जीवन, मृत्यु, दंगे, लूटपाट, हत्याओं के प्रत्यक्ष अनुभव और इन घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण करने की भीष्म साहनी क्षमता ने दमितों और शोषितों की वास्तविक स्थितियों को समझने में उनकी मदद की. उनके भीतर के जमीनी और सशक्त कार्यकर्ता का मेल ही उन्हें अपनी कहानियों और उलझे हुये विषयों को भी सटीक तरीके से चित्रित करने सहायता करता है. खासकर, मनुष्य के जीवन की वास्तविक स्थितियों का चित्रण करते समय. अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक भीष्म साहनी एक ऐसी आधारशिला बने रहे जिस पर टिक कर कोई भी थोड़ी देर के लिए निश्चिंत होकर सुस्ता सकता था. उन्होने अपने रोज़मर्रा के जीवन और अपने लेखन में कभी कोई अंतर नही रखा. उन्हें आंदोलनों की भागीदारी में विश्वास था. पिछले तीन दशक में होने वाले लगभग सभी प्रमुख जन आंदोलनों चाहे वह आडवाणी की राम रथ यात्रा हो, चाहे सांप्रदायिक दंगे हों, चाहे शिक्षा का भगवाकरण हो,चाहे सफदर हाशमी की हत्या हो, बाबरी मस्जिद विध्वंस का मुद्दा हो या गुजरात दंगे हों, वे इन सब के खिलाफ चल रहे आंदोलनो में जनता के साथ रहे.
जब थिएटर के बड़े अभिनेता ने कबीर पर लिखे नाटक का मंचन किया और लेखक सहमत नहीं हुए
यही भीष्म साहनी की पहचान है कि वह कभी उलझाते नहीं और ना ही कुछ छिपाते हैं.


मेरा उनके साथ 35 साल पुराना संबंध है, जब मैंने नाट्य विद्यालय छोड़ा था. उनकी दो कहानियों- 'चीफ की दावत' और 'माता-विमाता' का दूरदर्शन के लिए निर्देशन करने के दौरान मैं उनसे पहली बार मिला था. वह एक छोटी पर यादगार मुलाक़ात थी. फिर 1980 में, दिल्ली में यह उड़ती-उड़ती खबर सुनाई दी कि भीष्म साहनी ने कबीर के जीवन पर आधारित एक नाटक लिखा है. और, यह भी सुनने में आया कि राजिंदर नाथ, जो पहले भीष्म के ही एक नाटक 'हानूष' का निर्माण-निर्देशन कर चुके हैं, अब बी.वी. कारन्त के साथ मिलकर भीष्म साहनी के इस नए नाटक का भी निर्देशन करेंगे. मैंने भीष्म जी के परिचित और अपने एक थियेटर के मित्र से बात की कि वह कहीं से मेरे लिए उस नाटक के स्क्रिप्ट की एक प्रति उपलब्ध करा दे.
उन दिनों मैं थिएटर के लिए फ्रीलांस काम करता था और उसी सिलसिले में भोपाल, उज्जैन, इंदौर, रायपुर आना-जाना लगा रहता था. अशोक वाजपेयी के साथ थिएटर से जुड़े अनुभव बहुत रचनात्मक रहे. मैंने धूमिल, देवताले, शमशेर बहादुर सिंह जैसे कवियों के पाठ पर काम किया. शाम में हमारी महफिलें जमती थीं जिसमे अशोक वाजपेयी, सत्येन कुमार, मंज़ूर एहतशाम, भगवत रावत आदि हुआ करते थे. इसी महफिल में अचानक एक दिन खयाल आया कि कबीर के जीवन से जुड़े एक नाटक का लेखन एवं निर्माण होना चाहिए. उन्हीं दिनों कुमार गंधर्व ने त्रिवेणी नामक एक ई.पी. निकाली थी जिसमें कबीर की कुछ बहुत सुंदर कविताएं थीं. जिन्हें कुमार गंधर्व ने संगीत दिया था और गाया भी था. ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’ को भला कौन भूल सकता है.
मुझ जैसे युवा निर्देशक के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी. जाने-माने लेखकों, संगीतकारों, चित्रकारों और कवियों के साथ ने मुझे समृद्ध किया और एक बौद्धिक उत्साह से भर दिया. उस समय भोपाल तात्कालीन सांस्कृतिक गतिविधियों का जरूरी केंद्र बन कर उभर रहा था.
