‘बेतार संचार’ यानी स्मार्टफोन हाथ में लिए हम सोचते हैं कि हमारे फोन में जो Internet चल रहा है वो ‘ऊपर वाले की नेमत’ है. ऊपर वाले मतलब Satellite की. मोबाइल टॉवर की. हवा में कहीं से Network आता है और फोन में फटाफट Web Page खुलने लगते हैं. वीडियो चलने लगता है. फोटो Download हो जाता है. Facebook, WhatsApp, X और Tick Tok के दरवाजे धड़-धड़ खुलने लगते हैं. लेकिन कितने लोगों को पता है कि दुनिया में 99 फीसदी इंटरनेट समंदर के रास्ते से होकर आता है? वो भी तारों के जरिए.
समंदर के नीचे बिछी इंटरनेट वाली तारों का मालिक कौन है?
दुनिया भर में इंटरनेट पहुंचाने के लिए समंदर के नीचे 14 लाख किलोमीटर लंबे टेलीकम्युनिकेशन केबल बिछे हैं. अगर इन्हें एक लाइन में जोड़ दिया जाए तो यह सूरज के डायमीटर के बराबर हो जाएंगे.


चौंकाने वाली बात है न ये? बहुत से लोगों को ये बात तब पहली बार पता चली, जब लाल सागर (Red Sea) के नीचे केबल कट (Cable Cut) से मिडिल ईस्ट समेत कई देशों में इंटरनेट ठप्प पड़ गया. केबल किसने काटा ये तो नहीं पता चला लेकिन बहुत से अनजान लोग जान गए कि आसमान से नहीं बल्कि समंदर के नीचे से आता है इंटरनेट. दुनिया के कोने-कोने तक जिसका ‘वर्ल्ड वाइड’ जाल फैला हुआ है, वह मोटे-मोटे तारों के जरिए हम तक पहुंचता है.
कैसे होता है ये सब. तार समंदर में कौन बिछाता है? कैसे बिछाता है? कौन इसे बिछाने के पैसे देता है? व्हेल, शार्क छोड़िए. विशालकाय शिप और मछुआरों के जाल-जंजाल से ये बचता कैसे है? और पूरी दुनिया में अगर इंटरनेट पहुंचा हुआ है तो कितना लंबा तार इसके लिए लगा होगा, चलिए आज इन्हीं सब सवालों के जवाब जानते हैं.
समंदर के नीचे केबल बिछाकर दुनिया में इंटरनेट क्रांति लाने की कहानी शुरू होती है, 19वीं सदी से. 1830 में पेशे से चित्रकार एफबी मोर्स नाम के व्यक्ति की परिकल्पना थी कि बिजली से चलने वाला एक टेलीग्राफ बनाया जाए, जिसके जरिए दूर तक संचार हो सके. उन्होंने इस पर जमकर काम किया और 1830 के दशक में वह सफल हुए, जिसके बाद साल 1844 में उन्होंने अमेरिका की पहली कॉमर्शियल टेलीग्राफ लाइन शुरू की. वॉशिंगटन से बाल्टीमोर तक उन्होंने इसके जरिए पहला संदेश भेजा- ‘What hath God wrought’ यानी ‘ईश्वर ने क्या रचा है’.
मौर्स के अलावा साइरस वेस्टफील्ड नाम के एक अमेरिकन कारोबारी थे. साल 1854 में उनके दिमाग में ये आइडिया आया कि क्यों न टेलीग्राफ की लाइन अटलांटिक महासागर के नीचे बिछाई जाए ताकि ट्रांस अटलांटिक संचार को संभव बनाया जा सके. उन्होंने इसके लिए ब्रिटेन और अमेरिका की नौसेना से मदद ली और 1857 से अपनी कोशिशें शुरू कर दीं. वह 4 बार फेल हुए लेकिन हार नहीं मानी. आखिरकार जुलाई 1858 में उनकी 5वीं कोशिश कामयाब हो गई.
कुल चार शिप Agamemnon, Valorous, Niagara, और Gorgon की मदद से उन्होंने तकरीबन 2 हजार मील लंबी केबल समंदर के नीचे बिछा दीं. कई जगहों पर ये तारें समुद्र की सतह से दो मील नीचे तक गई थीं. इसके बाद 16 अगस्त 1858 का वह दिन भी आया, जब अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स बुकानन और ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया ने इन केबल्स के जरिए पहली बार संचार किया. दोनों ने पहले संदेश के तौर पर एक दूसरे को औपचारिक शुभकामनाएं भेजीं. इस संदेश को पहुंचने में 16 दिन लग गए थे. हालांकि, इसके कुछ ही हफ्तों बाद तार कमजोर साबित हुआ और करंट पर्याप्त न होने की वजह से सितंबर 1858 की शुरुआत तक यह लाइन बंद हो गई.
