The Lallantop

अल्लाह को इकलौता नहीं, सबसे बड़ा देवता माना जाता था

'इस्लाम का इतिहास' सीरीज की चौथी किस्त.

Advertisement
post-main-image
पैगंबरी के लिए युद्ध भी हुए.

20196805_10213145238562576_712062070_n_210717-073138-265x150
ये आर्टिकल 'दी लल्लनटॉप' के लिए ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है. 'इस्लाम का इतिहास' नाम की इस सीरीज में ताबिश इस्लाम के उदय और उसके आसपास की घटनाओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं. ये एक जानकारीपरक सीरीज होगी जिससे इस्लाम की उत्पत्ति के वक़्त की घटनाओं का लेखाजोखा पाठकों को पढ़ने मिलेगा. ये सीरीज ताबिश सिद्दीकी की व्यक्तिगत रिसर्च पर आधारित है. आप ताबिश से सीधे अपनी बात कहने के लिए इस पते पर चिट्ठी भेज सकते हैं - writertabish@gmail.com




इस्लाम के पहले का अरब: भाग 4

हज मूर्तिपूजक अरबों का एक धार्मिक कर्मकांड था, जो कई सदियों से चला आ रहा था. जब इस्लाम आया तो मुहम्मद द्वारा इसे इस्लाम में शामिल कर लिया गया. हालांकि इसके रीति-रिवाज़ों को उसी तरह रहने दिया गया, जैसे पहले से थे. अगर कुछ बदलाव आया तो बस ये कि काबा और उसके आस-पास से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया गया.
banner islam

कुसय्य के बाद से काबा और मक्का की धार्मिक और व्यापारिक दावेदारी अधिक मज़बूत हुई थी. काबा सभी लोगों का प्रिय बना रहे इसके लिए अरब के हर क्षेत्र के देवी-देवताओं को काबा और उसके आस-पास के क्षेत्र में स्थापित किया गया. हज के लिए जब दूरदराज़ से कोई कबीला आता था, तो अपने साथ अपने देवी या देवता की एक मूर्ति भी लाता था. जिसे काबा का पुजारी पूर्ण सम्मान के साथ अभिमंत्रित करता था. काबा में सम्माननीय स्थान देता था. लौटने पर ये क़बीला अपने देवी/देवता की मूर्ति अपने साथ वापस ले जाता था.

पैगंबर मुहम्मद से पहले काबा की अहमियत

मुहम्मद के आने के बहुत पहले से ही काबा अपने आसपास के इलाकों में सबसे श्रेष्ठ मंदिरों में गिना जाने लगा था. काबा का वर्चस्व क़ुरैश कबीले और अरबों के लिए प्रतिष्ठा की बात थी. ऐसा नहीं था कि काबा के अलावा लोग अन्य मंदिरों को कोई अहमियत नहीं देते थे मगर काबा की श्रेष्ठता सर्वमान्य थी.
काबा जैसे ही अन्य मंदिर भी अरब के आसपास के इलाकों में थे, जिनमें से देवी उज्ज़ा, अल-लात और मिनात प्रमुख थीं. इनके मंदिरों को भी लगभग वही इज्ज़त प्राप्त थी, जो काबा को थी. मगर क़ुरैश लोगों ने समझदारी के साथ इन सारी देवियों को भी काबा में स्थान दे रखा था. इसलिए काबा अपने आप में हर किसी के लिए पूज्य हो गया था. 
एक बात यहां ध्यान देने वाली है. अरब जिन पत्थर की मूर्तियों की पूजा करते थे, उनमें ज़्यादातर मूर्तियों का कोई चेहरा नहीं होता था. ये पत्थर के देवता ज़्यादातर चौकोर या क्यूब की शक्ल में ही होते थे. इसलिए जो मंदिर बनते थे, वो भी आयताकार या क्यूब की तरह होते थे. उनके भीतर रखे देवता भी. दरअसल उन मंदिरों को बनाया ही देवता के जैसा था. वो मंदिर बाहर से भी पूज्य होते थे और भीतर से भी. ये मंदिर घर नहीं होते थे देवताओं के, बल्कि ये स्वयं में ही देवता होते थे. काबा भी इसी कड़ी का एक हिस्सा था.

क्या काबा की अहमियत अंदर रखी मूर्तियों की वजह से थी?

काबा बाहर से भी उतना ही पूज्य था, जितना इसके भीतर रखे देवता. पुराने अरबी लोग काबा के सामने वैसे ही सजदा करते थे, जैसे आज मुसलमान करते हैं. अरब इसके भीतर रखे हुए देवी-देवताओं के कारण ही इसके आगे नहीं झुकते थे बल्कि उनके लिए ये क्यूब के आकार वाला पूरा काबा ही देवता का प्रतीक था.
काबा मुसलमानों का सर्वोच्च धार्मिक स्थान है.
काबा मुसलमानों का सर्वोच्च धार्मिक स्थान है.

ऐसा नहीं है कि काबा इस्लाम के आने के बाद पूज्य हुआ. वो तो काफ़ी पहले से था. काबा के एक कोने में, बाहरी दीवार पर लगे काले पत्थर की वजह से ये सिर्फ एक मंदिर नहीं था, बल्कि स्वयं में एक देवता जैसा स्थान रखता था. इस काले पत्थर के बारे में आगे की किश्तों में लिखूंगा.

