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नेपाल के चुनाव से भारत पर क्या असर पड़ेगा?

नेपाल में हुए आम चुनाव, कौन बनेगा प्रधानमंत्री?

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नेपाल में हुए आम चुनाव, कौन बनेगा प्रधानमंत्री? (सांकेतिक फोटो- इंडिया टुडे)

नेपाल, भारत के उत्तर में बसा है. लगभग 18 सौ किलोमीटर लंबी ज़मीनी सीमा भारत और नेपाल को एक-दूसरे से अलग करती है. भारत के पांच राज्य उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और सिक्किम की सीमाएं नेपाल से जुड़ी हुईं है. भारत के विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 60 लाख नेपाली नागरिक भारत में रहते या काम करते हैं. दोनों देशों का सदियों पुराना साझा इतिहास रहा है. नेपाल उन चुनिंदा देशों में से है, जहां भारत की तरह हिंदू आबादी बहुमत में है. भारत और नेपाल के आर्मी चीफ़्स को एक-दूसरे की सेना में जनरल की मानद उपाधि मिलती है. ये परंपरा 1950 से जारी है. इसके अलावा, दोनों देश संस्कृति, सुरक्षा, व्यापार, बिजली जैसे मुद्दों के लिए भी आपस में जुड़े हुए हैं.

अगर अंतरराष्ट्रीय स्थिति की बात करें तो नेपाल के तुरंत बाद चीन की सीमा शुरू हो जाती है. ये भारत के लिए बफ़र ज़ोन की तरह काम करता है. अगर चीन, नेपाल में अपनी पकड़ मज़बूत कर लेता है तो उसका सीधा असर भारत के हितों पर पड़ सकता है. इसलिए, नेपाल की राजनीति में कुछ भी छोटा-बड़ा घटता है, उसकी धमक भारत में भी सुनाई देती है.

इस लिहाज से इस बार नेपाल में हुआ आम चुनाव बेहद ख़ास है. नेपाल में 20 नवंबर को संसदीय चुनाव कराए गए. नेपाल में ईवीएम की व्यवस्था नहीं है. यहां पर बैलेट पेपर से वोट डाले जाते हैं. इसलिए, वोटों की गिनती में टाइम लगता है. अभी गिनती जारी है. कुछ सीटों के नतीजे आ चुके हैं. हालांकि, फ़ाइनल रिजल्ट आने में हफ़्ते भर का समय लग सकता है. अगले प्रधानमंत्री का नाम जाहिर होने में समय लग सकता है.

फिलहाल, हम नेपाल का पोलिटिकल सिस्टम समझ लेते हैं. उससे पहले इतिहास की बात.

नेपाल में सभ्यता का विकास छठी शताब्दी ईसापूर्व के आसपास हुआ. शुरुआती दौर में लोग काठमांडू घाटी के इर्द-गिर्द बसे हुए थे. काठमांडू आज के समय में नेपाल की राजधानी है. उसी दौर में लुम्बिनी के एक राजवंश में राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ. जब वो 29 बरस का हुआ, तब उसने पहली बार बाहर की दुनिया देखी. राजकुमार ने सड़क पर एक बुजुर्ग व्यक्ति, एक बीमार और एक शव को देखा था. उसे संसार से वैराग्य हो गया. उसने राजमहल छोड़ दिया. दर-दर भटकने के बाद उसे बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई. सारनाथ में अपने पांच शिष्यों को ज्ञान बांचा. राजकुमार सिद्धार्थ को बाद में गौतम बुद्ध के नाम से जाना गया, जिन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की. हालांकि, नेपाली शासकों ने बौद्ध धर्म की बजाय हिंदू धर्म पर ज़्यादा ज़ोर दिया. इतिहासकारों का मानना है कि इसकी एक वजह ये थी कि नेपाल की सत्ता पर उत्तर भारतीय राजाओं का लंबे समय तक नियंत्रण रहा.

