The Lallantop

बिहार पॉलिटिक्स : बड़े भाई को बम लगा, तो छोटा भाई बम-बम हो गया

कैसे एक हत्याकांड ने बिहार मुख्यमंत्री का करियर ख़त्म कर दिया?

post-main-image
कैसे एक हत्याकांड को ढांपने के चक्कर में बिहार में कांग्रेस का राज ख़त्म हो गया?
जगन्नाथ मिश्रा. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री. तीन बार बिहार की सत्ता हाथ में रही. और 19 अगस्त, 2019 को लंबी बीमारी के बाद दिल्ली में उनका निधन हो गया.
एक समय था जब बिहार में सोशलिस्ट राजनीति अपनी जड़ें जमाना चाह रही थी, लेकिन सामने थी कांग्रेस. जिसने बिहार पर बहुत लम्बे समय तक राज किया था, कई-कई मौकों पर. और लालू यादव और नीतिश कुमार का मेयार बुलंद होने के पहले बिहार ने जगन्नाथ मिश्रा जैसे नेता को देखा था. लेकिन कौन थे जगन्नाथ मिश्रा?
जगन्नाथ मिश्रा पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने साल 1975 में. उसके बाद साल 1980 में. और आखिर में साल 1989 में. कुल जमा तीन बार. लेकिन राजनीति में आने के पहले जगन्नाथ मिश्रा का राजनीति से बहुत लेना-देना नहीं था. पहले थे प्रोफ़ेसर. अर्थशास्त्र के. बिहार विश्वविद्यालय में. राजनीति में रुचि भर ही थी. लेकिन 1971 में सीपीआई के गढ़ मधुबनी से सांसद चुने गए. कांग्रेस के टिकट पर.
ललित नारायण मिश्रा
ललित नारायण मिश्रा

रुचि का कारण? उम्र में 15 साल बड़े भाई ललित नारायण मिश्र. कांग्रेस के नेता थे. नेहरू-गांधी परिवार के करीबी थे. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में रेलमंत्री थे. 70-80 के दशक में कांग्रेस आलाकमान के पास दो ही नेता थे, ललित नारायण मिश्र और कमलापति त्रिपाठी. दोनों ब्राह्मण. एक ने बिहार में कांग्रेस को मजबूत किया तो कमलापति त्रिपाठी ने यूपी - खासकर पूर्वांचल - में कांग्रेस के लिए काम किया. इतना काम कि बनारस के चौराहे पर कमलापति त्रिपाठी की मूर्ति लग गयी, और उनके पड़पोते ललितेशपति त्रिपाठी को विधायकी का चुनाव हारने के बावजूद सांसदी का टिकट दिया गया. फिर भी हार गए.
ललित नारायण पर आते हैं. रेलमंत्री रहे 1973-75 तक. बिहार के बड़े नेताओं में उनकी गिनती होती थी. बिहार में इंदिरा गांधी और कांग्रेस को बुलंद करने का बीड़ा उठाया तो अंजाम दिया. रेलमंत्री रहते हुए आए समस्तीपुर. 2 जवनरी 1975 का दिन. मौक़ा था समस्तीपुर-मुज़फ्फरपुर बड़ी लाइन के उद्घाटन का. मंच पर ही बम धमाका हुआ और ललित नारायण मिश्र भयानक रूप से घायल हुए. उन्हें दानापुर लेकर आया गया इलाज के लिए, लेकिन अगले ही दिन ललित नारायण मिश्र की मौत हो गयी.
नेहरू के साथ ललित नारायण मिश्रा
नेहरू के साथ ललित नारायण मिश्रा