दुआएं भी मिलती-जुलती हैं

हज के सारे रीति-रिवाज, यहां तक कि ज़्यादातर दुआएं जो आज पढ़ी जाती हैं, वो मूर्तिपूजक अरबों के हज का हिस्सा थीं. उदाहरण के लिए देखिए. जब आज इस्लाम में हज के दौरान काबा की परिक्रमा की जाती है, तो ये 'तल्बियाह' पढ़ा जाता है:
"लब्बैक अल्लाह-हुम्मा लब्बैक, लब्बैक ला शरीक-आ-लका लब्बैक, इन्नल-हमदा व-नियामता, लका वल-मुल्क, ला शरीका लक."
इसका हिंदी अनुवाद हुआ:
"मैं यहां हूं मेरे अल्लाह तेरी ख़िदमत में, मैं यहां हूं. मैं यहां हूं तेरी खिदमत में और तेरा कोई साथी नहीं है. सारी तारीफ़ और नियामतें सिर्फ तेरी हैं. और तेरी संप्रभुता अकेली है. और तेरा कोई साथी नहीं है."
इस्लाम के आने से पहले मूर्तिपूजक अरब जब काबा की परिक्रमा करते थे, तब ये पढ़ते थे:
"लब्बैक अल्लाह-हुम्मा लब्बैक, लब्बैक ला शरीक-आ-लका लब्बैक, इला शरीकुन हुवा लका, तमलीकुहू व-मा मलाका."
अनुवाद:
"मैं यहां हूं मेरे अल्लाह तेरी ख़िदमत में, मैं यहां हूं. मैं यहां हूं तेरी खिदमत में और तेरा कोई साथी नहीं है सिवाए उसके जो तेरे हैं, और तेरा प्रभुत्व है उन पर और उनकी चीज़ों पर."
दोनों तल्बियाह में सिर्फ थोडा सा फर्क है. अरबों की तल्बियाह को थोड़ी बदली हुई है. पहले में सब कुछ अल्लाह को माना गया है, उसके सिवा किसी को नहीं. दूसरे में अल्लाह को तो सबसे बड़ा देवता माना गया मगर साथ-साथ ये भी कहा गया कि तेरे साथी भी हैं. ये साथी जिन्न थे. अल्लाह की बेटियां थी.

अल्लाह की तीन बेटियां:

मूर्तिपूजक अरब अल्लाह की तीन बेटियों की भी पूजा करते थे. इसलिए उनका अल्लाह परिवार वाला था. बाद में मुहम्मद ने अल्लाह की बेटियों को उसके साथ से हटा दिया और अल्लाह को अकेला कर दिया. तल्बियाह वही रही. बस उसमें से अल्लाह का परिवार हट गया.
पहले के हज में सिर्फ अल्लाह की ही तल्बियाह नहीं पढ़ी जाती थी. बाकि देवी उज्जा, देवी अल-लात, देवी मिनत और देवता हबल की भी तल्बियाह पढ़ी जाती थीं. काबा के भीतर रखे सबसे बड़े देवता हबल की तल्बियाह इस प्रकार थी:
"लब्बैक अल्लाह-हुम्मा लब्बैक, इन्ना-लका, हरमतना अला अस्सिनाती अर-रहीम, यह्सुदूना अन-नासु अला अन-नजाह."
मतलब,
"मैं यहां हूं मेरे अल्लाह/देवता तेरी ख़िदमत में. तेरी ख़िदमत में हम बचे हुए हैं. तूने हमे भालों/तलवारों की नोक से बचाए रखा है. इसलिए लोग हमारी सफ़लता से जलते हैं."

तमाम देवताओं में अल्लाह को सबसे बड़ा माना गया

इस तल्बियाह में देवता हबल को अल्लाह बोला गया है. जिसका अर्थ देवता है. अल्लाह का मतलब कोई एक देवता नहीं था, अल्लाह का मतलब था सबसे बड़ा देवता. इस तल्बियाह में अल्लाह को सबसे बड़े देवता यानी हबल के रूप में दिखाया गया है. मूर्तिपूजक अरब अल्लाह शब्द का इस्तेमाल सबसे बड़े देवता के रूप में करते थे.
2696a93e786d15822d483151823f167b--islamic-miracles-masjid-al-haram
अरब इन सारे देवताओं से बड़े एक अल्लाह संप्रभुता तो स्वीकार करते थे, मगर उसके साथ-साथ वो ये भी मानते थे कि अल्लाह के साथी भी हैं. जो उसके बताये हुए कार्यों को आगे बढाते हैं. उन साथियों में भी वैसी ही दैवीय शक्तियां हैं, जैसी अल्लाह के पास हैं. हबल उनके लिए अल्लाह का ही एक अंश या अवतार था.
मूर्तिपूजक अरब बिना किसी मूर्ति के किसी देवता की पूजा नहीं करते थे. इसलिए अगर कोई ये कहे कि वो किसी निराकार अल्लाह को मानते थे, तो ये हास्यास्पद बात होगी. जब अल्लाह की तीन बेटियां थीं, तो वो निराकार कैसे हुआ पुराने अरबों के हिसाब से? पुराने अरबों का अल्लाह निराकार तो बिलकुल भी नहीं था. वो ऐसी किसी निराकार अल्लाह की उपासना नहीं करते थे जैसा कि इस्लामिक आलिम आज दावा करते हैं.
क्रमशः...


'इस्लाम का इतिहास' की पिछली किस्तें:

Part 1: कहानी आब-ए-ज़मज़म और काबे के अंदर रखी 360 मूर्ति
यों
 की

Add Lallantop as a Trusted Sourcegoogle-icon
Advertisement

Part 2: कहानी उस शख्स की, जिसने काबा पर कब्ज़ा किया था

Part 3: जब काबे की हिफ़ाज़त के लिए एक सांप तैनात करना पड़ा

Advertisement
Advertisement