2018 के नोबेल पुरस्कार. 1 से 8 अक्टूबर, 2018 तक रोज एक विनर का ऐलान किया जा रहा है. 3 अक्टूबर को केमिस्ट्री का नोबेल दिया गया. किसे और क्यों. ये हम समझाएंगे. आसान भाषा में.
कल हमने जाना था फिज़िक्स के फील्ड में दिए गए प्राइज़ के बारे में: फिज़िक्स का नोबेल, चिमटी का अाविष्कार करने वालों को मिला है
फील्ड: केमिस्ट्री
किसे मिला: फ्रांसेस अर्नोल्ड (अमेरिका), जार्ज स्मिथ (अमेरिका), ग्रेगरी विंटर (ब्रिटेन)
कार्य: लेज़र फिज़िक्स
# किसे मिला -
# 1 - फ्रांसेस अर्नोल्ड -
# 2 - जार्ज स्मिथ -

# 3 - ग्रेगरी विंटर -

# क्यूं मिला -
चूंकि दो जगह अवॉर्ड बंटा. इसलिए आपको दो खोजों के बारे में बताएंगे -# 1 डायरेक्टेड इवोल्यूशन -
ये दरअसल डार्विन वाले इवोल्यूशन का ही ‘लैब’ या ‘मैनुअल’ स्वरूप है. इसलिए आइए पहले डार्विन ताऊ वाले इवोल्यूशन को समझ लें.

नेचुरल/डार्विन इवोल्यूशन के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत होती है –
# 1 - प्रतिकृतियों (रेप्लीकेटर्स) के बीच में भिन्नताएं – मने बाप-बेटे और किसी बाप के दो बेटे एक से हो जाएंगे तो इवोल्यूशन संभव ही नहीं हो पाएगा. इवोल्यूशन हो पाए इसके लिए थोड़ी बहुत ही सही, कार्बन कॉपीज़ का न केवल ऑरिजनल कॉपी से बल्कि एक दूसरे से भी अलग होनी ज़रूरी हैं. मने पूत पे पूत और घोड़े पे घोड़ा बेशक हो मगर पूरा नहीं बस थोड़ा-थोड़ा हो. और इसी डिफरेंसेज़ के चलते फिटनेस डिफ़रेंस आता है.
# 2 - फिटनेस डिफ़रेंस – यहां पर फिटनेस डिफ़रेंस का मतलब है कि किन्हीं दो में से कौन ज़्यादा संताने उत्पन्न कर सकता है. जिसकी जितनी ज़्यादा संताने उसकी उतनी ज़्यादा फिटनेस. अब लोग इसे ‘डोले-शोले’ वाली फिटनेस से न कन्फ्यूज़ कर जाएं इसलिए इसे बायोलोजिकल या डार्विनियन फिटनेस और दो जीवों के बीच के फिटनेस के अंतर को बायोलोजिकल या ‘डार्विनियन फिटनेस डिफ़रेंस’ कहा जाता है.
# 3 - अनुवांशिकता – जो दो कार्बन कॉपीज़ या भाइयों के बीच अंतर बताया जा रहा है वो अनुवांशिक होना चाहिए. मतलब अगर ऐसा हो कि दो भाई डिट्टो एक से पैदा हुए हों और (ईश्वर न करे) एक का पैर किसी एक्सीडेंट में कट गया हो तो दो भाइयों के बीच यह अंतर अनुवांशिक न होकर परिस्थितिक (एनवायरमेंटल) होगा और इवोल्यूशन नहीं हो पाएगा.