खैर, मुझे अपने थियेटर वाले उस मित्र की वजह से भीष्म जी द्वारा हस्तलिखित नाटक की एक प्रति मिल गई. नाटक में मुझे बहुत सारी संभावनाएं नजर आयीं. लेकिन मैं यह देखकर हैरान रह गया कि नाटक में कहीं भी कबीर की कविता या उनके पद नहीं थे सिवाए उन जगहों के जहां कुछ अधिक नाटकीयता लानी थी. कबीर के जीवन पर लिखित नाटक में कबीर की कविता को न देखकर मैं भीष्म जी के इस निर्णय के पीछे के कारण जानने के लिए उत्सुक था. लेकिन उनसे उम्र में बहुत छोटा और कनिष्ठ होने के कारण उस समय मुझे अपने से वरिष्ठ लेखक से इसका कारण पूछने कि हिम्मत नही हुई.

मैंने सोचा था कि नाटक मे गीतों को ना शामिल करने को लेकर वो मुझे बहुत सारे साहित्यिक और सैद्धान्तिक कारण बताएंगे लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. यही भीष्म साहनी की पहचान है कि वह कभी उलझाते नहीं और ना ही कुछ छिपाते हैं. तभी तो राजेन्द्र यादव ने उन्हें ‘बाल बुद्ध’ कहा था. उसके बाद और मंच पर आने से पहले, मैं छह महीने तक कबीर और कबीर पर लिखी हुई हर चीज को पढ़ता रहा. एक दिन फ़िल्मकार मणि कौल, अशोक वाजपेयी और मैं इंदौर से भोपाल जा रहे थे. लौटते समय हम कुमार गंधर्व से मिलने देवास में रुके. हमने लगभग डेढ़ घंटा उनके और उनके परिवार के साथ बिताया. मैंने बहुत हिम्मत जुटा कर उनसे कहा कि क्या वे कबीर पर आधारित मेरे नाटक के लिए गाने कंपोज़ करेंगे? उन्होने कहा- ‘कर देंगे’.
मैं सातवें आसमान पर था और मैंने यह बात अपने फिल्म निर्देशक मित्र कुमार शहानी से बताई. कुमार चुप रहे, वे मेरी तरह उत्साहित नहीं हुए. एक लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने बताना शुरू किया- ‘तुम्हारे कबीर एक साधारण जुलाहा हैं, वे शास्त्रीय संगीत से सजे गीत कैसे गा सकते हैं. यह तुम्हारी सोच से बिल्कुल विपरीत हो जाएगा.’ तब मुझे लगा कि वे सच कह रहे हैं. मेरे कबीर तो लोक के कबीर हैं. इसलिए वहां शुद्ध लोक संगीत ही काम करेगा. अब मैंने एक संगीतकार की खोज शुरू की, जो तब तक चली, जब तक कि मुझे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के मेरे शिक्षक पंचानन पाठक नहीं मिल गए. पंचानन पाठक इप्टा से बहुत पहले से जुड़े हुये थे. वे लोक संगीत के क्षेत्र में अपनी असाधारण प्रतिभा के लिए पहचाने जाते थे. पाठक जी पूरी बात सुनकर बहुत उत्साहित हुए. अपने जीवन के अंतिम समय तक वे इस प्रॉडक्शन का हिस्सा तो रहे ही, मेरे गुरु और शुभचिंतक भी रहे.
अंततः मई 1982 में दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम के मुक्ताकाश में जब नाटक ओपनिंग के लिए तैयार हुआ, तो भीष्म जी नाटक की अंतिम और भव्य रिहर्सल को देखने वहां पहुंचे. अगले दिन नाटक का पहला शो था. सुबह भीष्म जी की पुत्री कल्पना का फोन आया. उन्होंने कहा- ‘आपने क्या कर दिया है?’ मैंने पूछा- ‘मैंने ऐसा क्या कर दिया?’ उन्होने जवाब दिया- ‘आपने इसे शीला भाटिया प्रॉडक्शन की तरह बनाया है.’ मैं भौंचक्क रह गया. शीला भाटिया पंजाबी लोक-नाट्यों की निर्माता-निर्देशक थीं, वह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मेरी शिक्षिका थीं. इससे पहले मैं कुछ कहता, उन्होंने यह कह कर फोन रख दिया कि ‘भीष्म जी तुम्हें फोन करेंगे.’ ऐसी स्थिति में मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मुझे नाटक के शो की ओपनिंग करनी चाहिए या नहीं!

