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इंडिया को इंडी फिल्में देने वाले नागेश कुकुनूर हैप्पी बर्थडे

समाज के दर्द को महसूस करता एक सरल फिल्मकार. जानिए क्यों नागेश '100 करोड़ क्लब' डायरेक्टर्स से हैं बिलकुल अलग.

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फोटो - thelallantop
दी लल्लनटॉप को फख्र है कि उसके पास सिने संन्यासी है. जवान साधुनुमा आदमी. सिनेमा में डूबा रहता है. आलम ये है कि कभी आप इसकी कलाई पकड़ लें तो एक गरम थरथराहट छू पाएं. जैसे पुली पर रील सरक रही हो. पिच्चर चल रही हो. ऑस्कर में नॉमिनेट हुई फिल्मों के बारे में वो आपको  तसल्ली से पहले ही बता चुका है. पर आज बात ऑस्कर की नहीं, लक्ष्मी, इकबाल, डोर फिल्म बनाने वाले इंडियन डायरेक्टर नागेश कुकुनूर की. इंडिया में क्रिकेट पर आप दो ही हिंदी फिल्में गिन सकते हैं. एक लगान, दूजी इकबाल. आज इन्ही नागेश कुकुनूर उनका हैप्पी बर्थडे. 'दी लल्लनटॉप' आपके लिए लाया है नागेश के फिल्मी करियर पर अपने सिने संन्यासी  का लिखा कुछ अच्छा सा.

अब आप कहेंगे कि इस साधु का नाम क्या है. तो हम फिर कहेंगे. न नाम पूछो, न जात.


  दूशन मखावेव की एक फिल्म है 'द कोका कोला किड' (1985) . सर्बिया के इन बेहद महत्वपूर्ण फिल्म लेखक और निर्देशक की ये कहानी एक युवा, महत्वाकांक्षी, घोर पूंजीवादी सोच वाले पुरुष बेकर की है जो पेय पदार्थ कंपनी कोका कोला में मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव है. उसे ऑस्ट्रेलिया भेजा जाता है. जहां भी वो जाता है जादू हो जाता है. जमीन, प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन से जुड़ा जो भी नैतिक-अनैतिक काम नहीं हो रहा होता, उसे वो दैवीय गति से कर देता है. ऑस्ट्रेलिया में एक इलाका है जहां के लोग कोका कोला के पदार्थों का इस्तेमाल नहीं करते और इस बहु-राष्ट्रीय कंपनी को बर्दाश्त नहीं करते हैं. लोगों को उन्हीं का अमृत पीना चाहिए. तो बेकर को भेजते हैं. वहां एक स्थानीय पेय पदार्थ कंपनी का मालिक है जो घुटने टेकने को तैयार नहीं. न लालच के आगे न किसी और चीज के आगे. कहानी के अंत तक आते आते बेकर को कुछ ऐसी स्व-चेतना होती है कि वो चीजों को स्थानीय नजरिए से देखता है. वो एक मजबूत फैसला लेता है. हमारे समाजों को हम लोगों की भी इन्हीं यात्राओं की प्रतीक्षा है जिससे बेकर गुजकर मोक्ष पाता है. 'द कोका कोला किड' का ट्रेलर https://www.youtube.com/watch?v=V0l9S_MGCCg नागेश कुकुनूर भी अपनी ये यात्रा तय कर रहे हैं. 1998 में प्रदर्शित उनकी पहली फिल्म 'हैदराबाद ब्लूज़' का नायक वरुण नायडू 12 साल बाद अमेरिका से अपने घर हैदराबाद लौटता है. वो भी कोका कोला कंपनी में काम करता है. एक महीने के लिए आता है. सुबह बजने वाले माता-देवताओं के भजनों, मां के हाथ के तेलीय भोजन, अरेंज्ड मैरिज, आदमी की स्वच्छंदता को हर ओर से जकड़ने वाली सामाजिक रीतियों और अनगिनत भारतीय बातों से उसे शिकायत है. उस पात्र को जल्दी से जल्दी एक महीने