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कश्मीर में 75 साल बाद कुंभ हो रहा है, पर भगवा चोले वाले साधु नहीं दिखते

बीजेपी के कैंप लगे हैं और लोग ‘कश्मीर को दोबारा जीते जाने’ जैसा माहौल बता रहे हैं, पढ़ें कश्मीर डायरी.

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सारी फोटोज- प्रदीपिका सारस्वत
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प्रदीपिका सारस्वत फ्रीलांस राइटर हैं. मीडिया की नौकरी छोड़ इन दिनों कश्मीर में डेरा जमाए हुई हैं. ‘दी लल्लनटॉप’ के लिए वह कश्मीर के कनफ्लिक्ट पर सीरीज लिख रही हैं. ये उसकी पांचवी किस्त है. आपने खबरें पढ़ी होंगी, कश्मीर में 75 साल बाद कुंभ का आयोजन हो रहा है. प्रदीपिका भी कुंभ में जा पहुंचीं. गईं तो क्या पाया पढ़िए.


प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में तो महाकुंभ होने के बारे में बचपन से सुनती आई हूं. पिछली बार प्रयाग जाने का मौका भी मिला था, कश्मीर आकर कुंभ देखने का मौका मिलेगा, ये मैंने नहीं सोचा था. पिछले कुछ दिनों में द हिंदू, टाइम्स और एक दो लोकल अखबारों में 14 जून को होने वाले कुंभ की खबर पढ़ने को मिली थी. कहा जा रहा था कि ये कुंभ 75 साल बाद हो रहा था, वितस्ता (झेलम) और सिंधु नदी के संगम पर.
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फोटोः प्रदीपिका सारस्वत

आज सुबह श्रीनगर से गांदरबल के लिए निकली. गांदरबल के शादीपोरा में ही मिलती हैं झेलम और सिंधु. रास्ते में तीन गाड़ियां बदलीं पर कहीं किसी भी कोपैसेंजर को नहीं पता था कि कुंभ किस चिड़िया का नाम है. खैर थोड़ा फालतू रास्ता तय करके जब मैं शादीपोरा ब्रिज पहुंची तो देखा कि नीचे वाकई दो नदियां मिल रही थीं. दोनों के मिलने के स्थान पर एक बेहद छोटा सा द्वीप यानि आइलैंड था. और उस आइलैंड पर खड़े चिनार के नीचे बने ईंट-गारे के घेरे में स्थापित है प्राचीन शिवलिंग. वहीं कहीं लगे एक पत्थर पर लिखा है कि इस शिवलिंग को आज से 510 साल पहले यानि विक्रम संवत 1994 में पंडित रिषिभट्ट साहब स्वर्गवासी ने स्थापित किया था. भीड़ की वजह से मैं उस पत्थर की तस्वीर नहीं उतार पाई, लेकिन जम्मू से आए एक माइग्रेटेड कश्मीरी पंडित जे.के. धर साहब ने मोबाइल में ली गई तस्वीर दिखा कर मुझे ये जानकारी दी. जानकारी उर्दू में लिखी गई थी.

फोटोः प्रदीपिका सारस्वत

कुंभ में कुछ हज़ार लोग तो नज़र आए ही. कुल कितने हज़ार थे, इसका हिसाब किसी के पास नहीं. हालांकि कश्मीर महाकुंभ मेला सेलिब्रेशन कमेटी के कन्वीनर ए के कॉल साहब की मानें तो 25,000 लोग आज कुंभ स्नान के लिए यहां आए हुए थे.
ज़्यादातर लोग जम्मू से थे. बुज़ुर्ग दंपत्ति, युवा लड़के, परिवार, हर तरह के तीर्थयात्री. जम्मू में रहने वाले उज्जवल रैना मुझसे पूछता है, ‘तुइ छिउ कौशुर?’ यानि क्या आप कश्मीरी हैं? मेरी ना सुन कर उसे अच्छा नहीं लगा शायद. बीए फर्स्ट इयर में पढ़ने वाला उज्जवल परिवार के साथ आया है, उसके परिवार ने कुछ और लोगों के साथ मिलकर यात्रियों के लिए भंडारा लगाया हुआ है. उज्जवल को कुंभ के बारे में कुछ नहीं पता, वो बस यहां घूमने और भंडारा कराने में मदद के लिए आया है.

