
हिंदी फिल्मों के अब तक के सफर में जो सबसे अच्छा काम हुआ है, उसमें शुमार की जाने वाली कुछ फिल्में बलराज साहनी की हैं. फिल्में, जिनमें उनका अभिनय नहीं, उनकी आत्मा है.
और भाषण शुरू होता है:
करीब 20 साल पहले की बात है. कलकत्ता फिल्म जर्नलिस्ट्स असोसिएशन ने 'दो बीघा जमीन' के निर्माता स्वर्गीय बिमल रॉय और हम सब, यानी फिल्म के उनके साथियों को सम्मान देने का फैसला किया. वो बड़ा साधारण, मगर अच्छा कार्यक्रम था. कई लोगों ने भाषण दिए. मगर सुनने आए लोग तो बस बिमल रॉय की बारी का इंतजार कर रहे थे. हम सब फर्श पर बैठे थे. मैं बिमल दा के बगल में बैठा था. मैंने देखा कि जब उनके भाषण देने की बारी पास आ रही थी, तो वो काफी नर्वस हो गए. घबरा रहे थे. फिर जब उनका नंबर आया, तो वो खड़े हुए. हाथ जोड़े और कहा, 'जो भी मुझे कहना होता है, वो मैं अपनी फिल्मों में कह देता दूं. उससे ज्यादा मेरे पास कुछ नहीं है कहने को'. इतना कहा और बैठ गए.
बिमल दा ने उस दिन वहां जो कहा, उसके मायने बड़े गहरे थे. आज इस घड़ी जब मैं यहां भाषण देने के लिए खड़ा हूं, तो मेरा मन तो ये ही कह रहा है कि मैं उनकी ही मिसाल पकड़ूं. मगर मैं ऐसा नहीं करने वाला. इसकी इकलौती वजह इस संस्थान (JNU) के प्रति मेरा सम्मान है. एक और शख्स के प्रति मेरा सम्मान मुझे कम बोलने से रोक रहा है. वो शख्स हैं श्री पी सी जोशी. जो कि आपकी यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं. मेरी जिंदगी के कुछ सबसे खूबसूरत लम्हे इस इंसान की बदौलत हैं. ये एहसान मैं कभी नहीं उतार सकता. ये ही वजह है कि जब मुझे इस कार्यक्रम में आने का आमंत्रण दिया गया, तो मैं इनकार नहीं कर सका. अगर आपने (JNU ने) मुझे अपने दरवाजे पर झाड़ू लगाने के लिए भी बुलाया होता, तो मैं इतना ही खुश होता. इतना ही सम्मानित महसूस करता. शायद मेरी योग्यता के हिसाब से वो काम ज्यादा सही रहता.
नहीं नहीं, मुझे गलत मत समझिए. मैं विनम्र होने की कोशिश नहीं कर रहा हूं. मैंने जो भी कहा, दिल से कहा. आगे भी मैं जो कहूंगा, वो दिल से ही कहूंगा. आप इससे सहमत हों या न हों, आपको मेरा कहा दीक्षांत समारोहों की परंपरा के मुताबिक लगता है या नहीं, ये अलग बात है. जैसा कि आप जानते ही हैं, मैं करीब 25 साल से ज्यादा समय से पढ़ाई-लिखाई की दुनिया से दूर हूं. इससे पहले मैंने कभी किसी यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह को संबोधित भी नहीं किया.
मैं ये भी बताना चाहूंगा कि आपकी इस शैक्षिक दुनिया से दूरी बनाना मेरी मर्जी से लिया गया फैसला नहीं था. ऐसा हुआ क्योंकि हमारे देश में फिल्म बनाने की जो प्रक्रिया है, वो थोड़ी खास है. या तो हमारी फिल्म इंडस्ट्री किसी कलाकार को बहुत कम काम देती है, जिसकी वजह से वो बेचारा खाली बैठकर अपना मन छोटा करता है. या फिर किसी कलाकार को बहुत ज्यादा ही काम मिल जाता है. इतना काम कि वो जिंदगी की बाकी चीजों से पूरी तरह कट जाता है. न केवल वो सामान्य पारिवारिक जिंदगी की खुशियों का त्याग करता है, बल्कि उसे अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक जरूरतों को भी नजरंदाज करना पड़ता है. पिछले 25 सालों में मैंने 125 से ज्यादा फिल्मों में काम किया है. इतने ही वक्त में इस दौर के किसी यूरोपीय या फिर अमेरिकी कलाकार ने बमुश्किल 30 से 35 फिल्में की होतीं.
इसी बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरी जिंदगी का कितना बड़ा हिस्सा सिनेमा के नीचे दबा हुआ है. बहुत सारी किताबें जो मुझे पढ़नी चाहिए थीं, मैं पढ़ नहीं पाया. कई सारी चीजें जिसमें मुझे भागीदारी करनी चाहिए थी, उनमें मैं शरीक नहीं हो पाया. कई बार मुझे लगता है कि मैं बहुत पीछे छूट गया हूं. ये तकलीफ तब और ज्यादा बढ़ जाती है, जब मैं खुद से सवाल करता हूं कि इन 125 फिल्मों में से कितनी ऐसी फिल्में हैं, जिनमें कुछ बेहतर है? मैंने जो फिल्में की हैं, उनमें कितनी ऐसी हैं जिन्हें याद रखा जाना चाहिए? शायद कुछ भी फिल्में इस पांत में आ सकेंगी. इतनी कम है इनकी गिनती कि मेरे एक हाथ की उंगलियों पर खत्म हो जाएं. और शायद ये फिल्में भी या तो भुला दी गई हैं या भुला दी जाएंगी.
तभी तो मैं अभी कह रहा था कि मैं विनम्र बनने की कोशिश नहीं कर रहा. मैं तो बस आपको आगाह कर रहा था. ताकि जब मैं बोलूं और आप निराश हों, तो आप मुझे मुआफ कर सकें. बिमल रॉय सही कहते थे. कलाकार का काम ही उसकी दुनिया है. तो जब मैं बोल ही रहा हूं, तो मैं वो ही बोलूंगा जिसे मैं अपने अनुभवों से जाना है. जो मैंने देखा है. जैसा मैंने महसूस किया है. और अपने तजुर्बे से समझी हुई वो बातें मैं कहूंगा, जो मुझे लगता है कि आपसे कही जानी चाहिए. इन सबके अलावा कुछ और बोलना गलत और बेवकूफाना होगा.
मैं आपको एक वाकया बताना चाहता हूं. ये मेरे कॉलेज के दिनों की बात है. ऐसी बात है, जिसे मैं कभी भुला नहीं सका. ये वाकया जैसे मेरे दिमाग पर हमेशा के लिए गुद गया है. मैं अपने परिवार के साथ गर्मी की छुट्टियां बिताने रावलपिंडी से कश्मीर जा रहा था. आधा रास्ता ही पार हुआ था कि बस रुक गई. एक रात पहले वहां बहुत जोर की बारिश हुई थी. उस बारिश के कारण सड़क का एक बड़ा हिस्सा बह गया था. इस लैंडस्लाइड के कारण वहां बसों और कारों की कतार लगी थी. हमारी बस भी उस कतार में शामिल हो गई. हम सब बड़ी बेसब्री से रास्ता साफ होने का इंतजार कर रहे थे. सरकारी विभाग के लिए ये काम जरा मुश्किल साबित हो रहा था. मलबा हटाने और रास्ता साफ करने में उन्हें कुछ दिनों का वक्त लग गया. हालात पहले से बड़े मुश्किल थे. इसे और मुश्किल बनाया वहां जमा यात्रियों और गाड़ी के ड्राइवर्स ने. सब लोग बड़ी बेसब्री दिखा रहे थे. विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. वहां आस-पास के गांवों में रहने वाले लोग भी इन शहरी लोगों के बर्ताव से परेशान हो गए.
