ पाइप, जिसको जो मिला पकड़कर ले आया. इनका इस्तेमाल कर 24 घंटे तक ये लोग खुद की रक्षा करते रहे. टापू के लोग शिप पर तीर चला रहे थे. लेकिन तेज़ हवा के चलते तीर जहाज तक नहीं पहुंचे, ऊपर से शिप की ऊंचाई के चलते कोई चढ़ भी नहीं पाया. एक हफ्ते बाद इंडियन नेवी का हेलीकॉप्टर रेस्क्यू के लिए पहुंचा. रस्सी से चढ़ाकर शिप में मौजूद लोगों को बचाया गया. जहाज वहीं खड़ा रहा. डिस्मेंटल करने के लिए एक कंपनी को ठेका मिला. उनके वर्कर पहुंचे तो उन पर भी हमला हुआ. फिर कुछ समय बाद सब शांत हो गया. जंगल से लोग आते रहे लेकिन वक्त के साथ उन्होंने हमला करना बंद कर दिया. 

नार्थ सेंटिनल आइलैंड

जिस टापू पर ये सब हो रहा था वो भारत के अंडमान के अंडमान द्वीप समूह का नार्थ सेंटिनल आइलैंड (North Sentinal Island) है. और जिन लोगों ने हमला किया उन्हें सेंटिनली आदिवासी कहा जाता है. भारत का ये वो इलाका है, जिसका 60 हजार सालों से सभ्यता से पाला नहीं पड़ा है. यहां न कोई जा सकता है, न इन लोगों से मिल सकता है. आज 9 अगस्त है. इस दिन को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है. आज आपको बताएंगे भारत की उस आदिवासी समुदाय के बारे जिनका पाला आधुनिकता से नहीं पड़ा. जिनके इलाके में पैर रखना तक मुश्किल है. क्या है इनकी कहानी चलिए जानते हैं. 

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TN पंडित  सेन्टिनली लोगों  नारियल देते हुए (तस्वीरल TN पंडित)

तो बात शुरू होती है 1296 से. मार्को पोलो ने अपने संस्मरण में लिखा कि अंडमान के ये लोग आदमखोर होते हैं. इनके तेज़ दांत, लाल आंखें होती हैं. और ये जिसे देखते हैं, मार डालते हैं. मार्को पोलो ने ये लिख तो दिया लेकिन इतिहासकार नहीं मानते कि उसने कभी अंडमान पर पैर रखे. संभव है कि पोलो ने जो भी लिखा वो सब सुनी-सुनाई बातें थी. बहरहाल नार्थ सेंटिनल आइलैंड का पहला आधिकारिक जिक्र 1771 में मिलता है. जब ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक जहाज सर्वे करने के लिए यहां पहुंचा था. इन लोगों ने द्वीप पर आग जली देखी लेकिन वहां उतरे नहीं. 

आधुनिक मनुष्य का पैर इस आइलैंड पर पड़ा साल 1867 में. तब भी एक मालवाहक जहाज द्वीप के किनारे क्रैश कर गया था. शिप से 86 लोग द्वीप पर उतरे. उन्हें द्वीप पर रहनेवाले आदिवासियों का कुछ पता नहीं था. 3 दिन बाद एक सुबह जब ये लोग नाश्ता कर रहे थे तब इन पर अचानक हमला हुआ. बड़ी मुश्किल से ये लोग जान बचाकर भागे और तब कंपनी के एक जहाज ने इन्हें रेस्क्यू किया था. 
सेन्टिनली लोगों और आधुनिक मनुष्य का पहला कांटेक्ट 1880 में हुआ. रॉयल नेवी के अफसर मॉरिस पोर्टमैन सशस्र टुकड़ी को लेकर नार्थ सेंटिलन आइलैंड तक पहुंचे. बहुत दिनों की खोज के बाद इन्हें एक बूढ़ा, एक औरत और चार बच्चे मिले, जिन्हें ये अपने साथ पोर्ट ब्लेयर ले आए. आदमी और औरत कुछ ही दिनों में मर गए. बच्चों की भी तबीयत खराब होने लगी तो पोर्टमैन ने उन्हें वापस द्वीप पर छोड़ दिया. इसके बाद अंग्रेज़ों की तरफ से आइलैंड के लोगों से कांटेक्ट करने की कोई कोशिश नहीं हुई. 

1896 में संभवतः कालापानी से भागकर एक जुगाड़ू नाव के जरिए कोई कैदी इस आइलैंड तक आ पहुंचा था. कुछ रोज़ बाद एक सर्च पार्टी उसके पीछे पीछे आई तो उन्हें उसकी लाश मिली. जिस पर तीर के निशान थे और गला रेत दिया गया था. इसके बाद लगभग 70 साल तक कोई इस आइलैंड के नजदीक नहीं गया. आजादी के भारत सरकार की तरफ से भी इस आइलैंड के लोगों से कांटेक्ट करने की कोशिश नहीं की गई. फिर बाद में सरकार ने कुछ शोधकर्ताओं को आइलैंड तक जाने की इजाजत दी. 

