मुद्दा- कुलभूषण जाधव मुद्दई- भारत मुद्दाह- पाकिस्तान अदालत- इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ)खावर कुरैशी. ये जनाब ICJ में लड़े गए कुलभूषण जाधव केस में पाकिस्तान के वकील थे. ये केस लड़ने के लिए उन्होंने पाकिस्तान से फीस ली- 20 करोड़ पाकिस्तानी रुपये. अप्रैल 2018 में पाकिस्तान की वेबसाइट 'द न्यूज़.कॉम' में छपी एक ख़बर में कुरैशी की फीस का ज़िक्र मिला. अभी के भारतीय रुपयों में ये रकम होगी करीब आठ करोड़ रुपये. वेबसाइट ने लिखा है कि पाकिस्तान के बजट डॉक्यूमेंट में इस रकम का ज़िक्र था. कि ICJ में पाकिस्तान की तरफ से जाधव का केस लड़ने के लिए 20 करोड़ रुपया कुरैशी के नाम से जारी किया गया.
इन्हीं कुरैशी ने इंटरनैशनल अरबिट्रेशन में भारत के लिए एक केस लड़ा था. उस मामले में भारत को सेटलमेंट के रास्ते मामला सलटाना पड़ा था.
खावर कुरैशी: ब्रीफ में थोड़ा जान लीजिए कुरैशी ब्रिटेन में रहते हैं. कैम्ब्रिज से लॉ की पढ़ाई की है. वहां कमर्शियल लॉ पढ़ाया भी है. वो ब्रिटेन में क्वीन्स काउंसिल (QC) का हिस्सा हैं. QC ऐसा वकील होता है, जिसे कानूनी मामलों में ब्रिटेन की रानी को सलाह देने के लिए नियुक्त किया जाता है. इन वकीलों के लिए नाम चलता है- सिल्क. सिल्क वाला टर्म ऐसे आया कि ये चुनिंदा वकील सिल्क से बने गाउन पहना करते थे. एक खास डिज़ाइन के.
जाधव की फांसी पर रोक लगाई जाए. उन्हें भारतीय हाई कमीशन के अधिकारियों से मिलने की इजाज़त मिले. जाधव का केस मिलिटरी कोर्ट में नहीं, सिविलियन कोर्ट में चले. भारत को केस में अपने वकील भेजकर जाधव की तरफ से दलील देने का अधिकार मिले.

कुलभूषण जाधव के केस की सुनवाई के दौरान इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ)के जजों का पैनल (फोटो: रॉयटर्स)
साल्वे ने इस केस के लिए कितनी फीस ली? भारत की तरफ से ये केस लड़ रहे थे मशहूर वकील हरीश साल्वे. मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में ही साल्वे को ये केस सौंपा गया था. उस समय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद को बताया था. कि जाधव के केस के लिए साल्वे ने अपनी फीस के तौर पर सरकार से बस एक रुपया लिया. साल्वे की फीस वैसे बहुत ज्यादा है.
खावर कुरैशी ने भारत के लिए कौन सा केस लड़ा? खावर कुरैशी पहले एक केस भारत के लिए भी लड़ चुके हैं. इसकी कहानी का रेफरेंस पॉइंट 1992 से शुरू होता है. देश में नरसिम्हा राव की सरकार थी. भारत में बिजली की कमी दूर करने के लिए ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश करने वाले तलाश किए जा रहे थे. इसी सिलसिले में अमेरिका की एक एनर्जी कंपनी 'एनरोन कॉरपोरेशन' को चुना गया. एनरोन ने महाराष्ट्र के रत्नागिरी में दाभोल नाम का पावर प्लांट लगाने का ऐलान किया. ये तकरीबन तीन बिलियन डॉलर का प्रॉजेक्ट था. ये उस समय शायद भारत में सबसे बड़ा सिंगल विदेशी निवेश था. इस प्रॉजेक्ट के तहत दो चरणों में काम होना था. पहले चरण में एक 740 मेगावॉट का प्लांट बनना था. यहां नफ़्ता से बिजली बनती. नफ़्ता एक ज्वलनशील तेल होता है. दूसरे फेज़ में 1700 मेगावॉट क्षमता वाला पावर प्लांट बनना था, जहां गैस से बिजली बनाई जाती.

