"तुम्हारे पिता को हम ही (मुख्यमंत्री) बनाए थे. अरे तुम्हारे जात वाले भी कहते थे काहे के लिए (लालू का समर्थन) कर रहे हैं. तो हमने तो उसी आदमी को बना दिया."
लालू यादव को 'दोस्त' नीतीश कुमार ने CM बनवाया, फिर ऐसे खेल किए कि दोबारा कभी बनने नहीं दिया!
1988 में लालू यादव बिहार में नेता प्रतिपक्ष बने और 1990 चुनाव में जीत के बाद उनको मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली. तब नीतीश कुमार लालू के दोस्त और वफादार हुआ करते थे.

नीतीश कुमार ने ये बयान विधानसभा के अंदर नेता विपक्ष तेजस्वी यादव को संबोधित करते हुए दिया. चुनावी साल में नीतीश जानते थे कि उनका बयान सुर्खियां बटोरेगा और इतिहास के पन्ने पलटे जाएंगे.
बीते एक दशक से नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच दोस्ती और अदावत का खेल सबके सामने है. पर यह भी सच है कि एक ज़माने में दोनों नेताओं के बीच लंबी और गहरी मित्रता रही है. जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के समय दोनों नेताओं के बीच घनिष्ठता बढ़ी जो करीब दो दशक तक चली. इस दौरान लालू और नीतीश विधायक भी बने और संसद भी पहुंचे. हालांकि, नीतीश को शुरुआत में असफलता मिली, वह दो विधानसभा चुनाव हार गए थे. वहीं लालू यादव 1977 इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में ही संसद पहुंच गए थे. नीतीश कुमार 1985 में पहली बार विधायक बने.
लालू यादव एक अल्हड़ नेता के तौर पर जाने जाते थे. उनकी छवि मनमौजी नेताओं की थी. शुरुआत में कर्पूरी ठाकुर लालू यादव को उतनी तवज्जो नहीं देते थे. लालू खुद को कर्पूरी के बाद पार्टी के नेता की तौर पर देख रहे थे, लेकिन कर्पूरी ने कभी उन्हें स्वीकारा नहीं. कर्पूरी राम सुंदर दास, अनूप लाल यादव और गजेंद्र हिमांशु जैसे नेताओं को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर देख रहे थे. हालांकि, 1985 के चुनाव आते-आते उन्हें भी महत्वाकांक्षी लालू की अहमियत समझ आने लगी थी. दूसरी तरफ नीतीश कुमार थे. कम ही उम्र में वे अपनी पार्टी लोकदल में सम्मानजनक नेता के तौर पर गिने जाने लगे थे. अच्छे वक्ता भी थे. लेकिन अपने राजनीतिक करियर के आरंभ में उन्होंने भी लालू यादव को ही अपना नेता माना.
नीतीश ने लालू के प्रति अपनी दोस्ती और वफादारी दोनों सिद्ध की, जब 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद नेता विपक्ष चुनने की बारी आई. ऐसा माना जा रहा था कि कर्पूरी की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए नेता विपक्ष उन्हीं में से किसी को चुना जाएगा जिन्हें कर्पूरी पसंद करते थे. करीब तीन दशक से बिहार की राजनीति को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार कहते हैं,
"ये तय था कि लोकदल के किसी यादव चेहरे को ही नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी दी जाएगी. अनूप लाल यादव और गजेंद्र हिमांशु जैसे कद्दावर कुर्सी के दावेदार माने जा रहे थे. लालू खुद को दावेदार मान तो रहे थे, लेकिन पार्टी के 18 में से 17 विधायक उनके पक्ष में नहीं थे."
यहीं से नीतीश कुमार की भूमिका अहम हो जाती है. कहा जाता है, क्योंकि लालू का समर्थन उनकी ही बिरादरी के विधायक नहीं कर रहे थे. इसलिए नीतीश ने बाकी विधायकों को लालू के समर्थन में एकजुट किया. द टेलिग्राम के एडिटर संकर्षण ठाकुर अपनी किताब ‘अकेला आदमी’ में लिखते हैं, “तब नीतीश कुमार ने ही अपने संबंधों के जरिए गैर-यादव विधायकों को लालू के पक्ष में जुटाया. और लालू यादव नेता विपक्ष की कुर्सी तक पहुंच गए.”
इस पर हमने उस दौर में नीतीश कुमार के पुराने साथी और जेडीयू के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद केसी त्यागी से बात की. उन्होंने भी वही बात दोहराई जो संकर्षण ने अपनी किताब में दर्ज की है. केसी त्यागी कहते हैं,
"उस समय हम नीतीश के साथ ही थे. नीतीश कुमार ने ही अन्य जातियों के विधायकों को लालू यादव के समर्थन में एकजुट किया और उन्हें नेता विपक्ष बनाया."
