यह लेख डेली ओ से लिया गया है जिसे अंग्रेजी में राणा सफ़वी ने लिखा है.
कभी तहज़ीब का स्कूल रहीं तवायफ़ों को वेश्या कैसे माना जाने लगा
वो कोठे जहां गीत-संगीत की महफ़िलें लगा करती थीं, जिस्मफरोशी के अड्डे में कैसे बदल गए

दी लल्लनटॉप के लिए हिंदी में यहां प्रस्तुत कर रही हैं शिप्रा किरण
अगर आप को हिंदी सिनेमा से प्यार है तो आपने मुज़फ्फ़र अली की 'उमराव जान' जरूर देखी होगी. इसमें रेखा ने अभिनय तो शानदार किया ही है बेहद खूबसूरत भी नज़र आई हैं. फिल्म के गाने भी उतने ही खूबसूरत हैं.
पहली बार मैंने किसी आम फिल्म की तरह ही ये फिल्म भी देखी थी. इस फिल्म में जिस संस्कृति और तहजीब के बारे में बताया गया है उसके बारे में मैंने अपने मां-पिता और दादा जी से सिर्फ सुन रखा था. उस तहज़ीब को ये फिल्म बहुत खूबसूरती से सामने लाती है.
तवायफ़ों के जीवन पर बनी एक और शानदार फिल्म है- 'पाकीज़ा'.
मैंने दोनों ही देखी है- उमराव जान भी और पाकीज़ा भी. लेकिन तवायफों की ज़िंदगी से जुड़े तमाम पहलुओं को तब और करीब से समझ पाई जब मैं कानपुर की एक तवायफ़ अजीज़न बाई से मिली. इन्होने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ काम भी किया . क्रांतिकारियों का साथ देने के जुर्म में उन्हें सज़ा भी दी गई थी.
वे नाना साहिब से बेहद प्रभावित थीं.
अजीज़न जैसी तवायफ़ें अपने घरों को बालाखाना या कोठा कहती. (क्योंकि ये पहली मंजिल पर होते और नीचे दुकानें होती हैं) इन कोठों पर क्रांतिकारियों की मीटिंग (सभा) हुआ करती. वहीं से वे एक दूसरे को अपने सन्देश भेजा करते. वे अपने अंग्रेज ग्राहकों पर नज़र भी रखतीं. अंग्रेज अधिकारियों या ग्राहकों से ब्रिटिश शासन की ख़बरें भी निकलवा लेतीं.
विद्रोहियों की धड़-पकड़ के दौरान ब्रिटिशों की गाज इन तवायफों पर भी गिरी. तब इनकी गिनती समाज के अमीर तबके में होती थी. इनके पास अथाह धन-दौलत थी.
अब सवाल है कि आखिर ये तवायफ़ें थीं कौन??? इन्हें तवायफ़ क्यों कहा जाता था?? आज हम तवायफ़ों को वेश्याएं क्यों समझते हैं?
प्रोफ़ेसर और इतिहासकार वीना ओल्डेनबर्ग ने अपनी किताब 'द मेकिंग ऑफ़ कोलोनियल लखनऊ' (The Making of Colonial Lucknow) में लिखा है- ‘तवायफ़ों को वेश्याओं के साथ जोड़ कर देखना इस संस्था की एक बहुत खराब छवि बनाता है.'
इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए आपको 18 वीं – 19 वीं सदी में लिए चलते हैं-
तवायफ़ शब्द 'तौफ़' से बना है. जिसका मतलब है- गोल-गोल घूमना. ये मज़ेदार है कि मुसलमानों के पवित्र स्थान काबा की परिक्रमा या तवाफ़ शब्द भी ‘तौफ़’ से निकला है.
'तौफ़' म्यूजीशियन (संगीतकारों) के समूह को कहा जाता था. प्रशिक्षित नर्तकियों, शानदार गायिकाओं और संगीत में कुशल स्त्रियों को ही 'तवायफ़' कहा गया.
अकबर के प्रशासन की पूरी जानकारी देने वाले 'आईने-अकबरी' का एक पूरा चैप्टर इस वर्ग की गयिकाओं पर लिखा गया है. जिन्हें 'कंजरी' कहा जाता था.
‘कंजरी- इस समुदाय के पुरुष रबाब, पखावज जैसे इंस्ट्रूमेंट या वाद्य-यंत्र बजाया करते. औरतें गातीं और नाचा करतीं. अकबर उन्हें 'कांचनी' कह कर पुकारते थे. इन सबकी अपनी अलग अलग शैलियां थीं. नृत्य और संगीत में उन्हें महारत हासिल थी. उनकी निपुणता को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता.
संगीत और नृत्य में कुशल इन कलाकारों को कांचनी कहा जाता था.