आदिवासी कैसे रहते हैं? 

1967 में त्रिलोकनाथ पंडित इस आइलैंड तक पहुंचे. वो एक सरकारी दस्ते के साथ पहुंचे थे. उनकी नाव आइलैंड तक पहुंची. दूरबीन से देखा तो सेन्टिनली आदिवासी दिखाई दिए लेकिन बोट देखते ही वो जंगल की ओर भाग गए. TN पंडित और उनकी पार्टी ने क़दमों के निशान का पीछा किया. अंदर जंगल में उन्हें 18 झोपड़ियां दिखाई दी. पहली बार इन लोगों के बारे में कुछ पता चल रहा था. झोपड़ियां घास और लकड़ियों की बनाई थी. अंदर आग जल रही थी. वहां शहद, सुंअर की हड्डियां थी. लकड़ी के कुछ बर्तन थे, कुछ भाले और तीर भी मिले. तीर की नोक पर लोहा लगा था, जिससे पता चला कि ये लोग मेटल से वाकिफ थे. इन लोगों की किसी आदिवासी से मुलाक़ात तो नहीं हो पाई लेकिन वहां कुछ मेटल के बर्तन और नारियल जरूर छोड़ आए. 

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हेलीकॉप्टर की तरफा आक्रामक सेन्टिनली लोग (तस्वीर: इंडिया टुडे)

1970 तक ये इलाका सरकारी पहुंच से बाहर रहा. फिर 1970 में सरकार ने तय किया कि कम से कम निशानदेही जरूरी है. इसलिए 1970 में सर्वे के लिए आई एक पार्टी ने द्वीप पर एक पत्थर लगाया, जिसमें लिखा था कि ये द्वीप भारत का हिस्सा है. इंटरनेशनल कम्युनिटी में इस आइलैंड के चर्चे हुए तो 1974 में नेशनल जियोग्राफिक की एक टीम डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए आई. दुनिया में जब भी एक अनछुई ट्राइब से पहला कांटेक्ट किया जाता है, तो कुछ तरीके आजमाए जाते हैं. भाषा में बात नहीं हो सकती इसलिए कुछ गिफ्ट देकर कांटेक्ट बनाया जाता है. साथ ही इशारों से बात करने की कोशिश की जाती है. नेशनल जियोग्राफिक की टीम ने भी यही तरीके अपनाने की कोशिश की.  लेकिन जैसे ही उनकी नाव आइलैंड के नजदीक पहुंची उस पर तीर चलने लगे. एक तीर सीधा डायरेक्टर के लगा. जिस आदिवासी ने तीर चलाया वो जोर से हंसा और एक पेड़ के नीच जाकर बैठ गया. टीम वापिस लौट गई. तीन दिन की कोशिश के बाद टीम टापू के किनारे तक जा पाई. 

यहां इन्होंने कुछ गिफ्ट छोड़े, मसलन एक सुंअर, कुछ नारियल, कुछ बर्तन, एक प्लास्टिक की कार और एक गुड़िया, ये देखने के लिए कि आइलैंड के लोग कैसे रिएक्ट करते हैं. पार्टी ने देखा कि उन लोगों ने बर्तन और नारियल तो ले लिए. लेकिन सुंअर को मारकर जमीन में गाड़ दिया. प्लास्टिक की गुड़िया और कार के साथ भी यही सुलूक हुआ. उसी साल नेशनल जियोग्राफिक में सेन्टिनली आदिवासियों की पहली तस्वीर छपी. नीचे लिखा था, जहां शब्द नहीं तीर बोलते हैं. इसके बाद 70 और 80 के दशक में कई बार सेन्टिनली लोगों से कांटेक्ट की कोशिश हुई. गिफ्ट लेने के लिए सेंटीनेली लोग तैयार थे, लेकन कोई ज्यादा नजदीक पहुंचने की कोशिश करता तो बदले में तीर से स्वागत होता. 

आदिवासियों से पहला कांटेक्ट 

सेन्टिनली लोगों से एकमात्र कांटेक्ट साल 1991 में हुआ. तब अन्थ्रोलोपोजिस्ट की एक टीम द्वीप पर पहुंची थी. इस टीम में TN पंडित और मधुमाला चट्टोपाध्याय भी शामिल थीं. मधुमालाके रूप में पहली बार सेन्टिनली लोगों का सामना एक महिला से हो रहा था. इसका असर भी दिखा. तोहफे लेने के बाद एक आदिवासी पुरुष ने मधुमाला की ओर धनुष तान दिया. उसी समय एक आदिवासी महिला ने पुरुष को धक्का देकर तीर चलाने से रोक दिया. इस दौरान पहले टीम की तरफ से पानी में बहाकर नारियल दिए गए. फिर बाद में सेन्टिनली लोग कुछ नारियल हाथों से लेने के लिए भी तैयार हो गए. 