ललित नारायण मिश्र की मौत की जांच शुरू होने के पहले ही मामला उठा कि उनकी हत्या अमरीकी खुफिया एजेंसी CIA का हाथ है. ये वो समय था जब लगभग दक्षिणी एशिया के अधिकतर देश अमरीका और रूस के बीच की खींचतान से परेशान थे. CIA के सामने थी रूसी एजेंसी KGB. कहा जा रहा था कि दो महाशक्तियों के बीच "तीसरी दुनिया" के देशों को अपने पाले में करने की होड़ मची थी. ऐसे में एक किताब मित्रोखिन आर्काइव के हवाले से ये बात सामने आई कि ललित नारायण मिश्रा और इंदिरा गांधी ने KGB से घूस ली थी, और इस वजह से CIA ने ललित नारायण मिश्रा को मरवा दिया.
लेकिन आता है साल 2014. ललित नारायण की मौत के बाद 39 साल बाद दिल्ली की अदालत से फैसला आया कि किसी CIA ने नहीं, बल्कि आनंदमार्गियों ने ललित नारायण मिश्र की हत्या को अंजाम दिया था. कारण? क्योंकि वे अपने एक सहयोगी को जेल से रिहा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाना चाहते थे. लेकिन केस की शुरुआती जांच में इतनी भारी गड़बड़ियां हो चुकी थी कि अदालत का फैसला आने के बाद ललित नारायण मिश्रा के परिवार ने कहा कि वे फैसले से संतुष्ट नहीं हैं.
लेकिन ललित नारायण मिश्रा की मौत पर जब बहस हो रही थी, तब दृश्य में एक नया नेता आ गया था. नाम जगन्नाथ मिश्रा. ललित नारायण के छोटे भाई. चूंकि बतौर कांग्रेस नेता और रेलमंत्री ललित नारायण पर बहुतेरे आरोप लगे थे, तो उनकी मौत के बाद कांग्रेस ने उनके भाई जगन्नाथ मिश्रा की ओर नज़रें घुमायीं. बिहार कॉलेज में प्राध्यापक पद से निकलकर जगन्नाथ मिश्रा 1975 में सीधे बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन सिर्फ सहानुभूति ही एक मौक़ा नहीं था. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सीताराम केशरी की पहली पसंद थे क्योंकि तेवर तल्ख़ थे. साथ ही साथ, ललित नारायण मिश्रा की उतनी पूछ नहीं थी, न उतनी पहचान बची थी. रेलमंत्री रहते हुए रेल आन्दोलन को रोक नहीं पाए, जिसको 1974 में तब समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस लीड कर रहे थे.
जगन्नाथ मिश्रा, जो बिहार का तीन बार मुख्यमंत्री बने.
जगन्नाथ मिश्र, जो बिहार के तीन बार मुख्यमंत्री बने.

बिहार के पत्रकार बताते हैं कि कांग्रेस जगन्नाथ मिश्र को इस तरीके से लेकर आई थी कि वो उन्हें नियंत्रण में ले सके. लेकिन जगन्नाथ मिश्रा कांग्रेस के हत्थे से बाहर साबित हुए. कांग्रेस तो मजबूत हुई, लेकिन भाई की मौत की सहानुभूति का अभूतपूर्व सहारा जगन्नाथ मिश्रा को मिला. धीरे-धीरे लोगों से उनका जुड़ाव बढ़ता गया और उन्हें "ज़मीन का नेता" मार्का कहावत से जोड़ा गया. लेकिन इस मजबूत नेता को राजीव गांधी का साथ और भरोसा नहीं मिल सका. कभी नहीं पटी, लेकिन कांग्रेस के बड़े नेताओं के करीब रहे. कांग्रेस के भीतर जगन्नाथ मिश्रा को पसंद करने वाला एक गुट था. और इसके आधार पर जगन्नाथ मिश्र कांग्रेस में पक्का बने रहे. कहा गया कि ललित नारायण उतनी बढ़िया पकड़ नहीं बना पाए, जितनी उनके भाई जगन्नाथ मिश्रा ने बना ली. कांग्रेस पार्टी के "फॉरवर्ड ब्लॉक" का हिस्सा रहे. ब्राह्मणों के बीच खासे मशहूर. मिथिला के इलाक़ों में बहुत मशहूर.
जगन्नाथ मिश्रा, जिन पर बिहार के सबसे बड़े हत्याकांड को ढांपने का आरोप लगा
जगन्नाथ मिश्रा, जिन पर बिहार के सबसे बड़े हत्याकांड को ढांपने का आरोप लगा