अखबार में पढ़कर यहां आ गया, दूसरे कुंभ में जाना नहीं हो पाता, ऐसा कहा वीर सिंह ने. फोटोः प्रदीपिका सारस्वत

वहीं में एक पंडाल में बड़गाम से आए वीर सिंह धर से मिलती हूं. वीर का परिवार जम्मू में रहता है पर क्योंकि वे जम्मू कश्मीर सरकार के वेतन पर हैं, तो अभी बड़गाम, यानी कश्मीर में रह रहे हैं. खामोशी से अकेले बैठे वीर से जब में उनके यहां आने का कारण पूछती हूं तो वो कहते हैं कि इस कुंभ के बारे में उन्होंने अखबार में पढ़ा. अब क्योंकि वे कभी प्रयाग या किसी और कुंभ नहीं जा सके तो वे यहां डुबकी लगाने चले आए.
पर जम्मू से आए जे के धर साहब का कुंभ में आना सिर्फ धार्मिक नहीं है. यहां आकर वो काफी इमोशनल नज़र आते हैं. नदी के किनारे, जहां पंडाल लगे हुए हैं, तीन जगह भंडारा चल रहा है, भक्तों की भीड़ उमड़ी हुई है, धर साहब वहां से हटकर पीछे गांव में चले जाते हैं. गांव में एक दुकान के सामने पड़े तख्त पर बैठे धर साहब को जब मैं देखती हूं तो मुझे लगता है कि वे स्थानीय कश्मीरी मुसलमान हैं. उनके सफेद कुर्ता और पाजामा और चेहरे-मोहरे से मुझे उनमें और एक कश्मीरी मुसलमान में कोई अंतर नहीं दिखता. ‘अस्सलाम वैलेकुम,’ मैं जाकर उनसे मुखातिब होती हूं. ‘वालेकुम अस्सलाम,’ वो मुझे बड़ा सहज सा जवाब देते हैं. जब मैं उन्हे स्थानीय मुसलमान समझते हुए कुंभ के इतिहास के बारे में जानना चाहती हूं, तो वो मुझे वही सब जानकारी देते हैं, जो पंडाल में कुछ अन्य पंडितों ने दी थी. बातों-बातों में पता चलता है कि वो जम्मू से आए कश्मीरी पंडित हैं. मैं हैरान रह जाती हूं. धर साहब के दिल में कश्मीर छूट जाने की कशिश है.
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जे के धर , जम्मू से आए कश्मीरी पंडित                                                                    फोटोः प्रदीपिका सारस्वत