हां तो जब ये तीन चीज़ें होंगी तभी धीरे-धीरे कई पीढ़ियों के बाद एक बिल्कुल नया जीव उत्पन्न होगा. बंदर से इंसान बनेगा. और यही तो डार्विन का विकासवाद या इवोल्यूशन थ्योरी है.
लेकिन ये प्रोसेस इतनी हल्की है कि पिछले 5000 सालों में एक भी नया जीव इवॉल्व नहीं हुआ है. तभी तो केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह जैसे बुद्धिजीवी नेताओं का इस पूरी थ्योरी पर से विश्वास उठ जाता है. बहरहाल हमारा नहीं उठा. और न ही इस बार की नोबेल प्राइज़ विजेता फ्रांसेस अर्नोल्ड का. उन्होंने ‘डायरेक्टेड इवोल्यूशन’ में यही प्रोसेस तेज़ कर दी. बड़े सूक्ष्म स्तर पर. मने बंदर से इंसान बनाने की प्रक्रिया अभी दूर है.
# क्या किया जाता है डायरेक्टेड इवोल्यूशन में –
हमें सबसे पहले डायरेक्टेड इवोल्यूशन के अंतिम रिजल्ट को स्पेसिफाई करना होगा. जैसे हो सकता है कि डायरेक्टेड इवोल्यूशन के द्वारा हम ऐसे एंजाइम बनाना चाहते हैं जो शराब कहीं बेहतर तरीके से निर्मित कर सके, या फिर हम ऐसे प्रोटीन बनाना चाहते हैं जो सबसे बेहतरीन बायो फ्यूल सिद्ध हों. ये ऐसा ही है कि पहले आपने ये डिसाइड कर लिया कि आज शाम घर में क्या बनेगा. फिर उसी से रिलेटेड इंग्रिडेंट्स बाज़ार से खरीदे और वही प्रोसेस अपनाई जिससे शाम के खाने में वो बने जो आप खाना चाहते हैं.

जब हमने एक बार अपनी ‘इच्छा’ स्पेसिफाई कर ली तो उसी के हिसाब से एक उपयुक्त एंजाइम की पहचान की जिसका म्यूटेशन या इवोल्यूशन करना है.
उसके बाद उस एंजाइम की डीएनए-सिक्वेंसिंग की. यूं समझ लीजिए कि किसी एंजाइम का हर डीएनए एक किताब है, उनकी डीएनए सिक्वेंसिंग मने एक लाइब्रेरी का निर्माण करना जहां हर विधा, हर लेखक के हिसाब से किताब ढूंढना आसान हो जाता है. फिर शुरू होता है पीसीआर.
पॉलिमरेज़ चेन प्रतिक्रिया (PCR) एक लैब प्रोसेस होती है जिससे एक ही जीन की कई प्रतियां/कॉपीज़ बनाई जा सकती हैं. मने PCR डीएनए के लिए एक फोटो-कॉपीयर सरीखा है.

आम तौर पर तो PCR से जीन की बिल्कुल सटीक प्रतियां बनती हैं और यूं इवोल्यूशन की पहली रिक्वायरमेंट ही पूरी नहीं होती लेकिन प्रोसेस में थोड़ी बदलाव करके, या उसे थोड़ा त्रुटिपूर्ण बनाकर जीन के डीएनए सिक्वेंस में चाहे/अनचाहे परिवर्तन हो जाते हैं/किए जाते हैं. गोया फोटो-कॉपी करते वक्त किसी प्रिंट में इंक बढ़ा दी जाए, किसी में पेपर टाइप और साइज़ बदल दिया जाए...
ये चेंजेस वैज्ञानिकों की चॉइस के ही हों ज़रूरी नहीं लेकिन इससे जीन के ढेरों वेरिएंट ज़रूर बन जाते हैं. यानी डार्विन वाली पहली कंडिशन पूरी.
अब इन वेरिएंट्स में से अधिकतर ‘पापा-जीन’ से भी कम फिटनेस (डार्विन वाली) रखते हैं इसलिए तगड़ी स्क्रीनिंग की जाती है. और यूं डार्विन के दूसरे पॉइंट का भी ध्यान रखा जाता है.