फिर एक सुबह बताया गया कि सड़क खुल गई है. तमाम ड्राइवरों को गाड़ी आगे बढ़ाने की हरी झंडी मिल गई. मगर तभी हमें एक अजीब सा मंजर दिखा. कोई भी ड्राइवर पहले गाड़ी बढ़ाने को तैयार नहीं था. सब गाड़ियां लेकर वहां खड़े थे. इस पार वाले भी और उस पार वाले भी. इस बात में कोई शक नहीं कि जो सड़क बनाई गई थी, वो कामचलाऊ थी. और शायद खतरनाक भी थी. हमारे एक तरफ पहाड़ था. दूसरी तरफ गहरी खाई और नीचे नदी भी बह रही थी. हालात जोखिम भरे थे. PWD के जिस कर्मचारी पर सड़क बनवाने का जिम्मा था, उसने बारीकी से मुआयना किया था. उसे एहसास था कि कितने सारे जानों की जिम्मेदारी है उसपर. ये सब देखने-समझने और तसल्ली करने के बाद ही उसने सड़क को खोला था.
मगर वहां मौजूद लोगों में कोई भी ऐसा नहीं था जो उसके फैसले पर भरोसा करके आगे बढ़ने की हिम्मत दिखाए. और ये वो ही लोग थे जो एक दिन पहले तक सरकारी विभाग पर कामचोरी और नालायकी का इल्जाम लगा रहे थे. इसी उलझन में आधा घंटा बीत गया. एक भी इंसान अपनी जगह से नहीं हिला. तभी हमने देखा कि एक छोटी सी हरे रंग की स्पोर्ट्स कार आगे बढ़ रही है. कोई अंग्रेज चला रहा था वो कार. अकेला था. उसने जब इतनी सारी गाड़ियों और लोगों को वहां जमा देखा, तो हैरान हुआ. मैं भी वहीं खड़ा था. अपनी स्मार्ट सी जैकेट और पतलून पहने. उस अंग्रेज ने मुझसे पूछा- क्या हुआ है?
मैंने उसे पूरी बात बता दी. वो बड़ी जोर से हंसा. अपनी कार का हॉर्न बजाया और सीधा आगे की ओर बढ़ गया. बिना किसी झिझक के उसने सड़क का वो खतरनाक हिस्सा पार कर लिया. उसके पार होते ही स्थितियां बदल गईं. अब हर किसी को पार जाने की जल्दी थी. लोग एक-दूसरे से आगे बढ़ना चाहते थे. सबसे पहले निकलना चाहते थे. इस चक्कर में वहां बड़ी अफरातफरी मच गई. सैकड़ों गाड़ियों के इंजनों और उनके हॉर्न की आवाज झेली नहीं जा रही थी.
उस दिन मैंने अपनी आंखों से देखा. कि एक आजाद मुल्क में पले-बढ़े और एक गुलाम देश में पैदा हुए इंसान के बर्ताव में कितना फर्क होता है. एक आजाद इंसान के पास खुद सोचने, फैसला करने और उसके ऊपर अमल करने की ताकत होती है. गुलाम इंसान के पास ये चीज नहीं होती. वो हमेशा औरों के मुताबिक सोचका है. अपने फैसले नहीं ले पाता. जोखिम लेने की हिम्मत नहीं करता. कुछ नया नहीं कर पाता. नए रास्तों पर नहीं चलता. उस घटना से मैंने एक सबक सीखा. ये एक सबक मेरे लिए बहुत कीमती साबित हुआ. अपनी अब तक की जिंदगी में जब भी मैंने खुद अहम फैसले लिए, तब-तब मैंने खुद को एक आजाद इंसान कहा. मेरा जज्बा मजबूत हुआ. मैंने अपनी जिंदगी को खुश होकर जीया. ये सब इसलिए कि मैंने महसूस किया कि मेरी जिंदगी का मायना है.
मगर ईमानदारी से कहूं, तो ऐसे मौके बड़े कम ही आए हैं. कई मौकों पर, कई अहम पलों पर मेरी हिम्मत जवाब दे गई. तब मैंने दूसरी की अक्लमंदी का सहारा लिया. उनसे राय ली. ये ऐसे मौके थे, जब मैंने जोखिम न उठाकर सुरक्षित रास्तों पर चलना सही समझा. मैंने अपने परिवार की उम्मीदों के मुताबिक फैसले लिए. मेरा परिवार बहुत संभ्रांत बुर्जुआ परिवार था. ये फैसले उनके मुताबिक थे. ये वो बातें थीं, जो उनको सही लगती थीं. मैंने सोचा कि बगावत करूं, लेकिन कर नहीं पाया. उनकी मर्जी के आगे घुटने टेक दिए. इस वजह से बाद में कई मौकों पर मुझे बुरा महसूस हुआ. लगा, मेरे अंदर कोई सड़ांध पैदा हो गई है. इंसानी खुशी की बात करुं, तो कुछ फैसले बड़े खराब साबित हुए. जब भी मेरी हिम्मत जवाब दे गई, तब-तब ऐसा लगा कि ये मेरी जिंदगी बेमतलब है. किसी बोझ के जैसी है.
मैंने आपको उस अंग्रेज का किस्सा बताया. शायद इससे जाहिर हो जाएगा कि उस वक्त मैं खुद को कितना छोटा और कमतर समझता था. मैं शायद आपको सरदार भगत सिंह की मिसाल भी दे सकता था. उन्हें भी उसी साल फांसी हुई थी. मैं आपको महात्मा गांधी की मिसाल दे सकता था, जिनके पास हमेशा अपने फैसले लेने की हिम्मत थी. मुझे याद आता है कि किस तरह मेरे कॉलेज के प्रफेसर और मेरे शहर के समझदार आदमी महात्मा गांधी की नादानी पर इनकार में अपना सिर हिलाते थे. गांधी जी को लगता था कि वो अपने सत्य और अहिंसा के यूटोपियन सिद्धांतों से दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य की चूलें हिला देंगे. अंग्रेजों को हरा देंगे. मुझे लगता है कि मेरे शहर के एक फीसद से भी कम लोगों को इस बात का यकीन था कि अपने जीते-जी वो एक आजाद हिंदुस्तान देख सकेंगे. मगर महात्मा गांधी को खुद पर भरोसा था. अपने मुल्क पर यकीन था उन्हें. अपने लोगों पर विश्वास सा उनको. आपमें से कुछ लोगों ने शायद गांधी जी की वो पेंटिंग देखी होगी, जो नंदलाल बोस ने बनाई. वो एक ऐसे इंसान की तस्वीर है, जिसके अंदर सोचने और उसपर अमल करने की हिम्मत थी.
