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लद्दाख की शांत वादियों में 6th शेड्यूल का 'शोर' क्यों मचा, सोनम वांगचुक की मांग कितनी जायज?

Sonam Wangchuk और Leh Ladakh के लोगों को लगता है कि पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील उनका प्रदेश अब पूरी दुनिया के बाजार के लिए खुल गया है, क्योंकि यहां आर्टिकल 370 या 35ए अब अस्तित्व में नहीं है. ऐसे में न सिर्फ उनके क्लाइमेट पर खतरा है बल्कि इससे सांस्कृतिक ताने-बाने पर भी हमले की आशंका बढ़ गई है.

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लद्दाख में अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते लोग (फोटो: इंडिया टुडे)

तकरीबन 77 प्रतिशत बौद्ध आबादी और बड़े-बड़े पहाड़ों के बीच अपनी शांत झीलों के लिए जाने जाने वाले लेह-लद्दाख (Leh Ladakh) में माहौल गर्माया हुआ है. बीते दिनों हिंसक प्रदर्शन के बाद पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक (Sonam Wangchuk) को शुक्रवार 26 सितंबर को गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत केस दर्ज किया गया.  

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सोनम वांगचुक अपनी कुछ मांगों को लेकर कई दिनों से अनशन पर बैठे थे. इसी बीच बुधवार, 24 सितंबर को अचानक प्रदर्शनकारी हिंसक हो गए. प्रशासन ने भी जवाबी कार्रवाई की और इस दौरान 4 लोगों की मौत हो गई. जो खबरें सामने आईं, उनके मुताबिक आक्रोशित प्रदर्शनकारियों ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) की गाड़ी में आग लगा दी. पत्थरबाजी, आगजनी और नारेबाजी से माहौल तनावपूर्ण हो गया. भाजपा के कार्यालय पर भी हमले की खबरें आईं. लद्दाख के उपराज्यपाल कवींद्र गुप्ता ने पूरे उपद्रव के लिए सोनम वांगचुक को दोषी बताया और इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. हिंसा के बाद लद्दाख में कर्फ्यू लगा दिया.

Sonam Wangchuk की मांगें

सोनम वांगचुक, लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस की कुल चार मांगें थीं, जिनमें से कुछ को लेकर बातचीत चल रही थी और कहा जा रहा है कि 6 अक्टूबर को इसके लिए गृह मंत्रालय के साथ एक मीटिंग भी होने वाली थी. उनकी मुख्य मांगों में हैं-

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लद्दाख के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा 

लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची (6th शेड्यूल) के तहत स्वायत्त और जनजातीय क्षेत्र का दर्जा 

लद्दाख के लिए अलग पब्लिक सर्विस कमीशन का गठन

लेह-कारगिल के लिए अलग-अलग लोकसभा सीटें   

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सोनम वांगचुक जिन्हें लद्दाख में हिंसक प्रदर्शन के बाद गिरफ्तार कर लिया गया (India Today)

5 अगस्त 2019 को आर्टिकल 370 के रिमूवल से पहले लद्दाख अविभाजित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था. लंबे समय से लद्दाख के लोग यूटी की, यानी अलग केंद्र शासित प्रदेश की मांग कर रहे थे. 5 अगस्त को केंद्र सरकार के फैसले से लद्दाख राज्य अस्तित्व में तो आया लेकिन ये भी एलान हुआ कि यहां संसदीय या विधानसभा चुनाव नहीं होंगे. बिना विधानसभा के नया प्रदेश बनने का विरोध किया गया.

दी लल्लनटॉप की लद्दाख को लेकर एक डॉक्यूमेंट्री में सोनम वांगचुक कहते हैं,

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जब वो यूटी (Union Territory) की मांग करते थे, तो उनके जेहन में जो नक्शा था, उसमें यूटी के हाथ-पैर थे. जब वह जम्मू-कश्मीर से अलग होगा तो हमें संरक्षण कहां से मिलेगा? 370 तो अब है नहीं. ऐसे में यहां तो कोई भी कुछ भी उद्योग या जमीन ले सकता है. हमें ये पता था कि भारत के संविधान में इसकी व्यवस्था है. एक 6th शेड्यूल है, जिस पर लद्दाख एकदम सही बैठता है और जिससे इसे ठीक संरक्षण मिल सकता है.