अंततः अच्छी ‘फिटनेस’ वाले जीन वेरिएंट्स को प्लाज़मिड में इंसर्ट करके कई नए ‘इवॉल्वड’ एंजाइम बनते हैं. प्लास्मिड भी एक तरह का डीएनए ही होता है जिसकी सबसे बड़ी प्रॉपर्टी ये होती है कि वो अपने प्रतिरूप/कॉपी बना सकते हैं. बहरहाल यूं बनने वाले कुछ एंजाइम वैज्ञानिकों की रिक्वायरमेंट्स के हिसाब से बिल्कुल नाकारा होते हैं, कुछ ठीक वैसे ही या कमोबेश वैसे ही जैसे ऑरिजनल एंजाइम थे, लेकिन कुछ बिल्कुल मुफ़ीद होते हैं. बिल्कुल मुफीद न भी हों तो भी ज़रूरत के सबसे नज़दीक आने वाले एंजाइम काफी हैं.

मने इन एंजाइम को परफेक्ट होने की ज़रूरत नहीं, परफेक्शन के नज़दीक ही हो तो काफी है. क्यूंकि ये डायरेक्टेड इवोल्यूशन का चक्र फिर से चलाया जा सकता है और हमें हमारी ज़रूरत के हिसाब से परफेक्ट, और परफेक्ट एंजाइम मिलते चले जाते हैं.
# गौर करें कि म्यूटेशन जेनेटिक लेवल पर किया जा रहा है और सेलेक्शन ‘प्रोटीन’ या एंजाइम लेवल पर.
# इवोल्यूशन की ये पूरी प्रोसेस हिट एंड ट्रायल आधार पर होता है.

# यूं डायरेक्टेड इवोल्यूशन में म्यूटेशन, स्क्रीनिंग, और एंप्लीफिकेशन को रिपीट कर-कर के ऐच्छिक फल पाया जाता है, इसलिए ये एक चक्रीय/पुनरावृत्तीय प्रोसेस है.# 2 - फेज डिस्प्ले –
# ये एक प्रोटीन इंजीनियरिंग है जो डार्विन के ‘प्राकृतिक चयन’ (नेचुरल सिलेक्शन) की नकल करती है.
फेज डिस्प्ले भी कमोबेश डायरेक्टेड इवोल्यूशन ही है इसलिए ही तो दोनों को एक साथ नोबेल मिला है. (नोबेल देने वाले इस बात का विशेष ख्याल रखते हैं कि अगर एक ही साल में एक ही विधा में दो या दो से अधिक लोगों को प्राइज़ दिया जाए तो उन सबके काम या काम का आधार सेम हो.)

फेज एक बहुत सरल जैव संरचनाएं हैं. बल्कि कुछ वैज्ञानिक तो उन्हें 'जीवित' या जैविक संरचनाएं मानते भी नहीं. उनकी प्रोटीन वाली थैली में कुछ आनुवंशिक पदार्थ भरे होते हैं. अन्य वायरसों की तरह, वे रिप्रोडक्टिव नहीं होते. मेटाबॉलिज़म के लिए वो बैक्टीरिया को यूज़ करते हैं. परजीवी की तरह.
अब स्मिथ ने एक फेज उठाया और उसमें किसी प्रोटीन का जीन इंजेक्ट कर दिया जाता. जब फेज ने रेप्लीकेट किया या अपनी प्रतिलिप बनाई तो जीन उसमें डाला गया था वो डिकोड हो गया. मतलब उसका असर फेज में दिखने लगा. यूं समझिए कि पिता में छः उंगलियों वाला जीन डाला और पिता की तो छः उंगलियां नहीं हुईं लेकिन उसकी बेटी या बेटे की हो गई.

स्मिथ के प्रयोग से इंस्पायर्ड होकर विंटर ने एंटीबॉडी बनाने के लिए फेज का उपयोग करना शुरू कर दिया. वो कैसे?
पहले समझें एंटीबॉडी क्या होते हैं. जब कोई बैक्टीरिया या वायरस हमारे शरीर के अंदर जाता है तो वो कुछ प्रोटीन बनाता है. ये प्रोटीन एंटीजन कहलाते हैं. अब अगर ये एंटीजन ताले हैं तो एंटीबॉडीज़ चाबियां, जिन्हें हमारे शरीर के वाइट ब्लड सेल्स बनाते हैं. एंटीबॉडीज़ भी प्रोटीन से बनी होती हैं (ग्लाइकोप्रोटीन). और जैसे हर ताले की अलग चाबी होती है वैसे ही हर एंटीजन की अलग एंटीबॉडी होती है. और सिंपल भाषा में कहा जाए तो बैक्टीरिया या वायरस से जो रोग हुआ वो एंटीजन और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता ने उसका जो इलाज बनाया वो एंटीबॉडी.