नेपाल के शुरुआती शासकों में किरान्ती, लिच्छवी और मल्ला राजवंशों का नाम आता है. 1482 में राजा जयस्थिति मल्ला की मौत हो गई. उनकी मौत के बाद राजवंश उनके तीन बेटों के बीच बंट गया. काठमांडू, भक्तपुर और पाटन. इनमें आगे भी बंटवारा हुआ. जो 46 प्रांतों के रूप में सामने आया. इनमें से एक प्रांत पर गोरखा साम्राज्य का शासन था. 1768 में गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने बाकी प्रांतों को हराकर अपनी सत्ता स्थापित कर दी.

19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटेन की नज़र नेपाल पर पड़ी. लड़ाई के बाद 1816 में नेपाल और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच शांति समझौता हुआ. जिसके बाद नेपाल की सीमा निर्धारित की गई. 1846 में रंग बहादुर ने ख़ुद को नेपाल का राणा या प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. राजा की शक्तियां नाममात्र की रह गईं.
फिर आया 1923 का साल. ब्रिटेन और नेपाल के बीच एक और समझौता हुआ. इसके तहत, ब्रिटेन ने नेपाल को आज़ाद मुल्क़ के तौर पर मान्यता दे दी. 1925 में इस समझौते को लीग ऑफ़ नेशंस में दर्ज़ कर लिया गया.

फिर 1950 में राणा का तख़्तापलट हो गया. राजा त्रिभुवन की शक्ति बहाल हो गई. उन्हें राष्ट्राध्यक्ष बना दिया गया. राजा ने पोलिटिकल पार्टियों की सरकार में जगह बनाने का मौका दिया. 1959 में चुनाव कराए गए. इसमें नेपाली कांग्रेस पार्टी ने जीत दर्ज की. पार्टी के नेता बिश्वेश्वर प्रसाद कोइराला प्रधानमंत्री बने. कुछ समय बाद ही राजा महेंद्र का मन बदल गया. उन्होंने सरकार भंग कर दी. 1962 में नया संविधान बना. इसमें पूरी शक्ति राजा को दे दी गई.

ये व्यवस्था 1990 के दशक तक लागू रही. इस बीच विरोध चलता रहा. 1991 में नेपाल में पहली बार संसदीय चुनाव कराए गए. नई सरकार बनी. ये लोगों की चुनी हुई सरकार थी. राजा हेड ऑफ़ द स्टेट बने रहे. असली शक्ति उन्हीं के पास थी. पांच बरस बाद 1996 में माओवादी पार्टियों ने राजशाही और सरकार के ख़िलाफ़ सिविल वॉर छेड़ दिया. ये लड़ाई 2006 तक चली. इस बीच 2001 में पूरे राजपरिवार की हत्या हो गई. राजपरिवार में किंग ज्ञानेंद्र अकेले बचे. इसलिए, उन्हें राजा बना दिया गया. ज्ञानेंद्र कुछ समय तक तो चुनी हुई सरकार के साथ चले. फिर उन्होंने सरकार भंग कर दी. वो निरंकुश शासक बनना चाहते थे.

अप्रैल 2006 में सभी लोकतांत्रिक पार्टियों ने मिलकर राजा के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट किया. इसके कारण किंग ज्ञानेंद्र को कुर्सी छोड़नी पड़ी. उन्होंने संसद को फिर से बहाल कर दिया.
नवंबर 2006 में प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला और माओवादी नेता प्रचंड ने शांति समझौता कर लिया. वे लोकतंत्र की वापसी और नया संविधान बनाने जैसे मुद्दों पर सहमत हुए.
अप्रैल 2008 में संविधान सभा का चुनाव हुआ. मई 2008 में संविधान सभा ने राजशाही को खत्म कर दिया. नेपाल को एक संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित कर दिया गया. आज के समय में नेपाल में राष्ट्रपति देश के मुखिया, जबकि प्रधानमंत्री सरकार के मुखिया होते हैं.