‘इस लड़की से पूछो (दुकान पर बैठी स्थानीय मुसलमान लड़की की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं), ये तो मुझे जानती ही नहीं. इसे पता ही नहीं कि यहां हिंदू-मुसलमान कैसे एक साथ उठते-बैठते थे, खाते-पीते थे. मेरे बेटों को ही क्या पता है. जो यहां पैदा हुआ था, वो तो कुछ जानता भी है, जो कश्मीर छोड़ने के बाद पैदा हुए उन्हें क्या पता हमारा कल्चर क्या था, उन्हें क्या पता कि हमारा इन अखरोट और वरकुल के पेड़ों से क्या रिश्ता है. उन्हें अपनी जड़ों के बारे में कुछ पता नहीं,’ धर साहब के चेहरे पर जड़ों से कटने का, अपनी गंगा-जमुनी संस्कृति से दूर होने का दर्द तो दिखता है पर जब हम पंडित कॉलोनीज़ के बारे में बात करते हैं तो उनकी भाषा बदल जाती है. तब यहां के मुसलमानों के बीच रहना अचानक से इनसिक्योर हो जाता है. क्यों? इस सवाल का जवाब मुश्किल नहीं.
इस कुंभ के आयोजन में बाकी सब तो अन्य हिंदू धार्मिक आयोजनों जैसा ही है, भीड़, श्रद्धा, भंडारा, अव्यवस्था, गंदगी, पर यहां बाकी जगहों की तरह भगवा चोले वाले साधु नहीं दिखाई पड़ते. वही साधु जो हमें काशी से लेकर मथुरा और रेलवे स्टेशन से लेकर फुटपाथ, सब जगह बहुतायत में दिख जाते हैं. पर यहां भगवा रंग की कमी यहां बीजेपी ने नहीं खलने दी. शादीपोरा ब्रिज से नीचे उतरते ही बीजेपी का कैंप लगा नज़र आता है, चारों तरफ से भगवा झंडों से पटा हुआ.
मैं कैंप को देखकर ज़्यादा हैरान तो नहीं पर फिर भी इस तरह धार्मिक आयोजन में बीजेपी को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में खुलेआम मौजूद देख, थोड़ी सी हैरान होते हुए, कैंप में घुसती हूं. बीजेपी के बारामुला डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट यहां मीडिया को एक्पेक्ट नहीं कर रहे होते हैं, पर कवरेज किसे अच्छी नहीं लगती. वो बताते हैं कि बीजेपी कश्मीरी हिंदुओं को वापस घाटी में लाने के अपने वादे को निभा रही है. नॉर्थ कश्मीर के जनरल सेक्रेट्री शेख वसीम बारी भी ऐसा ही कुछ कहते हैं.
मेरे वापस लौटने का वक्त हो चला है. बीजेपी की मौजूदगी ने कई सवालों को हवा दे दी है. अभी कुछ दिनों पहले अभिनवगुप्त यात्रा का आयोजन भी बीजेपी कराना चाहती थी, फिर उन्होंने ही इसका विरोध भी किया. अजीब मसला है. पर बीजेपी का धर्म से रिश्ता उतना ही पुराना है, जितना उसका अस्तित्व. मैं कांग्रेस का रुख जानना चाहती हूं. पीडीपी से तो खैर पूछना ही बेकार है, उनकी लगाम उनके हाथ में है ही कहां.
कांग्रेस के स्पोक्सपर्सन रवींद्र शर्मा से बात होती है. जम्मू में बैठे रवींद्र कहते हैं कि धर्म में राजनीति मिलाकर शरबत पीना बीजेपी वालों का शगल है. हम इससे दूर ही रहते हैं.
मैं न्यूट्रल राय जानने के लालच में अपने फोन में मौजूद पत्रकारों के नंबर खंगालती हूं. शुजात बुखारी साहब से बात होती है. उनका कहना है कि कश्मीरी पंडितों का वापस आना, या धार्मिक आयोजन करना कोई समस्या नहीं. खीर भवानी मेला और अमरनाथ यात्रा होती आई है. पर नई-नई चीज़ें रीडिस्कवर करना किसी के लिए भी भला नहीं है. “कुछ लोग बीजेपी के सत्ता में होने का फायदा उठा कर ‘कश्मीर को दोबारा जीते जाने’ जैसा कुछ खड़ा करने की कोशिश में हैं. पर इससे हालात सुधरेंगे नहीं. यहां अभी एक बार फिर मिलिटेंसी बढ़ी है, उसमें स्थानीय युवाओं की हिस्सेदारी भी बढ़ी है. कश्मीर असुरक्षा की भावना के एक नए दौर से गुज़र रहा है, और इसकी वजह दिल्ली की हालिया हरकतें ही हैं. बीजेपी कश्मीर और इसकी ज़रूरतों को समझने में बुरी तरह फेल हुई है. बीजेपी सत्ता के चश्मे से सूरते हाल का मुआयना कर ये सोच रही है कि वो सत्ता में है तो कुछ भी कर सकती है, पर कश्मीर हमेशा से रेज़िस्ट करता रहा है, और रेज़िस्टेंट से हालात बेहतर नहीं, बदतर ही होंगे.”
कश्मीरी पंडितों को वापस आना है, बीजेपी उन्हें लेकर आएगी भी, ऐसा वादा है, पर सिक्योर्ड पंडित कॉलोनियां, नई धार्मिका यात्राएं और आयोजन, और उनपर होती राजनीति यहां उनके रास्ते पर कितने फूल बिखराएगी ये वक्त बताएगा.


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