ये 6th शेड्यूल ही है, जिसका शोर घाटी में इन दिनों खूब गूंजा है. लद्दाख के लोगों को लगता है कि पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील उनका प्रदेश अब पूरी दुनिया के बाजार के लिए खुल गया है क्योंकि यहां आर्टिकल 370 या 35ए अब अस्तित्व में नहीं है. ऐसे में न सिर्फ उनके क्लाइमेट पर खतरा है, बल्कि वहां के सांस्कृतिक ताने-बाने पर भी हमले की आशंका बढ़ गई है. इस हालत में सिर्फ 6th शेड्यूल है, जो उनके प्रदेश को बचा सकता है.

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सोनम वांगचुक के नेतृत्व में लद्दाख में कई दिनों तक विरोध प्रदर्शन चला (india today)
क्या है 6th शेड्यूल?

यूपीएससी शिक्षक और शिक्षाविद विकास दिव्यकीर्ति इसी डॉक्यूमेंट्री पर इसे विस्तार से आसान भाषा में समझाते हैं. वह कहते हैं, 

जब भारत का संविधान बना तो मुख्य समस्या ये थी कि जो देश के ट्राइबल एरिया हैं, उनको भारत की मुख्य भूमि से कैसे जोड़ें? खासतौर पर पूर्वोत्तर में, जहां ट्राइबल डायवर्सिटी बहुत ज्यादा है. उनका उतना जुड़ाव भारत के लोगों के साथ न के बराबर था. फिर एक मोटा-मोटा खाका बना कि असम का जो ट्राइबल बेल्ट है, उसको एक अलग तरीके से संविधान में रखा जाए. संविधान में एक भाग-10 है. उसमें एक ही आर्टिकल आता है- 244. उसके दो पार्ट्स किए गए 244 (1) और 244 (2). इनमें से 244 (1) असम छोड़ बाकी पूरे देश में अप्लाई होता था. उसको 5वीं अनुसूची यानी 5th शेड्यूल कहते हैं.

इनमें जो 244 (2) था, उसमें केवल असम के आदिवासी इलाकों के लिए प्रावधान थे. यही 6ठी अनुसूची या 6th शेड्यूल है. बाद में जब असम का बंटवारा हो गया तो संविधान में भी 'केवल असम' को असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा लिख दिया गया. यानी इन राज्यों के जो ट्राइबल एरिया हैं, वहां 6th शेड्यूल लागू होगा. इसके तहत किया ये गया कि जो बड़े आदिवासी इलाके थे, उन्हें ट्राइबल एरिया बना दिया गया.

6ठी अनुसूची में इसी ट्राइबल एरिया का कॉन्सपेट है. इसमें क्या होता है कि राज्य का हिस्सा होते हुए भी ट्राइबल जिले में लेजिस्लेटिव, एग्जीक्यूटिव और जूडिशल (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) तीनों मामलों में कुछ शक्तियां जिले की काउंसिल के पास होंगी. इसमें काउंसिल अपने तरीके से जिला संभालेगी. हालांकि, राज्य सरकार अपने तरीके से अपना काम करती रहेगी.

दिव्यकीर्ति आगे बताते हैं कि अब लद्दाख के कुछ लोगों को लग रहा है कि जो बाहर के उद्योगपति हैं, वो यहां आएंगे तो हमें परेशान कर देंगे. फिर उन्हें ये डर भी है कि कहीं उन पर सांस्कृतिक आक्रमण न हो जाए. 

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यूपीएससी शिक्षक और शिक्षाविद विकास दिव्यकीर्ति (फोटोः India Today)

लद्दाख के लोगों का ये डर ऐसे ही नहीं है. अपेक्स बॉडी लेह से जुड़े चेरिंग दोरजे कहते हैं,

1974 से लद्दाख को टूरिज्म के लिए खोल दिया गया. शुरु-शुरु में यहां डोमेस्टिक टूरिस्ट कम आते थे. ज्यादातर विदेशी होते थे. जो ट्रेकिंग करते थे. माउंटेनियरिंग (पर्वतारोहण) करते थे. एडवेंचर टूरिज्म करते थे लेकिन फिर धीरे-धीरे डोमेस्टिक टूरिस्ट भी आने लगे.