इतिहासकार महमूद फ़ारूकी कहते हैं कि तवायफ़ें कहीं न कही व्यवस्था से सम्बंधित होतीं. मतलब उनके तार प्रशासन से जुड़े हुए थे. उनके अपने खानदान थे. जबकि कांचनी कला की दुनिया में अपने भरे-पूरे अस्तित्व के साथ अकेली ही थीं.
1960 में लिखी गई अमृतलाल नागर की किताब 'ये कोठेवालियां' में नसीम आरा ने कांचनी और डेरेवाली तवायफ़ों के बारे में विस्तार से बताया है. नागर (लेखक) के साथ हुई इस बातचीत में नसीम आरा बताती हैं कि कांचनी तवायफ़ों की एक जाति थी. लखनऊ की अधिकांश तवायफ़ें 'कांचनी' समुदाय से ही आती थीं. नसीम बताती हैं कि वे खुद 'डेरावाली' समुदाय से थीं जिसे इन समुदायों में सबसे अधिक सम्मान हासिल था.
यहां लड़कियों को 5 साल की उम्र से ही नृत्य-संगीत की शिक्षा दी जाती. 10-12 साल तक ये लड़कियां प्रशिक्षित समूहों का हिस्सा हो जातीं. युवा होने पर इन्हें किसी के संरक्षण में दे दिया जाता. अर्थात किसी पुरुष की देखभाल में.
नसीम बताती हैं, 19वीं सदी की ये डेरावाली तवायफ़ें सिर्फ एक ही व्यक्ति से शारीरिक सम्बन्ध बनातीं. उनके पूरे परिवार की जिम्मेदारी उसके संरक्षक पर होती. अपने संरक्षक की मौत हो जाने पर वे बाक़ी की ज़िंदगी उनकी विधवा बन कर गुजारतीं. आश्चर्य की बात है कि डेरावाली तवायफ़ों के कोई दलाल नहीं होते थे. वे अपनी गाने, नृत्य कलाओं और अपनी प्रतिभा के बल पे खुद को स्थापित करतीं. उनकी कलाएं लोगों को ख़ुद-ब-ख़ुद उन तक खींच लातीं. समाज के सम्मानित, अमीर और कला के पारखी उनके ग्राहक हुआ करते.
नसीम आरा बहुत गर्व और खुशी से बताती हैं कि वे एक खानदानी डेरावाली हैं. वे तवायफ़ों के बारे में प्रचलित इस बात से इन्कार करती हैं कि लड़कियों का अपहरण कर उन्हें कोठे पर पहुंचाया जाता था. कहती हैं- ‘डेरावाली तवायफ़ों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं होता था.’ ये उनका खानदानी पेशा था.
ओल्डेनबर्ग ने अपने रिसर्च में बताया है कि 'उमराव जान' में लड़की के अपहरण की जो घटना दिखाई गई है वो सच से बहुत दूर है. अपने एक लेख के लिए ओल्डेनबर्ग ने कुछ तवायफ़ों के इंटरव्यू लिए. (लेख का नाम- लाइफस्टाइल ऐज रेसिस्टांस : द केस ऑफ़ ऑफ़ द कोर्टजन ऑफ़ लखनऊ) जिसमें तवायफ़ों ने ये बताया है कि मिर्ज़ा हादी रुस्वा की किताब उमराव जान 'अदा' ने उनकी (तवायफ़ों) छवि को बहत ख़राब किया है.
एक और शब्द है जो गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है- रंडी. रुथ वानिता अपनी किताब 'डांसिंग विथ द नेशन' में इस शब्द के बारे में विस्तार से बताती हैं. 19 वीं सदी तक इस शब्द का इस्तेमाल कुलीन अविवाहित औरतों के लिए किया जाता था. बाद में इस शब्द के अर्थ का अनर्थ कर दिया गया.’
पुरानी दिल्ली में सन 1832 की एक मस्जिद है जिसका नाम है- 'रंडी की मस्जिद'. ये मस्जिद नर्तकी मुबारक बेगम ने बनवाई थी. मुबारक बेगम पहले ब्रिटिश रेजिडेंट (दिल्ली) सर डेविड ओक्टर्लोनी की प्रेमिका भी थीं. मस्जिद के इस नाम पर कभी कोई विवाद नही रहा. लोग अब भी उस मस्जिद में नमाज़ अदा करते हैं. इस नाम समझा जा सकता है कि जो शब्द आज गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है, तब उसका क्या महत्व रहा होगा.