लेकिन वेस्टफील्ड यहीं रुकने वाले नहीं थे. उन्होंने फिर से पैसे जुटाए और नए इंतजाम किए. साल 1866 में ब्रिटेन के जहाज Great Eastern ने आखिरकार पहली स्थायी टेलीग्राफ लाइन अटलांटिक के पार तक बिछा दी. इस महान योगदान की वजह से साइरस वेस्टफील्ड को दोनों तरफ अमेरिका और ब्रिटेन में बहुत सम्मान मिला, क्योंकि उन्होंने वह काम कर दिखाया जिसे लोग असंभव मानते थे. बाद में उन्होंने और भी समुद्री टेलीग्राफ लाइनें लगवाने में मदद की, जिनमें हवाई से लेकर एशिया और ऑस्ट्रेलिया तक की लाइनें शामिल थीं.
ये तो सिर्फ शुरुआत भर थी. इसके बाद दुनिया भर में समंदर के नीचे से तमाम तारें गुजरीं और इन तारों ने पूरी दुनिया में इंटरनेट की क्रांति ला दी. बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में इंटरनेट पहुंचाने के लिए समंदर के नीचे 14 लाख किलोमीटर लंबे टेलीकम्युनिकेशन केबल बिछे हैं. अगर इन्हें एक लाइन में जोड़ दिया जाए तो यह सूरज के डायमीटर के बराबर हो जाएंगे. इन केबल्स के जरिए ही दुनिया भर का 99 फीसदी इंटरनेट आता है.
कैसे बनती हैं ये केबल्स?सवाल है कि इन केबल्स में खास क्या है? ये बाकी तारों से अलग कैसे हैं, जिन्हें हम रोजाना देखते हैं? जवाब है कि इंटरनेट वाली ये केबल्स एक विशेष तकनीकी के तहत बनाई जाती हैं और इसे बनाना थोड़ा मुश्किल काम है. ये तारें फाइबर ऑप्टिक्स की तकनीक पर काम करती हैं और प्रकाश की गति से डेटा के संचार में बड़ी भूमिका निभाती हैं. सबसे पहले केबल के अंदर बहुत बारीक कांच के तार (फाइबर) डाले जाते हैं, जिनमें लेजर की रोशनी से डेटा लगभग रोशनी की रफ्तार से दौड़ता है. फिर उसके ऊपर कॉपर (तांबा), प्लास्टिक और स्टील की परत चढ़ाई जाती है ताकि बिजली भी जा सके और समुद्र के दबाव, चट्टानों और मछली पकड़ने वाली बड़े-बड़े जालों से केबल सेफ रहे. सारा सिस्टम तैयार होने के बाद केबल की मोटाई गार्डेन में पानी देने वाले पाइप के लगभग बराबर हो जाती है.
समंदर में कैसे बिछाते हैंअब एक बड़ा टास्क है, इन तारों को समंदर के पानी में बिछाना. Global Marine Group से जुड़ी और समुद्र में केबल बिछाने में अहम भूमिका निभाने वाली OceanIQ के मुताबिक, सागर के नीचे केबल बिछाने का ये प्रॉसेस कई चरणों में होता है. जैसे रास्ते की योजना बनाना, समुद्र का सर्वे करना, परमिट लेना, केबल सिस्टम का डिजाइन बनाना, केबल तैयार करना, समुद्र में बिछाना और अंत में उसे चालू करना.
इसके लिए सबसे पहले केबल को एक जहाज पर चढ़ाया जाता है. इस पर एक बड़े ड्रम पर केबल को लपेट दिया जाता है, जिससे इंस्टॉलेशन के समय इसे धीरे-धीरे निकाला जा सके. अब जहाज केबल बिछाने के लिए निकलता है और एक पहले से तय किए गए रास्ते पर चलता जाता है. इसी दौरान वह धीरे-धीरे समुद्र की सतह पर तार छोड़ता जाता है. जहाज पर एक स्लाइड जैसी पाइप होती है, जिसके जरिए केबल समुद्र की सतह पर सही जगह पहुंचती रहती है. केबल बिछ जाने के बाद Remote Operated Vehicle (ROV) यानी रिमोट से चलने वाली मशीन समुद्र की सतह पर जाकर जांच करती है कि केबल सही ढंग से बिछाई और दबाई गई है या नहीं.
किसकी मिल्कियत है केबलदुनिया भर में लाखों किलोमीटर तार बिछे हैं. आखिर इन तारों को बिछाने का जिम्मा किसके सिर पर है? ये किसकी मल्कियत होते हैं? कौन इनके मालिक होते हैं, जो इससे होने वाली कमाई का फायदा उठाते हैं? टेलीजियोग्राफी के मुताबिक, पहले समुद्र के नीचे की केबल्स ज्यादातर टेलीकॉम कंपनियों की होती थीं. कई टेलीकॉम कंपनियां मिलकर एक कंसोर्टियम बनाती थीं और जो भी पार्टी उस केबल का इस्तेमाल करना चाहती थी, उसे शामिल कर लेती थीं लेकिन 1990 के दशक के अंत में यह कारोबार बदल गया. खेल में कई नई निजी (private) कंपनियां सामने आईं और उन्होंने खुद बहुत-सी प्राइवेट केबल्स समुद्र में बिछा दीं.