इस प्रॉजेक्ट का स्थानीय लोगों ने काफी विरोध किया, मगर लोगों द्वारा उठाई गई आपत्तियों पर ध्यान नहीं दिया गया (फोटो: इंडिया टुडे)
दाभोल पावर प्लांट इस पावर प्लांट को चलाने के लिए 'दाभोल पावर कंपनी' बनाई गई. इस जॉइंट वेंचर में महाराष्ट्र पावर डिवेलपमेंट कॉर्पोरेशन और एनरोन के अलावा दो और अमेरिकी कंपनियां भी थीं- जनरल इलेक्ट्रिक और बेकटल. भारत में सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी ने भी इस प्रॉजेक्ट को हरी झंडी दे दी. 1993 में एनरोन और महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (MSEB) के बीच एक पावर परचेज़ अग्रीमेंट (PPA) पर करार भी हो गया. महाराष्ट्र में तब कांग्रेस की सरकार थी और शरद पवार मुख्यमंत्री थे. वो बहुत सपोर्ट कर रहे थे इस प्रॉजेक्ट को.
प्रॉजेक्ट पर सवाल उठते रहे, भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे मगर फिर इस पूरी परियोजना पर सवाल उठने लगे. इल्ज़ाम लगा कि एनरोन ने इस डील के लिए कई नेताओं, नौकरशाहों को पैसा खिलाया है. इस प्रॉजेक्ट की व्यावहारिकता पर भी सवाल उठे. कई जानकारों का कहना था कि ये बहुत महंगा पड़ेगा. कामयाब नहीं हो सकेगा. कि ये किसी भी लिहाज से भारत को मदद नहीं करने वाला. बल्कि गले की घंटी बन जाएगा. शिवसेना तब महाराष्ट्र के अंदर विपक्ष में थी. उसने खूब हो-हल्ला मचाया. बाला साहब ठाकरे ने कहा कि अगर वो सत्ता में आते हैं, तो एनरोन के इस प्रॉजेक्ट को उठाकर अरब सागर में फेंक देंगे. 1995 के विधानसभा में शिव सेना-बीजेपी गठबंधन जीत भी गया. मगर ठाकरे ने प्रॉजेक्ट खत्म नहीं किया. एनरोन ने ठाकरे को मना लिया.

ये प्रॉजेक्ट जब पाइपलाइन में था, तब भी कई जानकारों ने इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठाया था. उनका कहना था कि ये फिज़िबल साबित नहीं होगा. ऐसा ही हुआ भी. ये PPA के सबसे विवादित, सबसे नाकामयाब अनुभवों में से एक साबित हुआ (फोटो: इंडिया टुडे)
महंगी बिजली खरीदकर ग्राहकों को सस्ते में बेच रहा था बिजली बोर्ड सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन (CITU) कोर्ट में भी गया. बॉम्बे हाई कोर्ट ने तो PPA के पक्ष में फैसला दिया. फिर CITU ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. इतने सालों तक इस केस में कुछ खास हो नहीं पाया. अभी अप्रैल 2019 में आकर SC ने महाराष्ट्र सरकार की याचिका मंजूर करते हुए कथित भ्रष्टाचार से जुड़े मामले बंद कर दिए. खैर, तो साल 2000 में आकर मालूम चला कि MSEB करीब 4.67 रुपये की कीमत पर इस पावर प्लांट से बिजली खरीद रही है. और ग्राहकों को 1.89 रुपया प्रति यूनिट के हिसाब से बिजली बेच रहा था. MSEB को ये बहुत महंगा पड़ रहा था. उसने फैसला किया कि वो प्लांट से बिजली नहीं खरीदेगा.
