बिहार (Bihar) के सासाराम (Sasaram) से महागठबंधन ने वोटर अधिकार यात्रा (Voter adhikar yatra) की शुरुआत की. इस दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi), मल्लिकार्जुन खरगे (Mallikarjun Kharge), तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) समेत महागठबंधन के तमाम नेता मौजूद रहे. लेकिन मजमां लूटा लालू यादव (Lalu Yadav) ने. उन्होंने अपने ठेठ गवईं अंदाज में बीजेपी को निशाने पर लिया. वोट चोरी का आरोप लगाते हुए उन्होंने एक भोजपुरी गीत की कुछ लाइनें दोहराईं, ‘लागल-लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकत्ता निकरि गए.’
कहानी 'झुलनी के धक्के' की जिससे लालू यादव अपने विरोधियों को धकियाते हैं!
Bihar के Sasaram में Lalu Yadav ने भोजपुरी गीत 'लागल लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकत्ता निकरि गए' की शुरुआती लाइनें दोहरायीं. हालांकि, उनका मकसद राजनीतिक था लेकिन इस गाने के पीछे प्रवासी बिहारी समाज की दर्द और पीड़ा छिपी है.
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इसका मतलब था कि वो अपने विरोधियों को ऐसा धक्का देंगे कि वो चुनावी रण में बहुत पीछे छूट जाएंगे. लालू यादव मुख्तलिफ मंचों से ये लाइन दोहराते रहते हैं. लेकिन इसका अर्थ बस इतना भर नहीं है. आखिर भोजपुरी लोक में इस गीत का संदर्भ क्या है? और कैसे इसमें बिहार के प्रवासी समाज की गहरी पीड़ा छिपी है? इसको समझते हैं.
इस गीत के अर्थ की बढ़ने से पहले इसके प्रयोग की राजनीति समझते हैं. यात्रा सासाराम में थी, जोकि भोजपुरी बेल्ट है. खुद लालू यादव गोपालगंज से आते हैं. उनकी मातृभाषा भोजपुरी है. और वो भोजपुरी लोकगीतों के रसिक हैं. और इससे बढ़कर लोगों से कनेक्ट करने के लिए वो अक्सर लोक की भाषा, उनके किस्से और मुहावरों का इस्तेमाल करते हैं. उनके भाषण में सोरठी बृजभार और लोरिकायन जैसे लोक में प्रचलित कहानियों का भी जिक्र होता है, जिससे वोटर इमोशन के धरातल पर उनके सीधे जुड़ सके.
अब इसको सासाराम के सामाजिक समीकरण से भी समझते हैं. यहां पिछड़ी, दलित और मुसलमान आबादी की बहुलता है. लोकसभा में महागठबंधन ने इस इलाके से क्लीन स्वीप किया था. ऐसे में लालू यादव ने अपने समर्थकों में जोश भरने के लिए इस लोकगीत का इस्तेमाल किया. उनका संदेश राज्य की बहुजन आबादी के लिए था, इस बार NDA को ऐसा धक्का देना है कि वो राज्य की सत्ता से बाहर हो जाए.
झुलनी के धक्के का क्या अर्थ है?‘लागल-लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकत्ता निकरि गए.’ ये एक मशहूर भोजपुरी लोकगीत है. भोजपुरी या फिर किसी भी भाषा के लोक में कुछ रचनाएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती हैं. जोकि आमतौर पर वाचिक परंपरा का हिस्सा होती हैं. कई बार इनके रचनाकार का नाम नहीं पता होता. लेकिन लोक से इनको खूब प्यार और स्वीकार्यता मिलती है. ये एक ऐसी ही रचना है.
यह गीत बिहार और पूर्वांचल के उस दौर की कहानी बयां करता है, जब लाखों लोग रोजगार की तलाश में कलकत्ता (अब कोलकाता) की ओर जाते थे. यहां झुलनी के धक्के को एक 'मेटाफर' की तरह इस्तेमाल किया गया है. दरअसल शादी होने के बाद जब पति बेरोजगार होता है. उनके पास कोई काम धंधा या आय का स्रोत नहीं होता तो कई बार पत्नी प्यार से. या फिर कई बार उलाहने के अंदाज में इसकी शिकायत करती.
अब गृहस्थी का पहिया खींचने के लिए कुछ तो करना होगा. अपने देश में रोजगार नहीं था. इसलिए मजबूरी में पति को कलकत्ता जैसे महानगरों का रुख करना पड़ता. यानी पत्नी के ताने (झुलनी के धक्के) ने पति को कमाने और जिम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर कर दिया. पुरबियों का लोकवृत वाया देस परदेश किताब में धनंजय सिंह लिखते हैं,
औपनिवेशिक काल में भोजपुरी क्षेत्र की एक बड़ी आबादी बिहार और उत्तर प्रदेश राज्य से अपने आजीविका की तलाश में कलकत्ता जैसे महानगरों या फिर आसाम और बर्मा (म्यांमार) की तरफ जाती रही. इसमें अधिकतर किसान और मजदूर वर्ग के लोग होते थे.

ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में बिहार और उत्तर प्रदेश (खासकर पूर्वांचल) के लोग नौकरी या मजदूरी के लिए कोलकाता जाते थे. यहां ढेर सारे कल कारखाने थे. यहां टेक्सटाइल और जूट बेस्ड फैक्ट्रियां थीं. इसके अलावा कई लोग यहां आकर खटाल (दूध का बिजनेस) भी खोलते थे. कोलकता साल 1911 तक देश की राजधानी भी था. मजदूर वर्ग के लोग यहां घरों और ऑफिसों में मजदूरी जैसे काम भी करते थे. वरिष्ठ पत्रकार और भोजपुरी गीतों के अध्येता निराला बिदेसिया बताते हैं,
पलायन से समृद्ध हुई भोजपुरी लोकगीत परंपरासबसे ज्यादा पलायन कंपनी राज में हुआ. जो उद्योग लगे उसी समय लगे. पलायन को डेमोग्राफी के हिसाब से देखेंगे तो सबसे ज्यादा भोजपुर के इलाके से हुआ. सिर्फ इस गीत की बात नहीं इससे पहले रसूल मियां के गीत, त्रिलोकी नाथ उपाध्याय, भिखारी ठाकुर और महेंदर मिसिर के गीतों में पलायन के केंद्र या तो पूरब वतन, पूरब देश, पूरबी बनिजिया या फिर कलकत्ता और बंगाल है. ये ही शब्द गानों में बार-बार आते हैं. क्योंकि लोग पलायन करके वहीं जा रहे थे.
भोजपुरी लोकगीतों की एक बहुत समृद्ध परंपरा है, जिसके केंद्र में पूरब देश या फिर कलकत्ता की ओर पलायन है. इस पलायन ने भोजपुरी गीतों की दुनिया को समृद्ध किया है. और उनके सौंदर्य को बढ़ाया है. अगर पलायन और पलायन की पीड़ा से उपजे गीतों को हटा दें तो भोजपुरी लोकगीतों की विरासत का एक बहुत बड़ा हिस्सा निकल जाएगा. निराला बिदेसिया बताते हैं
भिखारी ठाकुर की बिदेसिया के केंद्र में कोलकाताइस पलायन की पीड़ा ने ही भोजपुरी के तीन सबसे बड़े कलाकर दिए. रसूल मियां, भिखारी ठाकुर और महेंदर मिसिर. इनकी रचनाधर्मिता की भाव भूमि में कलकत्ता और बंगाल की अहम भूमिका रही है.
भिखारी ठाकुर की कालजयी रचना ‘बिदेसिया’ का नायक बेहतर जीवन की तलाश में कोलकाता जाता है. बिदेसिया नाटक का नायक ‘बिदेसी’ अपनी पत्नी ‘प्यारी सुंदरी’ को घर लाता है. और आनन फानन में पैसे कमाने कोलकाता जाने की ठान लेता है. प्यारी सुंदरी मना करती है. जिसके बाद वो चुपके चुपके कोलकाता चला जाता है.
इसके बाद प्यारी सुंदरी वियोग और पीड़ा में तड़पती है. और गाती है, पिया गइले कलकत्ता रे सजनी. तूरि दिहलन पति-पत्नी नातावा ए सजनी. किरनि भीतरे परातवा ए सजनी. गोड़वा में जूता नइखे सिरवा पे छतवा ए सजनी, कैसे चलहीं रहतवां ए सजनी.
भिखारी ठाकुर की एक और रचना गबरघिचोर में भी नायिका का पति कमाने के लिए किसी महानगर में जाता है, जोकि संभवत: कोलकाता या बंगाल ही रहा होगा. भिखारी ठाकुर खुद भी बंगाल में रहे थे. यह अनुभव उनके नाटकों में भी झलकता है.

महेंद्र मिसिर भोजपुरी के विलक्षण कवि और रचनाकार है. उनको स्त्री मन का चितेरा कहा जाता है. पलायन और विरह के दर्द को जैसा स्वर उनके यहां मिला है, कहीं और दुर्लभ है. उनको पुरबिया सम्राट के नाम से जाना जाता है. पूर्वी भोजपुरी गीतों की एक विधा है, जिसका मूल स्वर विरह है. और इसके केंद्र में पूरब (कोलकता, बर्मा, आसाम) में होने वाला पलायन है. महेंद्र मिसिर ने पूरबी को एक अलग ऊंचाई और पहचान दी है. उनके कुछ गानों पर नजर डाल लेते हैं. उनका एक बड़ा मशहूर गाना है, जिसे शारदा सिन्हा ने भी गया है. ‘पनिया के जहाज से पलटनिया बनी आइहा पिया, लेले आइहा हो एगो सेनुरा बंगाल से.’