सोनम वांगचुक ये बात आगे जोड़ते हुए कहते हैं, 

जब ‘थ्री इडियट्स’ फिल्म आई, उसके बाद ये एकदम से फट-सा गया. जहां साल 2000 तक 20 हजार लोग यहां आते थे, वो 6 लाख तक पहुंच गए हैं. ये 6 लाख सिर्फ 5 महीने में आए हैं. वो भी सिर्फ 5-6 किमी स्क्वायर के शहर लेह में.

Leh Ladakh में अब ये परेशानियां भी शुरू हो गईं!

‘डाउन टू अर्थ’ के एक आर्टिकल में वन्यजीव वैज्ञानिक त्सेवांग नामग्याल बताते हैं कि बड़े पैमाने पर टूरिज्म लद्दाख के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) पर भारी दबाव डाल रहा है. लद्दाखी आबादी पहले ही अपनी प्राकृतिक वहन क्षमता से ज्यादा हो चुकी है. इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली फसलें इसकी केवल एक-तिहाई आबादी का ही पेट भर पा रही हैं.

वह आगे कहते हैं, 

लद्दाख का इलाका बहुत बड़ा है लेकिन यहां न तो उद्योग लगाए जा सकते हैं और न ही पड़ोसी देशों को जमीन गंवाई जा सकती है. यहां की पहाड़ियों और घाटियों में जंगली भेड़ यानी भरल और यूरियल, जंगली याक और हिरण (चिरु और तिब्बती गजेल) रहते हैं. इन जानवरों को जिंदा रहने के लिए बहुत बड़ी जमीन चाहिए, क्योंकि उन्हें यहां के कठिन हालात में पर्याप्त खाना और संसाधन जुटाने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है. यही हाल पश्मीना यानी चांगथांगी बकरियों का भी है.

त्सेवांग के मुताबिक, क्लाइमेट चेंज का खतरा बस इतना ही नहीं है. सर्दियों में लद्दाख का रुख करने वाले व्हाइट विंग्ड रेडस्टार्ट जैसे परिंदों की संख्या भी यहां घटती जा रही है. ये पक्षी कम हो गए तो गर्मियों में कीट-पतंगों की संख्या अचानक बढ़ने लगी और इसका असर खेतों और सब्जियों की पैदावार पर पड़ने लगा. इन पक्षियों की संख्या घटने की एक बड़ी वजह है लद्दाख में बढ़ती आवारा कुत्तों की आबादी. ये कुत्ते फौजी कैंप, सैलानी कैंप और मजदूरों के डेरों पर बचे-खुचे खाने पर जीते हैं और इनकी संख्या बढ़ती जा रही है. 

वह आगे बताते हैं कि गिद्ध और चफ जैसे पक्षियों की संख्या भी बहुत तेजी से घट रही है. ये पक्षी ऐसे मुर्दा जानवरों के मांस पर जीते हैं, जिनका मांस इंसान नहीं खाते.

त्सेवांग का कहना है कि इन सबको देखते हुए लगता है कि लद्दाख को छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा दी जानी चाहिए. वरना रंग-बिरंगे पहाड़ों, हरी-भरी घाटियों, झीलों और नीले आसमान वाली यह धरती अपना असली रूप खोकर बस एक परछाईं बनकर रह जाएगी.

लद्दाख के प्रदर्शनकारियों की एक और मांग है कि लेह और लद्दाख से सांसद चुने जाएं. वह लेजिस्लेचर वाली यूटी चाहते थे. उनका कहना ये भी है कि यहां जन प्रतिनिधियों की ताकत कम है और ब्यूरोक्रेट्स शासन व्यवस्था पर हावी हैं. ये वो लोग हैं जो अमूमन लद्दाख के नहीं होते. बाहर से आते हैं.