लेकिन मैथिल ब्राह्मणों के साथ-साथ जिस दूसरे सबसे बड़े समूह का जगन्नाथ मिश्रा को मिला, वो था मुस्लिमों का साथ. ऐसा साथ कि उन्हें "मौलाना" जगन्नाथ मिश्रा कहा जाने लगा. क्यों? क्योंकि साल 1980 में जगन्नाथ मिश्रा ने उर्दू भाषा को बिहार राज्य की दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया. लोग बताते हैं कि किसी भी जिले जाते थे तो कांग्रेस के मुस्लिम काडर के यहां ही रुकते-खाते थे. ऐसे तो मीडिया में भी मामला बुलंद रहा.
आ गया बिहार प्रेस बिल 
लेकिन ये बुलंदी बहुत दिनों तक मजबूती से टिक नहीं सकी. क्योंकि जगन्नाथ मिश्रा लेकर आए बिहार प्रेस बिल. साल था 1982. बिहार प्रेस बिल आया तो इस मकसद से कि मीडिया ब्लैकमेल करने की नीयत से, या ऐसी खबरें जो उपयुक्त न हों या वो खबरें जो किसी की छवि को नुकसान पहुंचाती हों, लिखी, छापी और बांटी न जा सकें. जब ये बिल आया तो कहा गया कि बिहार में इस बिल को लागू करने में इंदिरा गांधी का समर्थन था क्योंकि कुछ ही सालों पहले देश से इमरजेंसी हटायी गयी थी. और इमरजेंसी का भी अखबारों ने जमकर विरोध किया था.
मनमोहन सिंह के साथ जगन्नाथ मिश्रा
मनमोहन सिंह के साथ जगन्नाथ मिश्रा

इस बिल के बारे में जगन्नाथ मिश्रा ने मीडिया से बातचीत में कहा कि फ्री मीडिया लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है, लेकिन पत्रकारों और मीडिया संस्थानों का काम है कि वे सरकार की छवि को प्रगाढ़ रखने का प्रयास करें. मामला इंदिरा गांधी के पास गया. इंदिरा गांधी ने लखनऊ में अधिवेशन में बात करते हुए कहा कि उन्होंने बिल पढ़ा नहीं है, लेकिन सरकार के वकीलों से बात करते हुए उन्हें मालूम चला है कि बिल में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे प्रेस के अधिकार ख़त्म होते हों. लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि सरकार लोकतंत्र के किसी भी हिस्से का इस्तेमाल सरकार या किसी व्यक्ति के चरित्र हनन के लिए नहीं होने दे सकती है, ये भी सरकार का काम है.
इस बिल का इतना विरोध हुआ कि सरकार को विधानसभा में बिल वापिस लेना पड़ा. बहुत बाद, साल 2017 में एक अखबार से बातचीत में जगन्नाथ मिश्र ने कहा कि उन्हें बिहार प्रेस बिल लेकर नहीं आना चाहिए था. कहा गया कि उस समय इंदिरा गांधी और मेनका गांधी में खींचतान चल रही थी और इसे ही अखबारों में आने से बचाने के लिए ये बिल लाया गया था, लेकिन प्रेस बिल का मलाल जगन्नाथ मिश्रा ने खुलकर ज़ाहिर किया था.
लेकिन साथ मिला, फिर भी विरोध किया इंदिरा का 
और कुर्सी चली गयी. हां. इंदिरा गांधी की मिनरल पालिसी आई थी. इसके विरोध में जगन्नाथ मिश्रा ने बिहार विधानसभा में दो घंटों तक भाषण दिया. इंदिरा गांधी को ये पसंद नहीं आया. महज़ तीन हफ़्तों के भीतर जगन्नाथ मिश्रा से मुख्यमंत्री का पद छीन लिया गया. बाद में भागलपुर दंगों के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा की भूमिका पर सवाल उठे, तो फिर से जगन्नाथ मिश्रा को लेकर आया गया.
चारा घोटाला में आया नाम
बिहार चारा घोटाला में लालू यादव का नाम लपककर लिया जाता है, लेकिन लालू यादव के साथ जिस नेता का नाम बेहद शिद्दत से लिया जाता है, वो है जगन्नाथ मिश्रा का नाम. और नाम ही क्या, बाकायदे अदालत से सजा हो गयी. 2013 में रांची की सीबीआई कोर्ट ने जगन्नाथ मिश्रा समेत 44 लोगों को सज़ा सुनाई. जगन्नाथ मिश्रा को चार साल की जेल और 2 लाख रुपयों का जुर्माना भरने को कहा गया. लेकिन झारखंड हाईकोर्ट ने जगन्नाथ मिश्रा को ज़मानत दे दी.
लालू यादव के साथ जगन्नाथ मिश्रा
लालू यादव के साथ जगन्नाथ मिश्रा