तो स्मिथ ने किसी स्पेसिफिक बीमारी के लिए सबसे अच्छा एंटीबॉडी खोजने के लिए, एंटीबॉडी ले जाने वाले फेज के पूरे कैटलॉग को एक रोग पर टारगेट किया. वो फेज जिनकी एंटीबॉडी इस टार्गेट से नहीं जुड़ी वो एक प्यूरीफिकेशन प्रोसेस के दौरान हटा दिए गए. और जिन फेज ने अच्छा प्रदर्शन किया उनका कई बार रेंडम म्यूटेशन कर-कर के ऐसे एंटीबॉडी का निर्माण हो गया जो टारगेट के साथ मज़बूती से बंध जाएं. मने बेस्ट चाबी बन जाए. और यही एक दवाई का अविष्कार होना है. और क्या आपको पता है दुनिया में सबसे ज़्यादा बिकने वाली दवाई हुमिरा (Humira) इसी प्रोसेस की देन है.

# हमारा क्या फायदा –
इन दोनों का ही मिला जुला फायदा बायो फ्यूल जैसे सस्ते ऊर्जा विकल्पों को बनाने से लेकर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से लड़ने तक के लिए किया जा रहा था, जा रहा है और फ्यूचर में ये और बढ़ेगा. जहां डायरेक्टेड इवोल्यूशन नए एंजाइम बनाता है, फेज डिस्प्ले बेहतर चिकित्सीय एंटीबॉडी (प्रतिरोधक) विकसित करता है.
नोबेल देने वाली आर्गेनाइजेशन कहती है - डायरेक्टेड इवोल्यूशन से बने एंजाइम का उपयोग फार्मास्यूटिकल्स से लेकर जैव ईंधन तक ‘सब कुछ’ बनाने के लिए किया जाता है. वहीं फेज डिस्प्ले से विकसित हुई एंटीबॉडी का उपयोग ऑटोइम्यून रोगों और कुछ मामलों में मेटास्टैटिक कैंसर का इलाज करने के लिए किया जाता है.
# नोबेल के बारे में छोटी छोटी मगर मोटी बातें -
# 1 - अल्फ्रेड नोबेल. स्वीडन के साइंटिस्ट. डायनामाइट बनाया. जिससे बम बनाते हैं. इससे खूब पैसे कमाए. मगर अपराध बोध भी कमाया. क्योंकि डायनामाइट लोगो को मारने के काम आ रहा था.# 2 - अपनी कमाई से एक ट्रस्ट बनाया. मौत के बाद वसीयत लिखी. ट्रस्ट को जो पैसा दिया, उससे नोबेल प्राइज दिया जाने लगा. अल्फ्रेड नोबेल की मौत के पांच साल बाद से. साल था 1901.
# 3 - पहले पांच फील्ड में दिया जाता था. फिजिक्स, केमिस्ट्री, मेडिकल साइंस, लिटरेचर और वर्ल्ड पीस. बाद में 1969 में इकॉनमिक्स भी जुड़ गया, तो हो गए छह फील्ड छह नोबेल.

# 4 - इस साल पांच ही नोबेल दिए जाएंगे. साहित्य में नहीं. वजह, चुनाव कमेटी का एक आदमी सेक्स स्कैंडल में फंस गया.
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# 5 - # रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज चुनती है फिज़िक्स, केमिस्ट्री और इकॉनमिक्स के विनर
# स्वीडिश रॉयल कैरोलिन मेडिको चुनती है मेडिकल फील्ड विनर.
# स्वीडिश अकादमी चुनती है लिटरेचर विनर.
# नार्वेजियन संसद की बनाई कमेटी चुनती है पीस प्राइज.
# 6 - नोबेल प्राइज हर साल 10 दिसंबर को दिया जाता है. इस दिन अल्फ्रेड नोबेल मरे थे.
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