अपने कॉलेज के दिनों में मैं भगत सिंह या फिर महात्मा गांधी से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं था. मैं पंजाब से सबसे शानदार शैक्षणिक संस्थान- लाहौर के सरकारी कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में MA कर रहा था. बहुत बेहतरीन छात्रों को ही वहां दाखिला मिला करता था. आजादी के बाद मेरे साथ के छात्रों ने भारत और पाकिस्तान में बड़े ऊंचे ओहदे हासिल किए. सरकारी नौकरियों में भी और समाज-सोसायटी में भी. मगर इस कॉलेज में दाखिला लेने से पहले हमें एक लिखित गारंटी देनी पड़ती थी. कि हम किसी भी राजनैतिक आंदोलन में हिस्सा नहीं लेंगे. उस दौर में राजनैतिक आंदोलन का मतलब था आजादी की लड़ाई.
इस साल (1972) हम अपनी आजादी की 25वीं सालगिरह मना रहे हैं. मगर क्या हम ईमानदारी से ये कह सकते हैं कि हमने गुलामी वाली अपनी मानसिकता से आजादी पा ली है? हमारे अंदर की हीनभावना को जीत लिया है? क्या हम ये दावा कर सकते हैं कि निजी, सामाजिक, संस्थानिक या फिर सोच के स्तर पर, फैसलों के मामलों में, यहां तक कि हम जो कर रहे हैं, इन सब बातों में आजाद ख्याल हैं? कि हमने अपनी सोच कहीं से उधार नहीं ली है? क्या आध्यात्मिक तौर पर हम आजाद हैं? क्या हमारे अंदर खुद से सोचने और अपने लिए फैसला लेने की हिम्मत है? या फिर हम ऐसा करने का दिखावा करते हैं? क्या हम बस आजाद होने का ढोंग कर रहे हैं?
मैं आपका ध्यान उस फिल्म इंडस्ट्री की ओर खींचना चाहूंगा, जिसका मैं हिस्सा हूं. मैं जानता हूं कि हमारी कई सारी फिल्में ऐसी हैं, जिनका जिक्र ही कर दूं बस तो आप लोग हंसने लगेंगे. पढ़े-लिखा, समझदार लोगों की नजरों में हिंदी फिल्में किसी तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं. फिल्में जिनकी कहानियां बचकानी हैं, जिनका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं और जो किसी तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं. मगर आप सब इस बात पर राजी होंगे कि इन फिल्मों की सबसे बड़ी खामी उनकी कहानियां हैं. उन्हें बनाए जाने का तरीका है. उनमें होने वाला नाच-गाना है. और ये जब बाहर की फिल्मों से चुराया जाता है. बिना सोचे-समझे, बस चुरा लिया जाता है. कई ऐसी हिंदी फिल्में हैं, जो पूरी की पूरी किसी विदेशी फिल्म की चोरी करके बनाई गई हैं. तो कोई अचरज नहीं कि आप जवान लोग हम फिल्मवालों पर हंसते हैं. हमारा मजाक बनाते हैं. वो भी तब, जब कि आपमें से ही कुछ लोग खुद भी इसी फिल्म इंडस्ट्री में आकर बड़ा सुपरस्टार बनने का ख्वाब देखते हैं.
हिंदी फिल्मों पर हंसना मेरे लिए आसान नहीं है. इन्हीं फिल्मों से तो मैं रोजी-रोटी कमाता हूं. इन्हीं फिल्मों की बदौलत तो मुझे इतना पैसा, इतना नाम मिला है. यहां तक कि आज जो आपने मुझे बुलाया है और इतना सम्मान दिया है, उसके लिए भी कुछ हद तक मैं इन्हीं हिंदी फिल्मों का शुक्रगुजार हूं. जब मैं आपकी तरह एक छात्र था, तब हमारे शिक्षक (अंग्रेज भी और देसी भी) हमें कला के अलग-अलग क्षेत्रों की ओर जाने के लिए राजी करने की कोशिश करते थे. ये कलाएं तब गोरे लोगों की दुनिया समझी जाती थीं. महान फिल्में, महान नाटक, महान अभिनय, महान चित्रकारी वगैरह वगैरह. ये सब या तो यूरोप में मुमकिन था या फिर अमेरिका में. हम हिंदुस्तानियों की संस्कृति, हमारी भाषा कला के लिहाज से बहुत पिछड़ी और कच्ची मानी जाती थी. हमें ये सब देख-सोचकर बड़ा बुरा लगता था. बाहरी तौर पर इसकी शिकायत भी करते थे. मगर अंदर ही अंदर हम इसे सच मानते थे.
तब से लेकर अब तक की स्थितियों में फर्क तो आया है. बहुत फर्क आया है. आजादी के बाद भारत ने कला के हर क्षेत्र में काफी काम किया है. फिल्म बनाने वालों की लीग में सत्यजीत रे और बिमल रॉय का नाम दुनिया की बड़े समकक्षों में शुमार किया जाता है. हमारे कई कलाकारों, कैमरामैन्स और टेक्नीशियन्स की तुलना दुनिया के किसी कोने में काम कर रहे उनके समकक्षों से की जा सकती है. आज की तारीख में हमारा मुल्क सबसे ज्यादा फिल्में बनाता है. न केवल हमारी फिल्में देश के अंदर बेहद लोकप्रिय हैं, बल्कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सोवियत संघ, मिस्र, अरब मुल्कों और अफ्रीकी देशों में भी काफी देखी और पसंद की जाती हैं. इस मामले में हमने हॉलिवुड के एकछत्र राज को तोड़ा है.
सामाजिक जिम्मेदारियों के लिहाज से भी हमारी फिल्में अभी उतना नीचे नहीं गिरी हैं, जितना कुछ पश्चिमी देशों के अंदर गिरी हैं. भारत के फिल्म निर्माताओं ने पैसा कमाने के लिए सेक्स और अपराध को उतना नहीं भुनाया है, जैसा अमेरिकी फिल्म प्रोड्यूसर्स पिछले कई सालों से भुनाते आ रहे हैं. मगर ये सारी खूबियां एक खामी के आगे बौनी पड़ जाती हैं. वो कमी है कि हम ऑरिजनल काम नहीं करते. चोरी करते हैं. नकल करते हैं. हम बासी पड़ चुके फॉर्म्युला पर फिल्में बनाते हैं. हमारे अंदर इतनी हिम्मत ही नहीं है कि हम खुद का कुछ बना सकें. ऐसा कुछ, जिसमें हमारे देश के मुद्दे हों. यहां की सच्चाई हो.
मैं ये सब आमतौर पर बनने वाली हिंदी और तमिल फिल्मों के लिए ही नहीं बोल रहा हूं. मेरी ये शिकायत हमारी कथित प्रगतिशील और प्रयोगधर्मी कही जाने वाली फिल्मों पर भी लागू होती है. फिर चाहे वो बंगाली में हों, हिंदी में हों, या फिर मलयालम में हों. सत्यजीत रे, मृणाल सेन, सुखदेव, बासु भट्टाचार्य और राजेंद्र सिंह बेदी के काम की तारीफ करने में मैं किसी से भी पीछे नहीं हूं. मैं जानता हूं कि उनके काम का बहुत सम्मान है. ये लोग इस सम्मान के हकदार भी हैं. ये सब अपनी जगह है, फिर भी मैं कहूंगा कि इन लोगों के काम पर भी इटली, फ्रांस, स्वीडन, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया में बन रही फिल्मों का, वहां के फैशन का असर है. जिन लोगों का मैंने नाम लिया, वो नए तरह का काम कर रहे हैं. मगर वैसा काम, जो उनसे पहले भी कोई कर चुका है. वो जिस राह पर चल रहे हैं, उस राह पर उनसे पहले भी कोई चल चुका है.