फिर जगन्नाथ मिश्रा के हवाले से अखबारों में खबरें छपीं. खबरें ये कि जगन्नाथ मिश्रा ने कहा कि चारा घोटाले में लालू यादव का नाम पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के कहने पर शामिल किया गया, और खुद जगन्नाथ मिश्रा का नाम तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केशरी के कहने पर.
कांग्रेस नेता को बचाने के लिए बॉबी हत्याकांड को दबाने का आरोप लगा 
बिहार सचिवालय में टाइपिस्ट थी, जिसका नाम था बॉबी. बॉबी उर्फ़ श्वेतनिशा त्रिवेदी. विधानपरिषद् की सभापति और कांग्रेस नेता राजेश्वरी सरोज दास की गोद ली हुई बेटी. 1980. एक दिन अचानक बॉबी की लाश पायी गयी. उसकी मौत बेहद संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी. पटना के सरकारी आवास में. मामले को छिपाने के लिए लाश को दफना दिया गया. डॉक्टरों ने दो रिपोर्टें लगा दीं. एक रिपोर्ट में कहा गया कि बहुत खून बहने से बॉबी की मौत हुई, और एक रिपोर्ट ने कहा कि दिल की धड़कन बंद होने से.
बॉबी उर्फ़ श्वेतनिशा त्रिवेदी
बॉबी उर्फ़ श्वेतनिशा त्रिवेदी

एसएसपी किशोर कुणाल ने जांच शुरू की. लाश निकाली गयी. विसरा जांच हुई. और पता चला कि बॉबी की मौत ज़हर खाने से हुई थी. छानबीन बढ़ी तो एक कांग्रेस नेता का नाम सामने आना शुरू हुआ. तभी मामला सीबीआई के पास चला गया और फिर से जांच हुई. कहा जाता है कि बॉबी की मौत हत्या से हुई थी, लेकिन जगन्नाथ मिश्र के इशारों पर सीबीआई ने हत्या को आत्महत्या में तब्दील कर दिया. और तब से लेकर अब तक इस मामले के असल अभियुक्त का नाम सामने नहीं आ सका है.
और जगन्नाथ मिश्रा का नाम ऐसे नेता के तौर पर अब भी दर्ज है, जो बिहार में कांग्रेस का आखिरी मुख्यमंत्री था. और इसके बाद दृश्य में तमाम सोशलिस्ट नेता और नया डायलाग कि कांग्रेस समर्थन के लिए फिरती रहेगी. क्योंकि सामने था मंडल कमीशन, नया जातीय समीकरण, जनता दल, वीपी सिंह और लालू प्रसाद यादव.


पॉलिटिकल किस्से : नरेंद्र मोदी ने भारत रत्न से पहले प्रणब मुखर्जी से क्या अफसोस जताया?