फिर, भीष्म जी का फोन आया. उस समय मुझे फोन पर उनसे नाटक के बारे में बात करना उचित नहीं लगा. लेकिन हमने ओपनिंग वाले दिन ही मंडी हाउस स्थित साहित्य अकादमी पुस्तकालय में दोपहर में मिलना तय किया. जब हम मिले तो उनके पास सुझावों और सलाहों से भरे दो पन्ने थे. एक अच्छे विद्यार्थी की तरह मैं अपने जवाबों के साथ पूरी तरह तैयार था. हां, यहां मेरी गलती थी, मुझे कई दृश्यों को पुनर्व्यवस्थित करना चाहिए था. मैंने ‘निम्न’ जाति के रोल निभाने वाले अभिनेताओं के लिए कुछ पुरबिया संवाद लिए थे. मैं बहुत शांति और नम्रता से उनके सवालों के जवाब देता रहा और इस तरह के नाटकों के मंचन में आने वाली तकनीकी दिक्कतों के बारे में उन्हें बता कर उन्हें सहमत करता रहा. आखिरकार यह उन्हीं का नाटक था, यह उनका कार्य था. मैं उन्हें छला हुआ महसूस नहीं होने देना चाहता था. लगभग एक से डेढ़ घंटे तक उनकी असहमतियों को सुनने के बाद और मेरी बात सुनकर वो कुछ-कुछ तो सहमत हो गए थे पर मैं तब भी देख रहा था कि वे तब भी पूरी तरह सहमत नहीं थे. इन सारी बातों के बाद, आखिरकार मैंने सीधे-सीधे उनसे पूछ ही लिया– ‘क्या अब आप मुझे नाटक का शो शुरू करने की इजाज़त दे रहे है? क्योंकि इसे शुरू करने या टालने के लिए भी मेरे पास वक़्त बहुत कम है.’ भीष्म जी ने कहा- ‘नहीं...नहीं, इसे आज ही शुरू करो.’ वे मुस्कुराए और कहा- ‘दर्शकों की प्रतिक्रिया देखते हैं.’
खैर, पहला शो सफल साबित हुआ. उसके बाद 10 सालों तक लगातार हम ‘कबिरा खड़ा बजार में’ का प्रदर्शन करते रहे. सभी प्रदर्शन बहुत ही सफल रहे.
इतनी लंबी कहानी कहने के बाद मैं भारत में नाट्य-लेखन के विषय में एक बात कहना चाहूंगा. ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि वे जो कुछ भी लिखते हैं, उन सबका मंचन संभव है. लेकिन थियेटर के विज्ञान और तकनीक की संभावनाएं हैं, तो कुछ सीमाएं भी हैं. नाट्यकारों को यह मान कर चलना चाहिए. कुछ नाटककारों को छोड़कर बाकियों के पास सामान्य जानकारी का भी अभाव है. इतने करीब से थिएटर से जुड़े होने के बावजूद भीष्म साहनी की भी अपनी कुछ सीमाएं रहीं.
मैं हमेशा यह कहता रहा कि भीष्म जी मेरे नाटककार हैं, पर मैं यह भी जानता हूं कि वो अपने विषय में अपने शब्दों के माध्यम से मजबूत और रचनात्मक हैं. अपने सौम्य कथानक के माध्यम से वे बहुत महत्वपूर्ण मानवीय दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं. वे आपको अपने चरित्रों के साथ बहा ले जाते हैं और उनकी मदद से वे सामाजिक तनाव की अभिव्यक्ति देते हैं. जब आप उनके नाटक और पात्रों के साथ कथानक में पूरी गहराई से उतरते हैं तो वहां भीष्म जी के विचारों को उनकी पूरी संपूर्णता में साफ-साफ देख सकते हैं. उनके तर्क प्रगतिशील हैं, जिन्हें वे अपने सामाजिक सम्बन्धों और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों द्वारा बखूबी जी पाये. उन्होंने यथार्थवादी होकर कार्य किया. उन्होंने राजनीतिक पद भी लिए लेकिन अध्यात्मिकता की तरफ भी लौटे. सचमुच वो ‘बाल बुद्ध’ ही थे जिसने अपने विचारों की, अपनी प्रतिबद्धता की मर्यादा कायम रखी.
सभी तस्वीरें 14 अप्रैल 2015 को मंचित 'कबिरा खड़ा बजार में' की हैं. सहमत की प्रस्तुति थी. निर्देशन था एम. के. रैना का. (साभार- sahmat.org)
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