कितने सालों से मनुष्य ब्रह्मांड में जीवन का दायरा बढ़ाने की कोशिश में लगा है. इस सवाल का जवाब खोजने में लगा है कि क्या असीम अंतरिक्ष में हम धरती वासियों का ऐसा कोई पड़ोसी है, जो सजीव है. हमारी तरह या हमसे ज्यादा बेहतर या हमसे कमतर ही सोचता, बोलता और करता है? जिसे हम ‘एलियन’ कहते हैं, क्या वह अंतरिक्ष के किसी कोने-अंतरे में अपनी अलग रहस्यमय दुनिया के साथ आबाद है? अभी तक तो इसके कोई निशान नहीं मिले हैं, लेकिन खोज जारी है. खोज इसके लिए भी जारी है कि ब्रह्मांड के असंख्य तारों, ग्रहों और उपग्रहों में क्या कोई ऐसी जगह है, जहां जीवन को आसरा मिल सकता है? जहां ‘हवा-पानी’ ऐसा हो कि मनुष्य जिंदा रह सकें.
अपनी ही आकाशगंगा में मिल सकता है दूसरा जीवन, इस चंद्रमा पर मिले 'पक्के संकेत'
अपनी आकाशगंगा मिल्की वे में ही मंगल ग्रह के अलावा अंतरिक्ष का एक और टुकड़ा है, जहां से जीवन की संभावनाओं की आहट मिली है.


इसमें मंगल ग्रह को लेकर सबसे ज्यादा उम्मीदें हैं. आजतक की रिपोर्ट के मुताबिक, 10 सितंबर 2025 की बात है. नासा के परसिवियरेंस मार्स रोवर ने मंगल ग्रह पर एक ऐसी खोज की, जो हमें वहां प्राचीन जीवन का सबसे बड़ा संकेत देती है. यहां जेजेरो क्रेटर में एक चट्टान से लिया गया ‘सैफायर कैन्यन’ का सैंपल प्राचीन माइक्रोबियल लाइफ का संकेत देता है. ‘नेचर’ जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, सैफायर कैन्यन चट्टान नेरेटवा वैलिस नाम की एक पुरानी नदी की घाटी में मिला, जो कभी पानी से भरी थी. इससे ये संकेत मिलता है कि मंगल ग्रह पर भी कभी धरती की तरह जीवन था. हालांकि, इसे साबित करने के लिए और ज्यादा शोध की जरूरत है.
मंगल ग्रह के अलावा अंतरिक्ष का एक और हिस्सा है, जहां ‘जीवन की संभावनाओं’ की आहट वैज्ञानिकों को मिली है. हाल ही में एक रिसर्च में बताया गया कि इस जगह पर महासागर होने के संकेत मिले हैं. माने जीवन के पनपने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी तीन चीजों में से एक. यानी पानी. इस बात को और पुष्ट करने के लिए नासा ने एक रॉकेट भी रवाना कर दिया है. इससे अंदाजा लगाइए कि ये जगह हमारी धरती से कितना दूर है कि साल 2024 में छोड़ा गया रॉकेट 6 साल बाद 2030 में इस ‘संभावित धरती’ की सतह पर उतरेगा.
ये ‘संभावित धरती’ क्या है? ग्रह है? तारा है? नहीं. ये एक चंद्रमा है.
पूर्णिमा की रात आसमान में गोल सफेद खिड़की की तरह दिखने वाले चंद्रमा पर तो इंसान पहुंच भी गया है. वहां तो जीवन के कोई संकेत नहीं हैं. फिर ये कौन सा चंद्रमा है, जहां एक तो रॉकेट को पहुंचने में 6 साल लग रहे हैं और दूसरा वहां की कोई साफ-सटीक जानकारी हमें नहीं है.