इसी बात को नीतीश कुमार तेजस्वी के सामने विधानसभा में दोहरा रहे थे- 'तुम्हारे जात वाले भी कहते थे कि काहे के लिए कर रहे हैं.'
लेकिन लालू के करियर ग्राफ में नीतीश कुमार का योगदान सिर्फ नेता विपक्ष बनाने भर का नहीं माना जाता. नीतीश ने असली राजनीतिक चालें तब चलीं जब बात मुख्यमंत्री की कुर्सी की आई. दरअसल, उस दौर में तय माना जा रहा था कि जो नेता विपक्ष चुना जाएगा, अगले चुनाव में जीत मिलने पर मुख्यमंत्री का सेहरा उसी के सिर सजेगा.
साल 1990 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. लोकदल का जनता दल में विलय हो चुका था. कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद यह पहला चुनाव था. लालू-नीतीश की पार्टी को 122 सीटें मिलीं. कांग्रेस को 71 और बीजेपी को 39. अब बारी थी मुख्यमंत्री बनने की. लालू इसी महत्वाकांक्षा के साथ नेता विपक्ष बने थे. लेकिन राह इतनी आसान नहीं थी, पर नीतीश कुमार इस राह में साथी जरूर थे.
केंद्र में राजीव गांधी को हरा कर वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी. वीपी सिंह ने राम सुंदर दास को नामांकित किया. लेकिन यह भी कहा कि मुख्यमंत्री सर्वसम्मति से चुना जाए. इस काम के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने तीन पर्यवेक्षक भेजे. लेखक अरुण सिन्हा अपनी किताब ‘नीतीश कुमार और उभरता बिहार’ में लिखते हैं,
"तीन में से दो पर्यवेक्षक अजीत सिंह और जॉर्ज फर्नांडिस, वीपी सिंह के घनिष्ठ सहयोगी थे और उन्होंने राम सुंदर दास को सर्वसम्मति से निर्वाचित कराने का भरपूर प्रयास किया. लेकिन तीसरे पर्यवेक्षक थे शरद यादव जो देवी लाल के आदमी थे और लालू के लिए समर्थन जुटाने आए थे."
पटना में एक हफ्ते तक माथापच्ची चलती थी. पर्यवेक्षकों की 'तटस्थता' यह बताने के लिए काफी थी कि मुख्यमंत्री सर्वसम्मति से नहीं चुना जा सकता. लालू भी यही चाहते थे. लेकिन राम सुंदर दास से सीधी टक्कर होती तो लालू का कुर्सी तक पहुंचना मुश्किल हो जाता. क्योंकि अगड़ी जाति के विधायक, दलित और पिछड़ों में निचली जाति से आने वाले विधायक लालू के समर्थन में नहीं थे. और यहीं से नीतीश कुमार को भूमिका अहम हो गई.
1989 में लोकसभा चुनाव जीतकर नीतीश कुमार संसद पहुंच गए थे. दिल्ली में उन्हें कृषि राज्य मंत्री बनाया गया. और लालू को मुख्यमंत्री बनाने के लिए जो योजना बनी थी, उसका खाका नीतीश कुमार ने ही तैयार किया था. द टेलीग्राफ के संपादक संकर्षण ठाकुर अपनी किताब 'अकेला आदमी' में लिखते हैं,
"नीतीश कुमार उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने इस प्रकार के व्यूह की रचना की थी कि लालू प्रसाद उससे बच के निकल जाएं. चंद्रशेखर मन में गांठ लिए बैठे थे, क्योंकि वीपी सिंह प्रधानमंत्री पद की रेस में उनसे आगे निकल गए थे. अंतत: चंद्रशेखर को राम सुंदर सिंह का विरोध करने के लिए उकसाया गया क्योंकि दास वीपी सिंह की पसंद थे. वह केवल वीपी सिंह के प्रति अपना प्रतिशोध निकालने के लिए तैयार हो गए. उन्होंने अपने पुराने वफादार रघुनाथ झा को मुकाबले में शामिल होने के लिए तैयार किया. झा को जीतने की कोई उम्मीद नहीं थी, लेकिन वह नई विधान-मंडल पार्टी में काफी वोट काट सकते थे."
रघुनाथ झा को जो काम सौंपा गया था वो उन्होंने पूरा कर दिया. सीएम के चुनाव में झा को मिले 12 वोट, दास को मिले 56 वोट और लालू को मिले 59 वोट. और 42 साल के लालू प्रसाद यादव के लिए 1, अणे मार्ग के द्वार खुल गए थे.