साहित्य की दुनिया में मेरी बड़ी दिलचस्पी है. वहां भी मैं ये ही हाल देखता हूं. हमारे उपन्यासकार, कहानीकार और कवि बड़ी आसानी और सहूलियत से यूरोप का चलन अपना लेते हैं. जबकि शायद एक सोवियत संघ को छोड़कर बाकी का यूरोप भारतीयों के लेखन से वाकिफ ही नहीं है. एक मिसाल देता हूं. मेरे अपने पंजाब प्रांत में युवा कवियों के बीच मौजूदा सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ बगावत की लहर दौड़ रही है. उनकी कविताएं लोगों से अपील करती हैं कि उठो और इस सामाजिक ढर्रे की मुखालफत करो. इसे गिराीओ और इसकी जगह नई दुनिया बनाओ. ऐसी दुनिया जो कि भ्रष्टाचार, अन्याय और शोषण से आजाद हो. आप इन बातों से, इसके जज्बे से अनछुए नहीं रह सकते. आपको इस भावना से करीबी महसूस होगी. इसकी वजह ये है कि हमारे मौजूदा सामाजिक ढांचे को बेशक बदलाव की जरूरत है.
इन कविताओं की सबसे शानदार बात है इनके अंदर लिखी बातें. उनका कंटेंट. मगर उसे लिखने का तरीका हमारा अपना नहीं है. मौलिक नहीं है. पश्चिमी देशों से, वहां के कवियों से उधार लिया गया है. पश्चिमी देशों ने छंद और तुकबंदी को नकार दिया. इसीलिए हमारे पंजाबी कवियों ने भी इसे खारिज कर दिया. और उसी पश्चिमी तर्ज पर इन कवियों के गीत की भाषा में भी अति-हिंसक तस्वीरें मिलेंगी. इसका नतीजा ये है कि इन कविताओं का गुस्सा और आक्रोश कागज पर तो साबुत दिखता है, मगर बस कागज पर. इसका असर भी कुछ पढ़े-लिखे, एक-दूसरे के कामों की तारीफ करने में लगे साहित्यिक तबके तक सिमटकर रह जाता है. जिन लोगों, कामगरों और किसानों को क्रांति का पाठ पढ़ाया जा रहा है, वो इस तरह की कविताओं को कभी समझ ही नहीं सकेंगे. मैं अगर कहूं कि बाकी भारतीय भाषाओं का भी ये ही हाल है और वो भी इस 'नई लहर' वाली कविता के चंगुल में फंस गए हैं, तो मैं गलत होऊंगा.
पेंटिंग के बारे में तो मैं कुछ भी नहीं जानता. मुझे अच्छी और बुरी पेंटिंग का फर्क नहीं पता. मगर मैंने ये बात गौर की है कि यहां भी हमारे हिंदुस्तानी चित्रकार विदेशी चलन की नकल करते रहते हैं. बहुत कम ही पेंटर्स ऐसे मिलेंगे आपको भारत में, जो कि बहाव के उलट तैरने की हिम्मत दिखाएं. और पढ़ाई-लिखाई की दुनिया के बारे में क्या कहूं मैं? मैं आपसे कहता हूं कि खुद को आईने में देखिए. अगर आप हिंदी फिल्मों पर हंसते हैं, तो शायद आप खुद पर भी हंसना चाहेंगे. इस साल पंजाब ने मुझे गुरु नानक यूनिवर्सिटी की सीनेट में नामांकित किया. जब सीनेट की पहली मीटिंग में शामिल होने का न्योता मेरे पास पहुंचा, तो मैं पंजाब में था. प्रीत नगर के पास कुछ गांवों में भटक रहा था. पंजाबी के महान लेखक एस गुरबक्श सिंह ने इस सांस्कृतिक गढ़ की नींव रखी थी.
शाम के समय हम कुछ लोग बातचीत कर रहे थे. मैंने गांव के अपने दोस्तों से कहा कि फलां बैठक में शामिल होने के लिए मुझे अमृतसर जाना है. कि अगर किसी को मेरी कार में लिफ्ट चाहिए हो, तो वो साथ आ सकता है. मेरी इस बात पर मेरा एक साथी बोला, 'यहां हमारे साथ बैठे हो, तो तुमने तहमत-कुर्ता पहना हुआ है. एकदम किसानों के अंदाज का. फिर कल तुम अपनी कमीज पहनोगे और फिर से साहब बहादुर बन जाओगे.' उसकी इस बात पर हंसते हुए मैंने जवाब दिया, 'ठीक है. अगर तुम चाहते हो, तो मैं ऐसे ही कपड़ों में वहां चला जाऊंगा.' एक दोस्त ने कहा कि तुम कह रहे हो, मगर सच में ऐसा करने की हिम्मत नहीं दिखाओगे. उसने कहा- हमारे सरपंच साहब को जब भी किसी सरकारी काम से शहर जाना होता है, तो वो अपनी तहमत उतारकर पजामा पहनते हैं. फिर शहर जाते हैं. उन्हें ऐसा करना पड़ता है. वरना लोग उनकी इज्जत नहीं करते. तुम इस तरह किसानों के कपड़े पहनकर इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी में कैसे जाओगे?
एक जवान जो कि धान बोने के लिए फौज से छुट्टी लेकर आया था, बोला, 'हमारा सरपंच डरपोक है. इन दिनों तो शहर की लड़कियां भी लुंगी पहनती है. लुंगी पहनने से इज्जत क्यों नहीं होगी किसी की?' ऐसे ही बात चलती रही. मैंने इसे एक चुनौती माना और लुंगी-कुर्ता पहनकर यूनिवर्सिटी सीनेट की बैठक में पहुंच गया. वहां जैसी सनसनी पैदा हुई, इसकी मुझे कतई उम्मीद नहीं थी. वहां के अफसर, जो कि खुद शायद प्रफेसर थे, पहले तो मुझे पहचान ही नहीं सके. फिर जब उन्होंने पहचाना, तो अपनी हैरानी नहीं छुपा सके.
हंसी के अंदाज में वो बोले- साहनी साहब, लुंगी के साथ आपको जूते नहीं पहनने चाहिए थे. इतना कहकर उन्होंने वो सीनेट मेंबरों को पहनाया जाने वाला गाऊन मेरे कंधे पर रख दिया. मैंने मुआफी के अंदाज में कहा कि आगे से ध्यान रखूंगा. फिर मैं आगे बढ़ गया. कुछ मिनटों बाद मैंने खुद से ही सवाल किया. कि क्या मेरे कपड़ों पर टिप्पणी और छींटाकशी करना प्रफेसरों की असभ्यता नहीं थी. मैंने सोचा कि ये बात मैंने उसी समय क्यों नहीं कही उससे. इतनी देर से जवाब सोच पाने के लिए मैंने खुद को कोसा.
बैठक के बाद हम छात्रों से मिलने गए. वो लोग और ज्यादा हैरान थे. मजाक उड़ रहा था मेरा. बहुत सारे छात्र तो ये देखकर हंस रहे थे कि मैंने लुंगी के साथ भी जूते पहने हुए हैं. उन लोगों ने खुद पतलून के साथ चप्पलें पहनी हुई हैं, ये उन्हें अजूबा नहीं लगा. अपना स्टाइल सामान्य लग रहा था उन्हें. आप सोचेंगे कि ये बात बताकर मैं आपका समय क्यों बर्बाद कर रहा हूं. मगर इस पूरी घटना को एक पंजाबी किसान के नजरिये से देखिए. हरित क्रांति लाने के लिए उन किसानों ने जो किया है, जैसी भागीदारी की है, उसकी तारीफ हम सब करते हैं. पंजाब के वो किसान और उनका परिवार हमारी फौज में रीढ़ की हड्डी जैसा काम करते हैं. उसे कैसा लगेगा ये जानकर कि उसकी पोशाक या फिर उसके जीने के तरीके का मजाक उड़ाया जाता है?