अपना माइंड फ्रेश करके U S of A लौट जाना है. वही उसके लिए दुनिया की सबसे आदर्श जगह है. एक निर्देशक के तौर पर भी नागेश ने वो फिल्म भारत के नहीं बल्कि अमेरिकी दर्शकों के लिए बनाई थी. जिन फिल्मों ने उन्हें फिल्मकार बनने के लिए प्रेरित किया वे भी हॉलीवुड मसाला फिल्में "द रेडर्स ऑफ द लॉस्ट आर्क’ (1981) और "टर्मिनेटर 2: जजमेंट डे’ (1991) थीं. हैदराबाद ब्लूज़ के शुरू के पांच मिनट में ही भारत को लेकर जो सबसे बड़ा स्टीरियोटाइप है वो दिखता है. कि यहां बीच सड़क पर गायें खड़ी रहती हैं, ये कितना मूर्ख देश है. नागेश की ये अप्रोच उसके बाद के अठारह वर्षों में पूरी तरह बदल चुकी है. 2014 में प्रदर्शित 'लक्ष्मी' में एक गाने के दौरान हैदराबाद की कई झलकियां आ रही होती हैं उनमें एक होती है सड़के के किनारे खड़ी गाय और उसे रोटी देता एक आदमी. देखिए 'लक्ष्मी' का ट्रेलर https://www.youtube.com/watch?v=Wf4hOMpKlEI आज नागेश 50 साल के हो गए हैं. वे नायडू हैं. हैदराबाद में जन्मे. उस्मानिया यूनिवर्सिटी में पढ़े. स्कॉलरशिप मिली तो 1988 में अमेरिका की जॉर्जिया टेक यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की डिग्री करने गए. उसके बाद टेक्सस में एनवायर्नमेंट कंसल्टेंट की नौकरी करने लगे. फिर अटलांटा में. वहां दिन में पढ़ते, शाम को वेयरहाउस एक्टर्स थियेटर में निर्देशन और फिल्म निर्माण सीखते. तीन साल सीखा. इसी दौरान एक 14 मिनट की फिल्म "वन कल्चर ऐट अ टाइम’ बनाई. ये अमेरिका में रह रहे दो परदेसियों के बारे में थी जिन्हें प्रेम हो जाता है. उसके बाद भारत आए. सिने संन्यासी: एक वकील साहब, जिन्हें देशभक्तों ने गद्दार घोषित कर दिया लेकिन तेलुगु फिल्मों के ढीले कर्मचारियों को देख पस्त हो गए और अमेरिका लौट गए. वहां जाकर नए सिरे से अपनी पहली फीचर फिल्म "हैदराबाद ब्लूज़’ की स्क्रिप्ट लिखी. उन्होंने सात दिन में 96 पन्नों की स्क्रिप्ट लिखी. लौटकर 17 दिनों में 17 लाख रुपए में इस फिल्म को बनाया. रिलीज के साथ ही हिंदी सिनेमा में एक अहम फिल्मकार का प्रवेश हो गया. नागेश की कई फिल्में आत्मकथात्मक या वैसे अंशों वाली हैं. "हैदराबाद ब्लूज़’ ने अंग्रेजी बोलने वाले और विदेशी सिनेमा टटोल रहे भारतीय दर्शकों को सम्मोहित कर दिया. फिल्म में तकनीकी अपरिपक्वताएं थीं लेकिन उसमें एक ऐसा चार्म था जो नया था, गज़ब था. 'हैदराबाद ब्लूज़' का एक सीन https://www.youtube.com/watch?v=HcFho18Bhxs ये चार्म नागेश कुकुनूर की एक कहानीकार के तौर पर कई विशेषताओं से आया था. मौजूदा पीढ़ी में अनुराग कश्यप सबसे वरिष्ठ हैं जिन्होंने इंडिपेंडेंट सिनेमा के परिदृश्य की नींव मजबूत की. 2012 तक आते-आते तो हिंदी सिनेमा की दिशा पूरी तरह बदल चुकी थी. लेकिन नागेश इस लिहाज से उनसे भी पहले, सबसे पहलों में थे. हालांकि मीरा नायर ने 1988 में 'सलाम बॉम्बे' और दीपा मेहता ने 1996 में 'फायर' बना दी थीं. ये फिल्में कंटेंट में सार्वभौमिक थीं लेकिन विशुद्ध इंडिपेंडेंट फिल्में नहीं थीं.