20 वीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में अब्दुल हलीम शरर ने नवाबों के लखनऊ की सभ्यता और संस्कृति पर एक किताब लिखी – 'गुज़िश्ता लखनऊ'. इसमें उन्होंने लखनऊ की तवायफ़ों के तीन क्लास बताए हैं. 'कांचनी' भी उन्ही समूहों का एक हिस्सा थीं
वे बताते हैं कि कांचनी, कंचन समुदाय से थीं. ये दिल्ली से लखनऊ आकर बसी थीं. चीजें तब तक बहुत बदल गई थीं. दिल्ली पर नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के बाद मुग़ल साम्राज्य लड़खड़ा चुका था. अपने ऐशो-आराम और राजसी जीवन शैली को बनाए रखना मुश्किल हो गया था. इसलिए जिनके पास संगीत-नृत्य की कला थी वे उसी की मदद से पैसे कमा कर अपना गुजारा करने लगीं
उनका एक और वर्ग था जो ‘चूनावालियां’ के नाम से मशहूर थीं. ये पहले चूना बेचती थीं, बाद में शरीर के व्यापार से जुड़ गईं. तीसरा वर्ग था- ‘नागरा. ये गुजरात की रहने वाली थीं. किताब में उन्हें ‘बाज़ार की रानी’ कहा गया है.
शरर ने लिखा है कि ये काफ़ी ताकतवर और समृद्ध हुआ करती थीं. शरर की ये किताब 1856 के बाद कि स्थितियों को बयान करती हैं. जब पारंपरिक (ट्रेडिशनल) तवायफ़ों का अस्तित्व था. लेकिन ब्रिटिशों ने उन्हें पूरी तरह ख़त्म कर दिया.
ये तवायफ़ें सिर्फ उस दौर की कला और संस्कृति का प्रतिनिधित्व ही नहीं करती थीं बल्कि वे स्वतंत्र-आत्मनिर्भर औरतें थीं. मर्द उन पर आश्रित रहा करते. पुरुष संगीतकार और नृत्य प्रशिक्षक (डांस टीचर) उनके यहां नौकरियाँ करते. दलालों के रूप में भी पुरुष उनपर आर्थिक रूप से निर्भर थे.
ओल्डेनबर्ग के रिसर्च से हमें पता चलता है कि उस समय उनके पेशे में उन्हें ‘गाने और नाचने वाली लड़कियां’ कहा गया है. वो शहर में सबसे ज्यादा टैक्स देने वालों में थी मतलब उनकी अपनी निजी आय (पर्सनल इन्कम) बहुत अधिक थी.’
उनके अपने मकान थे. वे कई तरह के उद्योगों की मालकिन थीं. बाद में उनकी संपत्ति पर ब्रिटिश सरकार ने अपना कब्ज़ा कर लिया.
सिर्फ उनकी संपत्ति ही नहीं जब्त की गई बल्कि उनमें से कई तवायफों को ब्रिटिश सेना की टुकड़ियों की सेवा में भेज दिया गया. जिन तवायफ़ों ने शास्त्रीय संगीत, नृत्य, के साथ उर्दू साहित्य की विरासत को आगे बढ़ाया अब वे भी सामान्य वेश्यायों की श्रेणी में आ गईं.
जबकि एक समय वह भी था जब ये तवायफ़ें शरीफ घरों के जवान लड़कों को समाज में रहने के सलीके और तहज़ीब सिखाती थीं. लेकिन ब्रिटिशों के आने के बाद वो सिर्फ उनकी शारीरिक भूख शांत करने का माध्यम बन गईं.
जो औरतें कत्थक, दादरा, ग़ज़ल और ठुमरी जैसी महान कलाओं की प्रवर्तक थीं. जिनकी वजह से ये कलाएं लोगों तक पहुंची वो अब सिर्फ लोकप्रिय फ़िल्मी गानों और नृत्य तक सीमित हो गईं. ठुमरी, दादरा और ग़ज़लों के साथ साथ, पारसी और भारतीय नृत्य का मिला-जुला रूप कत्थक, बालाखाना और अवध के दरबारों में बहुत प्रसिद्ध था. नवाब वाज़िद अली शाह का दरबार गीत, संगीत, कवियों और कत्थक नर्तकियों के लिए प्रसिद्ध था. वो गीत-संगीत का सुनहरा दौर था. जिसे स्वर्ण-युग कहा जाता है.
1857 के बाद सिर्फ मुग़ल शासन या अवध के नवाबों का ही अंत नहीं हुआ बल्कि उनके साथ एक पूरे युग का अंत हो गया. एक पूरी सभ्यता का अंत हुआ. अरब-ए-निशात, कथक नर्तकियां, शास्त्रीय नर्तकियां अब नाचने वालियां (नाच शब्द से बना) कही जाने लगीं. अब उनकी जगह सिर्फ ग्राहकों को उत्तेजित करने वाले अश्लील गाने रह गए. और बाज़ार रह गया. अब शरीर का व्यापार करने वाली औरतों के लिए 'तवायफ़' शब्द का इस्तेमाल होने लगा है.
ग़ालिब और दाग़ को की नज़्मों-ग़ज़लों को गाने वाली 'तवायफें' अब नहीं रहीं. ना ही संगीत-नृत्य से रौशन-जगमग वे कोठे रहे .
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