जवाब है, ये चंद्रमा हमारी पृथ्वी का नहीं है. हम सभी जानते हैं कि ग्रहों का चक्कर लगाने वाले आकाशीय पिंड उपग्रह कहे जाते हैं. लेकिन ये उपग्रह तारा नहीं होते. यानी कि उनके पास अपना कोई प्रकाश नहीं होता. जैसे धरती के पास एक चंद्रमा है, जो हमें सूरज से उधार ली रोशनी से आकाश में चमकता दिखता भी है. लेकिन बृहस्पति जो हमारे सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह है, उसके पास 90 से ज्यादा चंद्रमा हैं. इनमें 4 बड़े चंद्रमा हैं, जिनकी झलक हम अब तक देख पाए हैं. इनमें से तीन को ‘गैलीलियन चंद्रमा’ कहा जाता है क्योंकि इनकी खोज इटालियन वैज्ञानिक गैलिलियो गैलिली ने की थी.
इन्हीं तीन में से एक है यूरोपा. वो जगह जहां वैज्ञानिकों की नजर ने समदंर देखा है. रासायनिक तत्व देखे हैं और इसके जरिए एक संभावना भी देखी है कि भरे ब्रह्मांड में ये एक ऐसी जगह हो सकती है, जहां ‘जिंदगी’ के अंकुर फूट सकते हैं.

नासा की वेबसाइट के मुताबिक, 2 मार्च 1973 को अमेरिका के फ्लोरिडा से पॉयनियर-10 नाम का अंतरिक्ष यान बृहस्पति ग्रह के लिए उड़ान भरता है. मंगल ग्रह से आगे जाने वाला यह इंसानों का भेजा पहला यान था. सबसे पहले इसी यान ने बृहस्पति के तीन चंद्रमाओं की झलक वैज्ञानिकों को दिखाई, जिसमें यूरोपा भी शामिल है.
यूरोपा से काफी दूर से गुजरने की वजह से ये उसकी साफ तस्वीर तो नहीं ले सका, लेकिन उसकी सतह पर कुछ ऐसे बदलाव नोट किए, जिसने वैज्ञानिकों की इस उपग्रह को लेकर जिज्ञासा को बढ़ा दिया. इसके एक साल बाद पॉयनियर-11 नाम का दूसरा अंतरिक्ष यान जूपिटर सिस्टम के पास भेजा गया लेकिन बृहस्पति के चंद्रमाओं को लेकर सबसे बड़ी जानकारी वोयेजर-1 अंतरिक्ष यान भेजे जाने के बाद सामने आई. ये साल 1979 की बात है. इस मिशन ने बताया कि बृहस्पति के चंद्रमा आपस में गुरुत्वाकर्षण बल से कनेक्टेड हैं और एक दूसरे को प्रभावित भी करते रहते हैं. यानी एक चंद्रमा की वजह से दूसरे चंद्रमा पर ज्वालामुखी गतिविधियां होती थीं.
इसी साल Voyager 2 भेजा गया, जिसने यूरोपा के बारे में सबसे बड़ी बात नोट की. वो ये कि इसकी सतह पर बर्फ की परत लिपटी है, जिनमें भूरे रंग की दरारें हैं. अब वैज्ञानिकों की दिलचस्पी इस उपग्रह में बढ़ती जा रही थी. 1995 में गैलिलियो नाम का अंतरिक्ष यान बृहस्पति का चक्कर काटने के लिए भेजा गया और इस यान ने वैज्ञानिकों को जो जानकारी दी, उससे उनकी जिज्ञासा ने लंबी उछाल मारी. गैलिलियो यान से पता चला कि यूरोपा की बर्फीली परत के नीचे महासागर होने के ठोस सबूत हैं. ऐसा पहली बार था कि पृथ्वी के बाहर कहीं पानी के इतने बड़े भंडार होने का इशारा मिला था.
अब वैज्ञानिकों के सामने एक ही काम था. इन कयासों को कैसे पुष्ट किया जाए. इसके लिए दो मिशन तैयार किए गए.
पहला है Jupiter Icy Moons Explorer यानी JUICE. 14 अप्रैल 2023 को इसे लॉन्च किया गया. यह लगभग 8 साल का सफर तय करके 2031 में बृहस्पति ग्रह के पास पहुंचेगा. इसका मकसद ऐसे अणुओं को खोजना है, जो जीवन की प्रक्रियाओं से जुड़े हो सकते हैं.