नागेश के पहलों में होने का मायना ये है कि आज हॉलीवुड या बॉलीवुड जैसे अरबों के उद्योग से नहीं मौलिकता और रचनात्मकता स्वतंत्र सिनेमा से आ रही है. अगले पचास साल भविष्य भी यही है. खास बात ये है कि डेढ़ दशक बाद भी भावना में नागेश वैसे ही बने हुए हैं. वे अकेले ऐसे निर्देशक हैं जो बिना किसी बाजार के दबाव के अपनी कहानियां कह रहे हैं. उन्हें विशेष फिल्मकारों की सूची में नहीं घुसना. वे नहीं चाहते कि आप बार-बार उनका नाम लें. वे अपने दायरे में आजीवन छोटी-छोटी कहानियां कहते रहना चाहते हैं. उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है. ये दुर्लभ है.
1998 में पहली फिल्म 'हैदराबाद ब्लूज़' के साथ ही उनके ऊंचे मानव मूल्य दिखे. उनका पात्र वरुण प्रेम विवाह का पेरोकार है. वो परंपराओं के नाम पर समाज में विधवा स्त्रियों की दशा से आगबबूला होता है. वो मर्दवादी नहीं है. अपनी प्रेमिका की दुत्कार उसे बराबरी देते हुए सहन करता है. उसकी प्रेमिका डॉक्टर है. आर्थिक रूप से स्वतंत्र है. नागेश ने निर्देशक के तौर पर अश्विनी जैसी सशक्त नायिका रखी. सबसे पहले तो वो सांवली है. सिने संन्यासी: धरती को गोल बताने वाले को ब्लैकलिस्ट कर दिया होता तो? अब तक साउथ की फिल्मों में तमन्ना, चार्मी कौर, श्रुति हसन, नयनतारा, समांथा, अनुष्का और अनेक अन्य गोरी नायिकाएं ही दिखती हैं. बिना दिमाग की, इतराती सी, नाजुक, वीर्यवान सांवले हीरो के पीछे दीवानी (आमतौर पर एक हीरो के पीछे दो-दो दीवानी, फ्लैशबैक वाली कहानियों के कारण) और सजावटी. लेकिन अश्विनी सांवली है. उसके शरीर का इस्तेमाल फिल्म में कहीं नहीं होता. वो वरुण नायडू के पीछे पागल नहीं है. वो बहुत ज्यादा opinionated है जो भारतीय फिल्मों में विरली बात है. वो जागरूक है. वो नायडू के प्यार से पीछे हटने के तैयार है लेकिन अपनी डॉक्टरी छोड़कर अमेरिका जाने को तैयार नहीं. वो बहुत मजबूत दिमाग वाली है. उसके पिता का निधन होता है और वो दरवाजे पर लोगों को रिसीव करने के लिए खड़ी होती है. घर में बेटे की कमी खलती नहीं. सिने संन्यासी:  SPOTLIGHT में ऐसा क्या था खास, जो ऑस्कर मिला? स्त्रियां नागेश की हर फिल्म में मजबूत होती हैं. उनकी तीसरी फिल्म 'बॉलीवुड कॉलिंग' (2001) में एक साउथ का निर्माता सुब्रमण्यम (ओम पुरी) फिल्म बना रहा है. उसकी फिल्म में बॉलीवुड स्टार मन्नू कपूर, हॉलीवुड हीरो पैट्रिक के अलावा हीरोइन काजल (पेरिज़ाद ज़ोराबियन) है. काजल कमर्शियल फिल्मों की हीरोइन्स की प्रतिनिधि है. सीनियर एक्टर मन्नू जी के चारों ओर उड़ती फिरती है. उनके पैरों के हाथ लगाती है. उनके आगे बेअक्ल बिंबों बनकर रहती है. नाचने-गाने और हीरो द्वारा गुंडों से बचाए जाने वाले मूर्ख रोल करती है. लेकिन असल में वो जानती है वो क्या कर रही है.
वो मूलत: मर्द प्रधान सिनेमा उद्योग में अपना अस्तित्व बचाए रख रही है. उसे सब पता है कि उसे कौन कैसे perceive कर रहा है. लेकिन वो भी असल जीवन में अभिनय करती चल रही है. हॉलीवुड हीरो पैट्रिक के साथ वो शुरू में ही हमबिस्तर हो जाती है. दर्शक और पैट्रिक उसकी स्टीरियोटिपिकल छवि बनाकर दंभ भरे उससे ही पहले ही वो सुबह बिस्तर में लेटे पैट्रिक से कहती है, "ये कॉफी पिओ और निकलो.’ वो जानना चाहता है कि ये रिश्ता क्या था? वो कहती है उसे ट्राई करना था अमेरिकी बिस्तर में कैसे होते हैं? और वो पैट्रिक को कोई बढ़िया अंक नहीं देती. कहानी में कई जगहों पर पैट्रिक को अक्ल देती है, जीवन के मंत्र देती है तो वो 'बेअक्ल बिंबो'.