नीतीश कुमार खुलकर इस जोड़तोड़ की राजनीति को विधानसभा के पटल पर नहीं कह सकते थे. लेकिन राजनीतिक दोस्ती जो प्रतिद्वंदिता में बदल गई उसका दर्द जरूरत झलका. हालांकि, नीतीश के साथी कहते हैं कि उनकी भूमिका इससे भी बढ़कर थी. राज्यसभा सांसद केसी त्यागी कहते हैं,
लालू से मोहभंग"लालू यादव को मुख्यमंत्री चुन तो लिया गया था, लेकिन एक हफ्ता बीत जाने के बाद भी राज्यपाल यूनुस सलीम ने उन्हें पद की शपथ नहीं दिलाई. ये सब तब हो रहा था जब दिल्ली में हमारी ही सरकार थी. तब नीतीश कुमार और हमने ये आह्वान किया कि गवर्नर हाउस का घेराव किया जाएगा. दबाव में आकर राज्यपाल ने शपथग्रहण समारोह कराया."
लालू-नीतीश की ये दोस्ती देश की सियासत की मिसाल बन सकती थी. लेकिन लालू के मुख्यमंत्री बनने के महज तीन साल बाद नीतीश का उनसे मोहभंग हो गया. और लालू को बिहार की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वाले नीतीश को उनसे सत्ता छीनने में कुल 15 साल लग गए. नीतीश 2005 में बीजेपी के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने.
इस बीच लालू के एक पुराने इंटरव्यू की क्लिप भी वायरल हो रही है. NDTV से बातचीत के दौरान लालू ने इस बात को स्वीकारा था कि नेता विपक्ष बनाने में नीतीश की बड़ी भूमिका थी. उनसे जब नीतीश के योगदान के बारे में पूछा गया तो लालू ने कहा,
"बहुत योगदान था. अनूप लाल यादव और कुछ लोग उस जगह (नेता प्रतिपक्ष) के लिए उम्मीदवार बन गए थे. लड़कपन में मैं लड़ गया. तो नीतीश कुमार का बहुत बड़ा योगदान था. छात्र राजनीति में भी हम सब एक साथ थे."
लालू भले ही नीतीश कुमार के योगदान को स्वीकार कर चुके हों. लेकिन उनके बेटे और बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव दावा कर रहे हैं कि लालू छोड़िए, उन्होंने ही नीतीश कुमार को दो बार मुख्यमंत्री बनाया.
2013 में NDA का साथ छोड़ने के बाद नीतीश ने 2015 में लालू के साथ चुनाव लड़ा और मुख्यमंत्री बने. लेकिन 2017 में उन्होंने पलटी मारी और बीजेपी के साथ चले गए. 2022 में नीतीश ने फिर पलटी मारी और लालू के साथ गठबंधन कर लिया. लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश एक बार फिर बीजेपी के साथ आ गए.
RJD के साथ रहते हुए नीतीश दो बार मुख्यमंत्री बने. 2015 साथ चुनाव लड़कर जीता और 2022 में पलटी मारने के बाद नीतीश RJD के समर्थन से मुख्यमंत्री बने. और उनके साथ डिप्टी सीएम बने थे तेजस्वी यादव. तेजस्वी इन्हीं दो मौकों का उदाहरण देते हुए कह रहे हैं कि उन्होंने नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया.
हालांकि, इंडियन एक्सप्रेस के सीनियर असोसिएट एडिटर और बिहार की राजनीति पर कई किताबें लिख चुके संतोष सिंह तेजस्वी के दावे पर नाइत्तेफाकी दिखाते हैं. संतोष कहते हैं,
"तेजस्वी भले ही 2015 और 2022 के लिए दावा कर रहे हों, लेकिन ऐसा कहना गलत होगा. बल्कि ये कहा जा सकता है कि नीतीश ने उन्हें डिप्टी सीएम बनवाया. सीटें भले ही RJD की ज्यादा रही हों. लेकिन नीतीश कुमार के कारण ही उनके वोट कनवर्ट हुए. RJD का मास बेस ज्यादा रहा है, लेकिन वोट नीतीश के समर्थन में आने से ही मिले. इसलिए यह कहना गलत होगा कि नीतीश को इन्होंने मुख्यमंत्री बनाया."
बहरहाल, किसने किसको मुख्यमंत्री बनाया, यह इतिहास में दर्ज है. लेकिन इस तरह के दावे, किस्से और बिहार की राजनीति की कहानियां आने वाले दिनों में खूब सुर्खियां बटोरने वाली हैं. साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव जो होने वाले हैं.
वीडियो: बिहार: मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेटे की राजनीति में एंट्री होगी? जवाब खुद उन्हीं से सुनिए