नेपाल का नया संविधान 2015 में अस्तित्व में आया. तब संविधान सभा ही देश की संसद बन गई. संविधान बनने के बाद पहला आम चुनाव नवंबर 2017 में कराया गया. इसमें केपी शर्मा ओली की और प्रचंड की पार्टियों ने साथ में चुनाव लड़ा था. उन्हें बहुमत मिला. ओली प्रधानमंत्री बने. मई 2018 में उन्होंने अपनी पार्टियों को आपस में मिला लिया. इस गठजोड़ से नई पार्टी बनी, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (NCP). इसने अगले दो बरस तक सरकार चलाई. फिर पार्टी के अंदर विद्रोह हो गया. 2020 के आख़िरी महीनों में ओली संसद भंग कर चुनाव कराने की कोशिश करने लगे. उनकी कोशिश बार-बार फ़ेल हुई. उन दिनों नेपाल में एक पैटर्न चल रहा था. कैबिनेट की बैठक होती. वहां संसद भंग करने की सिफ़ारिश की जाती. 

कुछ ही मिनटों बाद उसपर राष्ट्रपति का दस्तख़त होता. फिर नए चुनाव की तारीख़ घोषित होती. इसके ख़िलाफ़ विपक्षी पार्टियां सुप्रीम कोर्ट पहुंचती. फिर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ जाता कि संसद भंग करने का फ़ैसला असंवैधानिक है. ये चक्र दिसंबर 2020 और मई 2021 में दोहराया गया. जुलाई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री बनाने का आदेश जारी किया.

तब से देउबा नेपाल के प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर रहे हैं. मौजूदा सदन का कार्यकाल दिसंबर 2022 में खत्म हो रहा है. उससे पहले अगला चुनाव कराना ज़रूरी है. इस बाबत अगस्त 2022 में चुनाव आयोग ने सरकार को 18 नवंबर को आम चुनाव कराने की सलाह दी थी. इसके बाद देउबा सरकार में शामिल पार्टियों की मीटिंग हुई. इसमें 20 नवंबर की तारीख़ पर सहमति बनी. चुनाव के ऐलान के साथ ही शेर बहादुर देउबा कार्यवाहक प्रधानमंत्री रह गए.

अब नेपाल के संसद की संरचना समझ लेते हैं.

नेपाल की संसद में दो सदन हैं.
ऊपरी सदन को नेशनल असेंबली, जबकि निचले सदन को हाउस ऑफ़ रेप्रजेंटेटिव्स के नाम से जाना जाता है.
उपरी सदन में 59 सदस्य हैं. इनमें से 56 सदस्य सात प्रांतों से चुने जाते हैं. जबकि तीन सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं. ऊपरी सदन के सदस्यों का कार्यकाल छह बरस का होता है. हर दो बरस पर एक-तिहाई सदस्य रिटायर हो जाते हैं.

आज हमारा फ़ोकस निचले सदन पर रहेगा.

नेपाल की संसद के निचले सदन में कुल 275 सदस्य होते हैं. उनका कार्यकाल पांच बरस या संसद के भंग होने तक होता है. निचले सदन में बहुमत दल का नेता नेपाल का प्रधानमंत्री बनता है. बहुमत के लिए किसी पार्टी या गठबंधन को कम से कम 138 सीटों की ज़रूरत होती है. अगर किसी पार्टी या गठबंधन को बहुमत हासिल नहीं होता है, तब राष्ट्रपति सदन की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनाते हैं. ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री के पास बहुमत साबित करने के लिए 30 दिनों का समय होता है. अगर विश्वास प्रस्ताव फ़ेल हो जाए तब राष्ट्रपति किसी ऐसे सांसद को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं, जो बहुमत साबित करने की काबिलियत रखता हो. अगर रिजल्ट आने के 55 दिनों के भीतर सरकार नहीं बनती, तब नए चुनावों की घोषणा की जाती है.

इस बार के चुनाव का क्या अपडेट है?

- अभी तक आए नतीजों के मुताबिक, मौजूदा पीएम शेर बहादुर देउबा की पार्टी नेपाली कांग्रेस ने 14 सीटें जीत ली हैं. NC 43 सीटों पर बढ़त भी बनाए हुए है.
- पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की CPN-UML को पांच सीटों पर जीत मिली है. जबकि 39 सीटों पर उनकी बढ़त है.
- माओवादी सेंटर पार्टी के पुष्प कमल दहल प्रचंड ने तीन सीटों पर जीत दर्ज़ की है. जबिक 14 सीटों पर उन्होंने बढ़त बना रखी है.

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