पंजाब में ये बात सबको पता है. कि गांव के लड़के पढ़-लिखकर, कॉलेज जाकर गांव से अलग हो जाते हैं. गांव की और वहां के लोगों की तकलीफें उनके लिए मायने नहीं रखती फिर. उसे ऐसा लगता है कि कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद वो बाकियों से ऊंचा उठ गया है. साथ के गांववालों से अलग हो रहा है. मानो उसकी दुनिया ही बदल गई है. फिर उसका एक ही लक्ष्य रह जाता है. कि किसी तरह गांव से पीछा छुड़ाए और शहर चला जाए. क्या ये बात शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए कलंक नहीं है?
मैं मानता हूं कि सारी जगहें एक सी नहीं होती हैं. मुझे बहुत अच्छी तरह पता है कि तमिलनाडु और बंगाल में वहां की पारंपरिक पोशाक के लिए किसी तरह की हीन भावना नहीं है. चाहे किसान हो कि प्रफेसर, धोती पहनकर वो कहीं भी, किसी भी कार्यक्रम में जा सकते हैं. मगर मैं ये भी कहूंगा कि औरों की सोच से सोचना और नकल करना वहां भी मौजूद है. किसी न किसी तरह, थोड़ा या बहुत, ये बात हर जगह मौजूद है.
आजादी के 25 साल बाद भी हम उसी शिक्षा व्यवस्था को ढो रहे हैं, आगे बढ़ा रहे हैं जिसे मैकाले और उसके साथियों ने क्लर्क और मानसिक तौर पर गुलामों की फौज बनाने के लिए विकसित किया था. ऐसे गुलाम, जो कि अपने अंग्रेज आकाओं से अलग आजाद होकर सोचने के काबिल ही नहीं होंगे. ऐसे गुलाम जो कि अपने आकाओं की हर बात को अच्छा मानेंगे. उसकी तारीफ करेंगे. फिर चाहे इसके लिए उन्हें खुद से और अपने तौर-तरीकों से ही क्यों न नफरत करनी पड़े. ऐसे गुलाम, जो अपने आकाओं के बराबर खड़े होने को अपना सौभाग्य मानेंगे. जो कि अपने आकाओं की बोली बोलेंगे. उनकी तरह की कपड़े पहनेंगे. अपने आकाओं की ही तरह नाचेंगे. उनकी ही तरह गायेंगे. ऐसे गुलाम, जो अपने मुल्कवालों से, अपने लोगों से नफरत करेंगे. जो कि अपने ही लोगों के बीच नफरत फैलाएंगे. क्या ये हैरानी की बात है फिर कि यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले ज्यादातर छात्रों का अपनी ही शिक्षा व्यवस्था से भरोसा उठ रहा है.
अब मुझे उन घिसी-पिटी बातों पर दोबारा जाने दीजिए. दस साल पहले अगर आप दिल्ली के किसी फैशनेबल छात्र को पतलून के ऊपर कुर्ता पहनने को कहते, तो वो आपके ऊपर हंसता. अब हिप्पियों और 'हरे राम हरे कृष्ण' संप्रदाय के कारण न केवल कुर्ता-पतलून चलन बन चुका है, बल्कि कुर्ते की जगह गुरु शर्ट ने भी ले ली है. जब अमेरिकियों ने रवि शंकर का स्वागत किया, तो सितार के दिन फिर गए. उसकी कद्र होने लगी. करीब 50 साल पहले जब टैगोर को स्वीडन से नोबेल प्राइज मिला, तब जाकर वो पूरे भारत में गुरुदेव कहलाने लगे.
अब बाल और दाढ़ी बढ़ाने का चलन है. क्या ऐसे में आप किसी छात्र से सिर, मूंछ और दाढ़ी शेव करने के लिए कह सकते हैं? लेकिन कल को अगर योग के प्रभाव के कारण यूरोप के छात्र अपने सिर मुंडवाने लगें, तो मैं गारंटी देता हूं कि यहां भी अगले दिन पूरे कनॉट प्लेस में गंजी खोपड़ियां नजर आएंगी. योग जहां पैदा हुआ, वहां कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया. इसे सर्टिफिकेट दिया यूरोप ने.
एक और मिसाल दूंगा मैं आपको. मैं हिंदी फिल्मों में काम करता हूं. मगर ये बात सब जानते हैं कि इन हिंदी फिल्मों के गाने और डायलॉग्स ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं. कृष्णन चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, के ए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधयानवी, मजरूह सुल्तानपुरी और कैफी आजमी जैसे बड़े उर्दू शायरों और कवियों ने इस काम में हिस्सेदारी की है. अगर उर्दू में लिखी गई फिल्म को हिंदी फिल्म कह सकते हैं, तो ये वाजिब ही लगेगा कि हम उर्दू और हिंदी को एक जैसी भाषा मान लें. लेकिन नहीं. हमारे ब्रिटिश आकाओं ने अपने जमाने में इन्हें दो अलग-अलग भाषाओं का नाम दिया. इन्हें अलग कहा. इसीलिए आजाद होने के 25 साल बाज भी हमारी सरकार, हमारे विश्वविद्यालयों और हमारी बौद्धिक जमात ने इन दोनों भाषाओं से अलग-अलग बरता है.
पाकिस्तान रेडियो उर्दू की खूबसूरती का कत्ल करने में लगा हुआ है. वो जितने अरबी और फारसी के शब्द इसमें ठूंस सकता है, ठूंस रहा है. और हमारे यहां ऑल इंडिया रेडियो सारे अरबी-फारसी के शब्द हटाकर इसे संस्कृत के शब्दों से भर देता है. और इस तरह भाषा को बेडौल बना देता है. इस तरह वो अपने-अपने आकाओं की मर्जी पूरी करते हैं. ऐसों को अलग करते हैं, जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता है. इससे ज्यादा अजीब कुछ और हो सकता है क्या? अगर अंग्रेजों ने हमसे कहा कि सफेद काला होता है, तो क्या हम हमेशा सफेद को काला ही कहते रहेंगे? मेरे फिल्मी दुनिया के साथी जॉनी वॉकर ने एक दिन कहा, 'ऑल इंडिया रेडियो को नहीं कहना चाहिए कि अब हिंदी में समाचार सुनिए. उनको कहना चाहिए कि अब समाचार में हिंदी सुनिए.'
मैंने इस मजाकिया स्थिति पर कई हिंदी और उर्दू के लेखकों से बात की है. उनसे भी जो खुद को प्रगतिशील कहते हैं. उनसे भी, जो प्रगतिशील नहीं हैं. मैंने उन्हें कई बार राजी करने की कोशिश की. कि इस मुद्दे पर कुछ ताजा सोचें. मगर अब तक ये ऐसा ही है कि पत्थर पर सिर फोड़ रहा हूं. हम फिल्म वाले इसको पढ़े-लिखे लोगों की मूर्खता कहते हैं. क्या हम गलत कहते हैं?