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मधुमाला चट्टोपाध्याय (तस्वीर: नेशनल जियोग्राफिक)

इसके बाद भी कई बार सेन्टिनली लोगों से कांटेक्ट करने की कोशिश हुई. लेकिन 1996 में सरकार ने इस पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया. 2004 में सुनामी के बाद इस आइलैंड का हवाई मुआयना किया गया तो पता चला कि ये लोग सुनामी से बच गए थे. सरकार की तरफ से खाने के कुछ पैकेट भी गिराए गए. लेकिन हेलीकाप्टर देखते ही आदवासियों ने तीर दिखाने शुरू कर दिए. मतलब था, हमें तुम्हारी मदद की जरुरत नहीं. 
 
भारत सरकार की तरफ से इस इलाके में जाने पर पूरी तरह प्रतिबन्ध है. लेकिन 2006 में कुछ मछुवारे यहां केकड़े पकड़ने चले गए थे. तीन दिन बाद उनकी लाश बीच पर दिखी. उन्हें बांस से लटकाकर बीच पर खड़ा कर दिया गया था, मानों एक चेतावनी सी जारी हो. लाश वापिस ले जाने की कोशिश हुई लेकिन उस टीम पर भी आदिवासियों ने तीर से हमला किया. चूंकि सेन्टिनली लोगों से कांटेक्ट करना मना है, इसलिए भारत सरकार का कोई नियम भी यहां लागू नहीं होता. मतलब इस इलाके में गए और मारे गए तो खुद की जिम्मेदारी है.

अमेरिकी ईसाई मिशनरी मारा गया 

सेन्टिनली लोग आख़िरी बार ख़बरों में आए थे साल 2018 में जब एक ईसाई मिशनरी ने यहां पहुंचकर इन लोगों से मिलने की कोशिश की. जॉन एलन चाउ नाम का एक अमेरिकी नागरिक गैर कानूनी रूप से यहां पहुंचा. उसे उम्मीद थी कि वो ईश्वर का वचन इन तक पहुंचाएगा. 15 नवम्बर को चाउ यहां पहुंचा. दो बार उसने गिफ्ट देने और गीत गाकर उनसे कांटेक्ट करने की कोशिश की. लेकि चाउ के खत के अनुसार आदिवासी या तो जोर-जोर से चिल्ला रहे थे या हंस रहे थे. 17 नवम्बर को चाउ आख़िरी बार आइलैंड तक पहुंचा और वहीं रुक गया. उसने बोत वाले से वापिस लौट जाने को कहा, बोट वाले ने बताया कि उसने आदवासियों को चाउ को घसीट कर ले जाते हुए देखा और अगले दिन उसकी लाश बीच पर लटकी हुई मिली. भारत की तरफ से कई कोशिश हुई कि चाउ के शरीर को वापिस लाया जाए. लेकिन जो भी गया, उसका तीरों से स्वागत हुआ. 

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जॉन एलन चाउ (तस्वीर: Getty)

अब एक नजर डालते हैं कि इन लोगों के बारे में हमें अब तक पता क्या है?
• पहली बात ये कि ये लोग आदमखोर नहीं है. चूंकि आदिवासी मरे हुए साथियों की हड्डियां गले में पहनते हैं, इस कुछ लोग ऐसा समझते हैं, लेकिन इस बात के कोई साक्ष्य नहीं हैं.
• ये लोग झोपड़ी बनाकर रहते हैं. और जमीन पर सोते हैं. 
• इनमें आदमियों और औरतों की ऊंचाई लगभग 5 फुट के आसपास होती है 
• ये लोग आग जलाना नहीं जानते, बल्कि बिजली गिरने पर चिंगारी को संभाल कर रखते हैं और उसी से काम चलाते हैं 
• ये लोग खेती नहीं करते बल्कि आदिमानव की तरह शिकार और खाना इकठ्ठा करते हैं 
• इसकी भाषा अंडमान की बाकी भाषाओँ से बिलकुल अलग है.
• इस इलाके में 50 से 200 के बीच लोग रहते हैं. 
• ये नाव चलाना जानते हैं लेकिन तैर नहीं सकते. 

सरकार की तरफ से यहां जाने पर पाबंदी है. और ये लोग भी नहीं चाहते कि इनसे कांटेक्ट किया जाए. इसके वाजिब कारण भी हैं. साल 1858 में अंग्रेज़ों ने अंडमान को अपनी कॉलोनी का हिस्सा बनाया था. तब यहां अलग-अलग प्रजाति के 7 हजार आदिवासी रहते थे. ब्रिटिशर्स के आने के साथ आई बीमारियां. इन लोगों में इन बीमारियों के लिए कोई नेचुरल इम्युनिटी नहीं थी. इसलिए 150 साल बाद इनकी संख्या सिर्फ 300 के आसपास रह गयी हैं. अधिकतर जनजातियां लुप्त हो चुकी हैं. सेन्टिनली जनजाति एक मात्र जनजाति है जिसे बाहरी लोगों से दूरी बनाकर राखी है. और इसी कारण ये बचे भी हुए हैं. यहां जाकर आप नहीं कह सकते कि विकास और तरक्की इंसान के लिए जरूरी हैं. यहां सिर्फ जीना ही काफी है. 

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