एनरोन ने भारत पर केस कर दिया इस डील में एनरोन के अलावा दो और स्टेक होल्डर थे- जनरल इलेक्ट्रिक और बेकटल. ये दोनों मेन सप्लायर्स थे. प्लांट के कंस्ट्रक्शन का जिम्मा भी इनका ही था. इन्होंने पैसा निवेश किया था. भारत ने जब प्रॉजेक्ट से हाथ खींच लिया, तो इनका पैसा भी रुक गया. ये दोनों कंपनियां 2004 की शुरुआत में भारत सरकार के खिलाफ इंटरनैशनल अरबिट्रेशन पहुंची. उन्होंने सरकार पर पच्चीस हज़ार करोड़ रुपये का दावा ठोक दिया. तब केंद्र में वाजपेयी सरकार थी. उसने इस केस को लीड करने की जिम्मेदारी सौंपी हरीश साल्वे को. साल्वे सॉलिसिटर जनरल रह चुके थे भारत के. नवंबर 1999 से नवंबर 2002 तक.

मई 2006 में फेडरल कोर्ट ने एनरोन के फाउंडर केन ले और पूर्व CEO जेफ स्किलिंग को साज़िश और फ्रॉड का दोषी माना. ले की तो हार्ट अटैक से मौत हो गई, स्किलिंग ने 12 साल जेल की सज़ा काटी (फोटो: रॉयटर्स)
साल्वे को हटाकर कुरैशी को दे दिया गया केस फिर 2004 में सरकार बदल गई. UPA सत्ता में आ गई. सरकार ने एनरॉन के साथ इस केस का जिम्मा फॉक्स ऐंड मंडल लॉ फर्म को सौंपने का फैसला किया. ये भारत की सबसे पुरानी लॉ फर्म है. पहले ऐसी बात थी कि ये लॉ फर्म साल्वे को ही जारी रखेगी. ऐसी भी ख़बरें आईं कि साल्वे ने इस केस के लिए अपनी फीस थोड़ी कम कर दी है. कि वो एक तारीख़ के लिए एक लाख रुपया ही लेंगे. मगर फिर एकाएक फॉक्स ऐंड मंडल लॉ फर्म ने इस केस के लिए खावर कुरैशी को ले लिया. फिर भारत को लगा कि केस लंबा चला तो उसे खुद को बहुत नुकसान होगा. ऊपर से केस हारने का खतरा तो था ही. फिर भारत ने सेटलमेंट का रास्ता देखा. भारत को ये मामला सलटाने के लिए खासी बड़ी रकम चुकानी पड़ी. सरकार ने GE और बेकटेल के स्टेक खरीदे. करीब 305 मिलियन डॉलर देकर.
पाकिस्तान के अखबार Dawn ने टाइम्स ऑफ इंडिया के हवाले से एक ख़बर दी.
इसके मुताबिक, साल्वे ने बताया कि उन्हें कुरैशी को केस दिए जाने की बात मीडिया रिपोर्ट्स से मालूम चली थी. उनको पता चला था कि कुरैशी केस लीड करेंगे और साल्वे उनके डेप्युटी होंगे. इसके बाद साल्वे ने ख़ुद को इस केस से अलग कर लिया. इस केस के लिए भारत सरकार ने कुरैशी को ठीक-ठीक कितनी रकम दी, ये तो नहीं पता. मगर ये राशि करोड़ों में थी, ये तय है. साल्वे से लेकर कुरैशी को केस दिए जाने की कुछ जगहों पर आलोचना भी हुई. ऐसे भी सवाल उठे कि क्या केंद्र की सत्ता बदलने की वजह से साल्वे को रिप्लेस किया गया? इन सवालों के ठीक-ठीक जवाब तो नहीं हैं हमारे पास. मगर हां, इतना ज़रूर है कि कुलभूषण जाधव वाले केस में ये ही दोनों वकील आमने-सामने थे. और साल्वे ने यहां काफी अच्छा परफॉर्म किया है भारत के लिए.
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