आखिर में मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं. हो सकता है कि मेरी बात आपको बोर करे. फिर भी मैं कहूंगा. ये ऐसी गांठ है, जिसे आप खत्म नहीं कर सकते. ये बस आ जाती है. हो सकता है कि ये सही हो. हो सकता है गलत हो. हो सकता है कि मेरी बात गलत हो. मगर ये है. ये भी तो हो सकता है कि मेरी बात सही साबित हो जाए. कौन जानता है?
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में माना कि हमारी आजादी की लड़ाई, जिसकी बागडोर कांग्रेस के हाथों में थीं, हमेशा से ही पैसेवालों के हाथों में रही. चाहे वो पूंजीपति हों या फिर जमींदार. जाहिर सी बात है कि आजादी के बाद भी सत्ता इन्हीं वर्गों के पास रहती. आज ये बात जाहिर हो चुकी है कि पिछले 25 सालों में अमीर और अमीर हो गए हैं. गरीब और गरीब होते जा रहे हैं. पंडित नेहरू इस स्थिति को बदलना चाहते तो, मगर वो ऐसा कर नहीं पाए. मैं उन्हें दोष नहीं देता. क्योंकि उनके सामने बड़ी गंभीर चुनौतियां थीं. आज हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी समाजवाद के लक्ष्यों को हासिल करने की कसम खाती हैं. वो कितनी कामयाब होंगे, मैं नहीं कह सकता. राजनीति मेरी चीज नहीं है. फिलहाल इस बात के जिक्र का मकसद इतना ही है कि आप इस बात को मानने के लिए राजी हों कि आज के भारत में मालदार वर्ग न केवल सरकारी नौकरियों में, बल्कि समाज में भी हावी हैं.
मैं सोचता हूं कि आप इस बात पर भी राजी होंगे कि अंग्रेजों ने इस मुल्क पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल किया. अब आपको क्या लगता है? कि उनके बाद इस देश की बागडोर संभालने वाले, इस देश को चलाने वाले मौजूदा शासक अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कौन सी भाषा इस्तेमाल करेंगे? राष्ट्रभाषा हिंदी? नहीं. उनकी भी दिलचस्पी अंग्रेजी में है. बस अंग्रेजी में ही है. चूंकि उनको देशभक्ति का दिखावा भी करना होता है, इसलिए वो हिंदी के नाम पर भी काफी हो-हल्ला मचा लेते हैं. ताकि लोगों के दिमाग को मोड़ा जा सके. उन्हें गुमराह किया जा सके.
जिनके पास जायदाद है, संपत्ति है, पैसा है, वो हजारों किस्म के अलग-अलग भगवानों को मानते होंगे. मगर अपने फायदे के लिए पूजते केवल एक ही को हैं. ऐसे ही इस औद्योगिकीकरण और तकनीकी क्रांति के जमाने में पूंजीवादी वर्ग के मुनाफे के लिए अंग्रेजी को बनाए रखना समझ आता है. इसके सामाजिक फायदे भी बहुत हैं. ऐसे देखें, तो हमारे सत्ता वर्ग के लिए अंग्रेजी ईश्वर के भेजे किसी तोहफे से कम नहीं है.
क्यों? इसलिए कि अंग्रेजी भाषा इस देश की करोड़ों की आबादी की पहुंच से बाहर की जुबान है. पुराने वक्त में संस्कृत और फारसी भी आम लोगों से दूर थी. उनकी पहुंच से बाहर थी. तभी तो उस दौर में राजाओं और सुल्तानों ने इन भाषाओं को राजकीय भाषा का दर्जा दिया था. संस्कृत और फारसी के बहाने मुल्क की जनता को मूर्ख, कमतर, असभ्य महसूस कराया जाता. उन्हें महसूस कराया जाता कि वो खुद शासन करने के काबिल नहीं हैं. संस्कृत और फारसी की मदद से लोगों के दिमाग को गुलाम बनाने में मदद मिली. जब दिमाग गुलाम बन जाता है, तब गुलामी हमेशा-हमेशा के लिए पक्की हो जाती है.
अभी जो सत्ता वर्ग है, उसे अंग्रेजों से मिली सामाजिक व्यवस्था कायम रखने में अपना फायदा दिखता है. उनको बढ़त मिली हुई है. वो काफी अच्छी स्थिति में हैं. लेकिन वो इसे खुलकर मान नहीं सकते. इसी वजह से हिंदी और इसके राष्ट्रभाषा होने के दर्जे को लेकर इतना हल्ला मचाया जाता है. उन्हें बहुत अच्छे से पता है कि ये संस्कृत के शब्दों से भरी बनावटी भाषा, जिसमें कि आधुनिक विज्ञान और तकनीक के शब्द नहीं हैं, बहुक कमजोर है. ये संस्कृत की ओर झुकी हुई हिंदी भाषा अंग्रेजी के सामने कहीं ठहर नहीं सकेगी. ये हमेशा बस एक सजावटी सी चीज बनकर रह जाएगी. बल्कि ये मुल्क के लोगों को आपस में ही लड़वाने का आसान जरिया बनेगी.
हम फिल्मवालों के पास स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चों के खत आते हैं. फैन मेल्स. मेरे पास भी आते हैं. इन चिट्ठियों से मालूम चलता है कि ज्यादातर हिंदुस्तानी छात्रों के लिए ये अंग्रेजी भाषा किसी जुल्म से कम नहीं है. पढ़ने और सीखने का स्तर कितना नीचे गिर चुका है! शायद इसीलिए पब्लिक स्कूलों से पढ़कर आए लड़के-लड़कियों को तवज्जो मिलती है. ऐसे स्कूलों से, जिनमें गिने-चुने परिवारों के बच्चे ही पढ़ पाते हैं. ये ही मेरे मन की वो गांठ है, जिसका मैं अभी जिक्र कर रहा था. एक दिन मैंने इस बारे में अपने एक दोस्त से बात की. वो मेरा दोस्त एक लेबर लीडर है. मैंने उससे कहा कि हम लोग पूंजीवाद हटाकर समाजवाद लाने के लिए बहुत गंभीर है. हमें पूरे भारत में मजदूरों और कामगरों की मदद करनी चाहिए. उसी जोश और ऊर्जा से, जिसके साथ पूंजीवादी वर्ग काम कर रहा है. हमें वर्किंग क्लास को इस समाज के अंदर सबसे अहम ओहदा दिलाने में मदद देनी होगी. और ये तभी हो सकता है जब अंग्रेजी का एकाधिकार खत्म हो. इसकी जगह लोगों की जुबान को जगह मिले.
मेरे दोस्त ने ध्यान से मेरी बात सुनी. वो बहुत हद तक मेरी बातों से इत्तेफाक रखता था. उसने कहा- तुमने बहुत अच्छे से हालात को पढ़ा है. मगर ये बताओ कि इसका हल क्या है? मैंने कहा, 'इलाज ये ही है कि अंग्रेजी की स्क्रिप्ट रखो, मगर अंग्रेजी को बाहर निकाल फेंको.' मेरे दोस्त ने सवाल किया- मगर कैसे? मैंने कहा- पूरे भारत में आम लोग, खासतौर पर काम करने वाली आवाम एक किस्म की हिंदुस्तानी जुबान इस्तेमाल करती है. उनको व्याकरण वगैरह से लेना-देना नहीं होता. वो तो भाषा का व्यावहारिक इस्तेमाल करते हैं. ऐसी हिंदुस्तानी जुबान जिसमें लड़का भी जाता है और लड़की भी जाता है. इस जुबान में एक दुर्लभ किस्म की आजादी है. यहां तक कि जब बौद्धिक बिरादरी भी सुकून खोजती है, तो इसी भाषा का इस्तेमाल करती है. हिंदुस्तानी जुबान के लिए ये ही परंपरा सबसे बेहतर है. ये भाषा इसी तरह तो पैदा हुई. ऐसे ही बढ़ी. ऐसे ही इसने तरक्की की. पूरे भारत में इसे अपनाया गया. पहले के जमाने में इसे उर्दू कहा जाता था. उर्दू माने बाजारों की भाषा.