दूसरा है Europa Clipper, जिसे 2024 में लॉन्च किया गया है. यह मिशन यूरोपा के पास से दर्जनों बार गुजरेगा और इसका बड़ा लक्ष्य होगा कि उन पानी के फव्वारों (plumes) की जांच करे, जिसे हबल टेलीस्कोप ने कई बार देखा था.
स्पेस.कॉम के मुताबिक, हबल स्पेस टेलीस्कोप ने साल 2012 में यूरोपा के साउथ पोल इलाके में ‘पानी के फव्वारे’ देखे थे. इसे लेकर शोधकर्ताओं ने कहा कि पानी के इन फव्वारों की अभी पूरी तरह से पुष्टि नहीं की जा सकी है लेकिन इससे एक संकेत मिलता है कि यूरोपा के महासागर में पानी सतह पर आ रहा है.

नासा की वेबसाइट के मुताबिक,जीवन के लिए तीन मुख्य चीजें जरूरी मानी जाती हैं. पहला पानी (liquid water). दूसरा कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, फॉस्फोरस और सल्फर जैसे रासायनिक तत्व और तीसरा एनर्जी. वैज्ञानिक मानते हैं कि यूरोपा पर पर्याप्त पानी मौजूद है और जीवन के लिए जरूरी रासायनिक तत्व भी वहां पाए जाते हैं. रही बात ऊर्जा की तो इस पर वैज्ञानिकों का कहना है कि यूरोपा पर अगर जीवन हुआ भी तो वह बर्फ के नीचे होगा. जहां सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती. वहां का जीवन केवल रासायनिक प्रतिक्रियाओं (chemical reactions) से ऊर्जा लेगा.
धरती पर सूरज की रोशनी से ऊर्जा मिलती है. पौधे प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) से सूरज की रोशनी को ऊर्जा में बदलते हैं. फिर यही ऊर्जा इंसानों, जानवरों और बाकी जीवों तक पहुंचती है.
लेकिन यूरोपा के लिए केस थोड़ा अलग होगा. उसकी सतह पर बृहस्पति से आने वाला radiation जीवन के लिए तो घातक है, लेकिन महासागर के नीचे यही रेडिएशन जीवन के लिए ऊर्जा का काम कर सकता है.
यूरोपा नाम क्यों?पहली बात तो ये कि यूरोपा ‘यूरोप’ से नहीं बना है. 8 जनवरी 1610 को गैलिलियो गैलिली के खोजे गए इस उपग्रह का नाम एक ग्रीक पौराणिक महिला पात्र के नाम पर है. यूरोपा एक बेहद सुंदर राजकुमारी थी, जिसका अपहरण ग्रीक देवता ज्यूस ने कर लिया था.
बृहस्पति का ये चंद्रमा पृथ्वी के चंद्रमा के लगभग (तकरीबन 90 प्रतिशत) बराबर है. इसकी सतह के नीचे जिस महासागर की बात की जा रही है, अनुमान है कि वह धरती के महासागर का दोगुना है.
यूरोपा का ये महासागर लगभग 10 से 15 मील (15 से 25 किलोमीटर) मोटी बर्फ की एक परत के नीचे है और इसकी अनुमानित गहराई 40 से 100 मील यानी 60 से 150 किलोमीटर के करीब है.
अभी क्यों चर्चा में?
हाल ही में दक्षिण-पश्चिम रिसर्च इंस्टीट्यूट (Southwest Research Institute) के डॉ. उज्ज्वल राउत के कई प्रयोगों ने इस बात की संभावना को बढ़ते देखा है कि यूरोपा पर महासागर मौजूद है. उन्होंने जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (JWST) से मिले आंकड़ों से ये रिसर्च किया है. इन आंकड़ों से पता चलता है कि बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा की बर्फीली सतह लगातार बदल रही है. वहां बर्फ अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग हिसाब से क्रिस्टल (crystallize) हो रही है. इसका मतलब है कि सतह पर बाहरी कारणों और सतह के नीचे की गतिविधियों (geologic activity) का मिला-जुला असर काम कर रहा है.
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