आज भी ये दोनों मॉडल मार्केट में हैं. यानी कंसोर्टियम और प्राइवेट केबल दोनों ही मॉडलों से समंदर के नीचे केबल्स बिछाई जा रही हैं. जमाना थोड़ा और आगे बढ़ा तो कारोबार में और पार्टियां शामिल हुईं. Google, Meta, Microsoft, Amazon जैसी content provider कंपनियां भी समुद्री केबल में बड़ी इन्वेस्टर्स बन चुकी हैं.
डिप्लो फाउंडेशन के निदेशक यूवान कुर्बाल्या बीबीसी को बताते हैं कि
दुनिया भर के केबल्स की मिल्कियत तमाम कंपनियों के हाथ में है. इनमें मुख्यतः तीन प्रकार की कंपनियां शामिल हैं. टेलीकॉम कंपनियां. सिलिकॉन वैली की टेक्नॉलजी से जुड़ी कंपनियां और फेसबुक-गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियां. इनकी मिल्कियत का छोटा हिस्सा संयुक्त अरब अमीरात और ब्राजील के हाथ में भी है.
उन्होंने बताया कि सरकारों के हाथों में इन केबल्स की मल्कियत नहीं होती है लेकिन सरकार दूसरे तरीकों से इन्हें कंट्रोल कर सकती हैं. समुद्र सरकारों के नियंत्रण में होते हैं. साथ ही कंपनियां किसी देश के कानून के मुताबिक ही रजिस्टर्ड होती हैं. ऐसे में कानून और लाइसेंसिंग के जरिए सरकार इन केबल्स पर कंट्रोल हासिल कर सकती है. जैसे- जो कंपनी ब्रिटेन में रजिस्टर्ड हैं उन्हें ब्रिटेन के कानून के हिसाब से काम करना होता है.
यूवान कुर्बाल्या के मुताबिक, इन केबल्स को बनाने का काम चीन, अमेरिका, इटली और फ्रांस की कंपनियां करती हैं.
सैटेलाइट्स से क्यों नहीं भेजते इंटरनेटअब सवाल है कि इतना झंझट पालने की जरूरत क्या है? तार बिछाओ. फिर उनकी सिक्योरिटी भी देखो. टूटती रहें तो रिपेयर करते रहो. इससे अच्छा तो ये है कि इंटरनेट के लिए सैटेलाइट्स का यूज किया जाए. इसके जवाब में टेलीजियोग्राफी के एक्सपर्ट्स बताते हैं कि सैटेलाइट्स कुछ खास कामों के लिए बहुत अच्छे होते हैं. वे उन इलाकों तक आसानी से पहुंच जाते हैं जहां अभी तक फाइबर केबल नहीं बिछाई गई है.
इसके अलावा, एक जगह से कई जगहों तक कंटेंट पहुंचाने में भी सैटेलाइट्स काफी काम आते हैं लेकिन अगर मुकाबला डेटा क्षमता और उसकी लागत को लेकर होगा तो फाइबर-ऑप्टिक केबल्स बीस साबित होंगे. फाइबर ऑप्टिक केबल्स सैटेलाइट्स से कहीं ज्यादा डेटा ले जा सकती हैं और वो भी बहुत कम खर्चे में. इसके अलावा इनकी स्पीड तेज और लेटेंसी कम होती है.
इसको ऐसे समझें कि धरती पर मौजूद डेटा सेंटर्स से डेटा जब केबल्स के जरिए यात्रा करके आपके पास पहुंचता है तो फाइबर ऑप्टिक्स तारों के जरिए आसानी से और तेजी से पहुंच जाता है. लेकिन अगर सैटेलाइट से इसे भेजा जाए तो सबसे पहले डेटा सेंटर्स से डेटा अंतरिक्ष में सैटेलाइट तक जाएगा. फिर वहां से वापस टॉवरों के जरिए आपके तक पहुंचेगा. इसमें लेटेंसी की दिक्कत होगी और स्पीड भी वैसी नहीं आएगी जैसी केबल्स से आती है. यही वजह है कि दुनिया में इंटरनेट सर्विस के लिए सबसे बढ़िया जरिया अभी तक केबल्स को ही माना जा रहा है.
इंटरनेट कैसे काम करता है ये समझना है तो ये वीडियो देख सकते हैंः
वीडियो: रूस ने यूक्रेन की कैबिनेट बिल्डिंग उड़ा दी, फिर यूक्रेन ने की जवाबी कार्रवाई