आज इस बाजारी हिंदुस्तानी में 'यूनिवर्सिटी' बदलकर 'यूनिव्रास्टी' हो जाता है. आप हिंदी के विश्वविद्यालय को देखिए. उससे तो कई गुना बेहतर है ये यूनिव्रास्टी. अंग्रेजी का लैंटर्न हिंदुस्तानी में लालटेन बन जाता है. कार का चेसिस हो जाता है चेसी. स्पैनर बदलकर पाना हो जाता है. ऐसे ही और भी शब्द हैं. सैनिक जिस तार की मदद से अपनी रायफल साफ करता है, उसको अंग्रेजी में 'पुलथ्रू' कहते हैं. रोमन हिंदुस्तानी में ये ही शब्द 'फुलत्रू' बन जाता है. कितना खूबसूरत शब्द है ये. हॉलिवुड के लाइटमैन एक खास किस्म के दोहरे ब्लेड कवर को 'बार्न डोर' कहते हैं. हमारी बंबई फिल्म इंडस्ट्री ने इसे बदलकर 'बांदर' कर दिया. कितना बेहतर शब्द है ये. इस हिंदुस्तानी जुबान में अकूत काबिलियत है. इसमें बड़ी संभावनाएं हैं. ये भाषा अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों को बड़ी आसानी से अपना बना सकती है. ये हर भाषा से शब्द लेकर उसे अपने रंग में रंग सकती है. खुद को और अमीर बना सकती है. संस्कृत की डिक्शनरी की ओर भागने की कोई जरूरत नहीं है.
मेरे ये कहने पर मेरे दोस्त ने पूछा, 'मगर स्क्रिप्ट क्यों हो रोमन में?' मैंने जवाब दिया- क्योंकि रोमन के खिलाफ किसी का कोई पूर्वाग्रह नहीं है. ये इकलौती लिपि है, जिसे पूरे भारत के लोग जानते हैं. उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम, हर कोने के लोग जानते हैं. आपको दुकानों के बाहर इसी भाषा में लिखा बोर्ड दिखेगा. सिनेमा के पोस्टरों की ये ही भाषा है. हम लिफाफे के ऊपर पता लिखते समय ये लिपि इस्तेमाल करते हैं. पोस्टकार्ड पर इसी में लिखते हैं. पिछले करीब 30 सालों से सेना भी इसी का इस्तेमाल कर रही है.
मेरा वो दोस्त कुछ देर तक चुप रहा. फिर थोड़ा मुस्कुराया और बोला- कॉमरेड, यूरोप ने भी ऐस्परांतो के साथ प्रयोग किया था. जॉर्ज बनार्ड शॉ जैसे महान बौद्धिक ने बुनियादी अंग्रेजी को लोकप्रिय बनाने की बड़ी कोशिश की. मगर उनकी सारी कोशिशें नाकामयाब रहीं. ऐसा इसलिए कि भाषाएं मशीनी तौर पर नहीं बढ़तीं. वो अपने आप पैर पसारती हैं.
इस जवाब ने मुझे सन्न कर दिया. मैंने कहा- कॉमरेड, ऐस्परांतो वो ही राष्ट्रभाषा है जिसे हिंदी के पंडित गढ़ रहे हैं. अपने लेखों में. किसी संस्कृत डिक्शनरी के पन्नों से लेकर. मैं तो उस भाषा की बात कर रहा हूं जो तुम्हारे चारों ओर बढ़ रही है. वो भाषा, जो लोगों के बीच उनके काम और उनकी सोच में जगह पाती है.
मगर मेरी बातों से वो राब्ता नहीं बना पाया. मैं तर्क देता रहा. मैंने ये भी कहा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और खुद नेहरू भी रोमन हिंदुस्तानी इस्तेमाल करने के हिमायती थे. मगर मेरा दोस्त राजी नहीं हुआ. अब सवाल ये है कि मैं सही था या मेरा दोस्त. शायद मैं गलत था. शायद मेरी सोच ख्याली है. मशीनी है. जैसा कि उसने कहा भी. मैंने तो पहले ही कह दिया था आपसे. कि गांठ सही है या गलत, ये आप तय ही नहीं कर सकते. मगर इस गांठ के होने में ही तो मजा है. क्योंकि ये गांठ होना आपकी खुली सोच दिखाता है. दिखाता है कि आप आजादी से सोच सकते हैं. मेरे दोस्त को कम से कम इस बात की तारीफ तो करनी ही चाहिए थी. मगर उसने इसपर गौर नहीं किया. क्योंकि अपनी एक ढर्रे पर चली आ रही सोच, अपने सोचने की आदत से अलग होकर कुछ नया सोच पाना उसके लिए बहुत मुश्किल रहा होगा.
कोई भी देश तब तक तरक्की नहीं कर सकता, जब तक कि वो खुद के होने को लेकर गंभीर न हो. अपनी हस्ती को लेकर उसकी आंखें खुली हों. अपने दिमाग और अपने शरीर को लेकर वो सचेत हो. अपनी मांसपेशियों को मजबूत करने का अभ्यास उसे खुद ही सीखना होता है. उसे अपनी दिक्कतों की पहचान खुद करनी होती है. उन दिक्कतों को अपने तरीके से सुलझाना सीखना होता है. मगर मैं चाहे जिस भी ओर मुड़ जाऊं, वो भी तब जब कि हमें आजाद हुए 25 साल हो चुके हैं, मुझे ये ही दिखता है कि हम उस चिड़िया की मानिंद हैं जिसे बहुत लंबे वक्त तक पिंजड़े में रखने के बाद रिहा कर दिया गया है. बेचारे पंछी को मालूम ही नहीं कि आजाद होकर क्या किया जाए. उसके पास पंख हैं, मगर वो खुले आसमान में उड़ान भरने से डर रहा है. वो कैद ही रहना चाहता है. वो पिंजड़े में ही रहना चाहता है.
निजी और जमा तौर पर हम वॉल्टर मिटी जैसे हैं. हमारे अंदर की जिंदगी हमारे बाहर की जिंदगी से अलग है. हमारी सोच और हमारे काम एकदम अलग-अलग दिशा में हैं. हम इस स्थिति को बदलना तो चाहते हैं, मगर हम कुछ भी नया करने से डरते हैं. इतने लंबे समय से हम जो करते आ रहे थे, उससे हटकर कुछ करने का हमारे अंदर साहस ही नहीं है.