महेंद्र मिसिर का एक और बड़ा मशहूर गाना है, जिसमें स्त्री मन की विरह, वेदना और पीड़ा झलकती है. आधी आधी रतिया के कुहुके कोयलिया से बैरनिया भइली ना, मोरा अंखिया के रे निनिया से बैरनिया भइली ना. पिया कलकत्तिया घरे भेजे नहीं पतिया से सवतिया भइली ना. कुहु-कुहु कुहुके कोयलिया से सवतिया भइले ना. द्विज महेन्दर इहो गोवेले पुरूविया से सवतिया कइले ना.
इसके अलावा अलग-अलग जातियों के लोकगीतों में भी पूरब का जिक्र आता है. गोड़ऊ नाच, अहिरऊ, कहरऊ, धोबियऊ, आल्हा, लोरिकायन, जतसारी, पूर्वी बारहमासा, नेटुआ नाच आदि में पलायन के रेफरेंस के तौर पर पूरब देश (कोलकाता, बंगाल आदि) आते हैं. संगीत अध्येता, गीतकार और फिल्म पटकथा लेखक अतुल कुमार राय बताते हैं,
अब भी ‘कोलकाता’ भोजपुरी गीतों में पलायन का प्रतीकपूर्वांचल में एक जाति है. गोंड़. ये अनुसूचित जाति समूह में आते हैं. इस जाति का एक मशहूर नाच है. गोड़ऊ नाच. इसमें नाच के साथ गाना भी गाया जाता है. इनका एक बड़ा मशहूर गीत है. गवना करवाला ए पिया घरे बईठवला. अपने बसे ला पिया हो पूरबी बनिजिया
साल 1980 के बाद से कोलकता औद्योगिक शहर के रूप में अपनी पहचान खोता गया. और अब अब इसका केंद्र बदलकर दिल्ली, पंजाब, सूरत, अहमदाबाद और मुंबई जैसे शहर हो गए हैं. भोजपुरी गीतों में भी इसका असर दिखता है. खेसारी लाल ने अरब कमाने जाने को लेकर भी गाने गाए हैं. लेकिन भोजपुरी लोकगीतों में भी कोलकता और बंगाल अब भी पलायन के प्रतीक बने हुए हैं. मौजूदा दौर में भी कई गायकों ने बंगाल और कोलकाता केंद्र में रखकर गाने गाए हैं. हालांकि इसमें स्त्री मन की पीड़ा से ज्यादा स्त्री देह को ऑब्जेक्टिफाई करने पर जोर होता है. कुछ गानों के बोल देख लीजिए. ‘लईह बंगलिया से दवईया ए बालम’, ‘जनी जा कमाए कलकतिया पिया मार ली सवतिया मतिया पिया’, ‘कलकतवा के लइकी काला जादू जानेली स.’
निराला बिदेसिया बताते हैं कि पहले इक्का दुक्का गीतों में बंगाली स्त्रियों के जादू टोने की बात आती थी. बिदेसिया में नायक जब अपनी पत्नी से कहता है, ‘प्यारी देस तनी देखे द हमके.’ जवाब में उसकी पत्नी प्यारी सुंदरी कहती है, ‘पूरूब देस में टोना बेस बा, पानी बड़ी कमजोर.’ इसमें नायिका उस प्रचलित कथा का जिक्र कर रही है, जिसमें बंगाल में जादू-टोना का जिक्र है. यहां बीच में किसी लड़की को नहीं लाया जा रहा है. लेकिन अब जो गीत देखेंगे उनमें बंगालिन लड़कियां आ गई हैं. और उनको एक आइटम के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है.
पलायन आज भी भोजपुरी समाज की सबसे बड़ी नियति है. हालांकि कोलकाता जाने वाले सबके हिस्से निराशा ही नहीं आया. कई लोग आर्थिक तौर पर समृद्ध भी हुए. वहीं पलायन की इस यात्रा ने भोजपुरी लोकसंगीत और संस्कृति को भी समृद्ध किया है. भोजपुरी समाज के पलायन के केंद्र अब बदल गए हैं. लेकिन कोलकाता भोजपुरी समाज के लिए एक आर्थिक ठौर भर नहीं है. इससे भोजपुरिया लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं. शायद इसलिए भोजपुरी लोकगीत और इसमें रचे पगे लोग कोलकाता को अब भी बिसार नहीं पाए हैं.
बिहार में चुनाव नज़दीक है तो पलायन पर बात उठ ही रही है. प्रशांत किशोर लगातार बिहार से पलायन का मुद्दा उठा रहे हैं. और चिराग भी बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट के जरिए रोजगार के सवाल पर मुखर हैं, इस बीच लालू यादव ने भी NDA गठबंधन पर निशाना साधने के लिए जो रूपक चुना वो पलायन की पीड़ा से ही उपजा है.
वीडियो: भिखारी ठाकुर की टीम में रहे रामचंद्र मांझी का लौंडा नाच देखिए