सोनम कहते हैं कि LADC (लद्दाख ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल) के पास ऐसे कोई अधिकार नहीं हैं, जिसमें कि उपराज्यपाल हस्तक्षेप न कर पाएं. उसे बदल न पाएं. लद्दाख की हिल काउंसिल के पास जमीन का पूरा हक था, लेकिन अब इसमें भी बदलाव किया जा रहा है. वह आगे कहते हैं, 

आप सोचिए किसी स्टेट के लिए 10 दिन या 2 महीने गवर्नर रूल लगे तो बड़ी बात होती है. लद्दाख तो पर्मानेंट गवर्नर रूल में है. 

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लद्दाख के उपराज्यपाल कवींद्र गुप्ता ने हिंसक विरोध की जिम्मेदारी वांगचुक पर डाली है (India Today) 
LADC क्या है?

विकास दिव्यकीर्ति बताते हैं कि लद्दाख का ये दुख पुराना है कि जम्मू-कश्मीर के बाकी रीजन के मुकाबले उनके साथ अन्याय होता है. उनकी बहुत पहले से ही डिमांड थी कि उन्हें यूटी बनाया जाए. इस डिमांड को देखते हुए 1995 के आसपास एक प्रॉविजन हुआ. ‘लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल बनाई गई.’ लेह और कारगिल जिलों की अलग-अलग काउंसिल बनीं. इसमें 30-30 मेंबर्स होते हैं. 26 चुने गए और 4 राज्य सरकार की तरफ से होते हैं. काउंसिल का काम होता है, अपने इलाके के विकास की नीतियों को तय करना.

6th शेड्यूल के रास्ते में क्या पेच है?

विकास दिव्यकीर्ति के मुताबिक, ये सही है कि लद्दाख में तकरीबन 97 फीसदी आबादी जनजातीय है. लेकिन ये भी सही है कि वहां की सारी जनजातियां या तो बौद्ध हैं या मुसलमान. वो मुख्य धारा से उतनी ज्यादा कटी नहीं हैं. देश में कुल 10 जिले 6th शेड्यूल में आते हैं. इनको इस अनुसूची से ताकत मिली है. एक त्रिपुरा में है और बाकी राज्यों में तीन-तीन हैं. उनमें और लद्दाख में अंतर ये है कि 6th शेड्यूल वाले आदिवासी बाहरी दुनिया के लोगों से दूर रहना चाहते हैं. उनसे जुड़ाव नहीं चाहते, लेकिन लद्दाख टूरिस्ट डेस्टिनेशन है. इस पर यहां की इकोनॉमी टिकी है. तो यहां की जनजातियां बाकी समाज से दूर हैं, ऐसा नहीं कह सकते. ऐसे में असम के ट्राइबल बेल्ट जैसी डिमांड इनकी नहीं हो सकती.

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लद्दाख में हिंसक विरोध के बाद कर्फ्यू का एलान कर दिया गया था (india today)

सोनम वांगचुक का तर्क है कि 6ठी अनुसूची में शामिल होने के लिए 50 फीसदी जनजातीय आबादी चाहिए और लद्दाख में यह आबादी 95 फीसदी से ज्यादा है. उनका कहना है कि यूटी बनने के बाद कानून मंत्रालय, गृह मंत्रालय और जनजातीय मंत्रालय ने भी लद्दाख को 6th शेड्यूल में शामिल करने की सिफारिश की थी, लेकिन इसे अब तक शामिल नहीं किया गया.

Ladakh के लोगों की मांगों पर सरकार क्या कर रही?

गृह मंत्रालय की ओर से मिली जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार लद्दाख को 6ठी अनुसूची में शामिल करने और पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर लेह और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस के साथ बातचीत कर रही है. इसे लेकर कई बैठकें हुई हैं और आने वाले दिनों में भी बैठकें होंगी. इसके अलावा, जिन बातों पर सरकार की मंजूरी मिल गई है, उनमें लद्दाख की अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण को 45% से बढ़ाकर 84% किया जाना, परिषदों में एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षण और भोटी-पुर्गी को आधिकारिक भाषा घोषित किया जाना शामिल है. 

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