मुझे यकीन है कि इस देश में कुछ पुलिस अफसर ऐसे भी होंगे जो कि अपने दिल में लोगों के दोस्त बनना चाहते होंगे. न कि दुश्मन. उन्हें मालूम होगा कि इंग्लैंड में जनता के प्रति पुलिस का रवैया नर्म है. मगर अंग्रेजों ने यहां की पुलिस को वैसी ट्रेनिंग नहीं दी. उन्होंने जिन देशों को गुलाम बनाकर रखा, वहां अलग ही कहानी थी. हिंदुस्तान की पुलिस को जो ट्रेनिंग मिली है, उसके आगे वो मजबूर हैं. ये अंग्रेजों का ही सिखाया हुआ है जिसकी वजह से पुलिसवाले अपने दफ्तर में घुसने वाले लोगों के अंदर अपना आतंक भर देते हैं. वो जितना हो सके, उतना काम रोकने की कोशिश करते हैं. जितना हो सके, उतना गैर-मददगार होने की जुगत लगाते हैं. ये ही परंपरा बाकी सरकारी दफ्तरों में भी है. चपरासी से लेकर मंत्री तक, सबका ये ही हाल है.
हमारे एक युवा प्रोड्यूसर ने एक फिल्म बनाई. फिल्म क्या थी, एक नए किस्म का प्रयोग था. उसने सरकार से बात की. ताकि उसकी फिल्म को टैक्स में छूट मिल जाए. जिस मंत्रालय का ये काम था, उसमें अगले ही दिन नए मंत्री का शपथग्रहण होना था. मंत्री ने प्रोड्यूसर को न्योता भेजकर कार्यक्रम में बुलाया. इस कार्यक्रम के बाद ही दोनों के बीच फिल्म को टैक्स फ्री करने को लेकर बात होनी थी. प्रोड्यूसर बड़ा खुश था. मंत्री ने जिस सहजता से उसके साथ व्यवहार किया, इससे वो बड़ा प्रभावित हुआ. जब मंत्री पद की शपथ लेते हुए कह रहा था कि किस तरह वो ईमानदारी से लोगों की सेवा करेगा, ठीक उसी समय मंत्री का सेक्रटरी उस प्रोड्यूसर को समझा रहा था कि टैक्स छूट के लिए मंत्री और उसके साथियों को कितने की रिश्वत देनी होगी.
इस बात से वो प्रोड्यूसर इतना नाराज हुआ कि वो ये वाकया बतौर एक सीन अपनी फिल्म में डालना चाहता था. मगर उसके फाइनेंशर पहले ही नुकसान झेल चुके थे. उन्होंने प्रोड्यूसर से कहा कि कुछ भी ऐसा-वैसा मत करो. मान लो कि अगर उस प्रोड्यूसर ने फिल्म में ये सीन डलवा भी दिया होता, तो सेंसर बोर्ड फिल्म को पास नहीं करती. क्योंकि इस देश में एक अलिखित कानून चलता है. ये कि पुलिसवाले और मंत्री कभी भ्रष्ट नहीं होते.
एक और चीज है जो मुझे बेहद मजेदार लगती है. जो लोग रोजाना ऐसे मंत्रियों के खिलाफ चिल्लाते हैं, वो खुद भी बिना किसी मंत्री को बुलाए कोई कार्यक्रम नहीं निपटाते. मंत्री आकर उद्घाटन करेगा. मंत्री आकर कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगा. या फिर मुख्य अतिथि होगा. कभी-कभी ऐसा होता कि मंत्री चीफ गेस्ट है और फिल्म स्टार अध्यक्ष है. कभी फिल्म स्टार मुख्य अतिथि है और मंत्री अध्यक्ष है. किसी न किसी नामचीन हस्ती का मौजूद होना जरूरी है. ठीक उसी तरह, जैसे साम्राज्यवादी परंपरा में हुआ करता था.
पिछली लड़ाई के समय मैंने इंग्लैंड में चार साल गुजारे. मैं बीबीसी में हिंदुस्तानी अनाउंसर का काम करता था. वो चार साल बहुत मुश्किल थे. इस दौरान मैंने कभी भी ब्रिटिश कैबिनेट के एक सदस्य तक को वहां नहीं देखा. मगर जब से भारत को आजादी मिली है, मुझे नेताओं और मंत्रियों के अलावा हिंदुस्तान में कोई और नजर नहीं आता. हर जगह ये ही ये हैं. 1930 में जब गांधी जी गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने गए, तो उन्होंने ब्रिटिश पत्रकारों से कहा कि भारत के लोग अंग्रेजी हुकूमत के बंदूकों और गोलियों को वैसा ही समझते हैं जैसा दीवाली के दिन बच्चे पटाखों को समझते हैं. गांधी जी ये बात इसलिए कह पाए कि उन्होंने हिंदुस्तानियों के दिमाग से अंग्रेजों का डर निकाल फेंका था. गांधी जी ने सिखाया कि अंग्रेज अफसरों के आगे सिर न झुकाएं, बल्कि उन्हें नजरंदाज करें. उनका बहिष्कार करें.
ठीक इसी तरह अगर हम अपने देश में समाजवाद चाहते हैं, तो हमें लोगों के दिमाग से पैसा, पद और सत्ता के डर को निकालना होगा. क्या हम इसके लिए कुछ कर रहे हैं? मौजूदा समय में हमारे समाज के अंदर किसकी ज्यादा इज्जत होती है? उसकी जिसके पास प्रतिभा है या उसकी जिसके पास पैसा है? ऐसी स्थिति में क्या हम कभी समाजवाद लाने के बारे में सोच सकते हैं? समाजवाद आए, इससे पहले हमें एक खास तरह का माहौल पैदा करना होगा. जहां अकूत पैसा जमा करने वाले इंसान को सम्मान की नजर से न देखा जाए. हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां श्रम करने वाले की सबसे ज्यादा इज्जत होगी. फिर चाहे वो शारीरिक श्रम हो या दिमाग से की गई मेहनत. जहां प्रतिभा की, कौशल की, कला की कद्र होगी. ऐसा माहौल बनाने के लिए हमें नई सोच चाहिए. वो हिम्मत चाहिए, जिसके बूते हम सोचने के पुराने तरीकों को दूर हटा सकें. क्या हम इस क्रांति को मुमकिन कर पाने की स्थिति में हैं?
आज की तारीख में शायद हमें एक मसीहा की जरूरत है. ऐसा मसीहा, जो हमें हिम्मत दे. ऐसा संस्कार दे, जो एक आजाद मुल्क के बाशिंदों में होना चाहिए. ताकि हम सबके अंदर वो हिम्मत पैदा हो कि हम अपनी तकदीर उन लोगों के साथ जोड़ सकें जिनके ऊपर शासन किया जा रहा है. यानी जनता. न कि उनके साथ, जो शासन कर रहे हैं. हमें शोषितों के लिए महसूस हो, न कि हम शोषकों जैसी सोच से हमदर्दी रखें.
पंजाब के एक महान संत गुरु अर्जुन देव ने कहा था:
जन की तेहल सनभाखन जन सियो उठ्ठन बैठन जन के संगा जन चार रज मुख माथाई लागी आसा पुरान अनंत थरांगा(माने: मैं तो ऊपरवाले के बंदों की सेवा करता हूं. मैं उनके साथ बोलता हूं. मैं उनके साथ होता हूं. मैं उनके पांवों की धूल को अपने चेहरे और माथे से लगाता हूं. मेरी उम्मीदें और मेरी इच्छाएं, सब इसमें ही पूरी हो जाती हैं.)
मैं उम्मीद करता हूं और प्रार्थना करता हूं कि जवाहरलाल यूनिवर्सिटी के स्नातक वैसी कामयाबी हासिल करें, जैसी मैंने और मेरी पीढ़ी के बाकियों ने हासिल नहीं की. हम जहां नाकामयाब हुए, वहां उन्हें कामयाबी मिले.
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