'बॉलीवुड कॉलिंग' का ट्रेलर https://www.youtube.com/watch?v=E6XR6_iiirY '3 दीवारें' (2003) की चंद्रिका, 'इकबाल' (2005) की खदीजा और 'आशाएं' (2010) की पद्मा ऐसे ही अन्य पात्र हैं. नागेश की दो और फिल्मों के स्त्री पात्र लीक से हटकर खड़े होते हैं. पहले हैं 'डोर' की दो केंद्रीय महिलाएं - मीरा (आयशा टाकिया) और ज़ीनत (गुल पनाग). 2006 में प्रदर्शित इस फिल्म में इन दोनों महिलाओं को अपने जीवन के सबसे कठिन सच का सामना करना है और दोनों निर्णय कर्ता की स्थिति में हैं. परिवार की मर्जी के खिलाफ ज़ीनत शादी करती है. उसका पति सउदी अरब में मीरा के पति के साथ रहता है, मजदूरी करता है. दुर्घटनावश मीरा का पति उसके हाथों मारा जाता है. फांसी होगी. वह बच सकता है तो विधवा के माफीनाफे से. ज़ीनत अपने पति की जान बचाने मीरा को ढूंढ़ने जाती है. दोनों दोस्त बनती हैं. मीरा एक पुरानी सोच वाली राजपूती परिवार की बहू है. कम उम्र में विधवा होने पर कहा जाता है वो ही परिवार की बुरी किस्मत का कारण है. एक समय पर ससुर अपनी जायदाद बचाने के लिए बहू की देह बेचने को भी तैयार हो जाता है. अंत में दोनों स्त्रियां अपना मुकद्दर खुद लिखती हैं. 3 दीवारें' की झलक https://www.youtube.com/watch?v=d4QUeyVhRWk दूसरी फिल्म है 'लक्ष्मी'. ये नागेश कुकुनूर की सबसे जरूरी फिल्म है. करियर की बेस्ट. उनकी महिला पात्र सबसे मजबूत है. 'लक्ष्मी' पर 2014 की दैत्याकार फिल्मों के बीच पर्याप्त नजरें नहीं गईं लेकिन वो साल की शीर्ष हिंदी फिल्मों में थी. 14 साल की लक्ष्मी को पिता देह व्यापार में बेच देता है. वो मासूम बच्ची ऐसी-ऐसी दरिंदगी से गुजरती है कि देखकर पीड़ा होती है. लेकिन वो तमाम डरों, दुखों के बावजूद भागने की कोशिशें करती है. अंत में वो कानूनी लड़ाई लड़ती है. जहां उसके वकील और एनजीओ वाले डर रहे होते हैं वो बच्ची हौसला रखती है. सिने संन्यासी: द डेनिश गर्ल: 4 सर्जरी करवाईं, ताकि मर्दाने बदन से मुक्ति मिले ऐसे पात्रों को नागेश ने लगातार संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत किया है. 'लक्ष्मी' के जरिए उन्होंने आंध्र और देश की लाखों लड़कियों-स्त्रियों की त्रासद जिंदगी को सामने रखा है. आखिर क्यों उन्हें अन्य कमर्शियल कहानियां नहीं दिखतीं? 'लक्ष्मी' के एक-एक दृश्य को देखें तो उनकी वेदना दिखती है. चिंता दिखती है. संवेदना दिखती है. यहां तक कि बुरे पात्रों को लेकर भी हमारी संवेदनाएं वे नहीं मरने देते. वे भावनाएं नहीं भड़काते. रास्ते बताते हैं. उनकी फिल्मों की मूलभूत विशेषताएं बेहद सीधी हैं. सबमें भारतीयता केंद्रीय तत्व है. कम बजट की होती हैं. कथ्य बिलकुल सरल होता है. न तो उन्हें ऑटर बनना है न ही बॉक्स ऑफिस किंग. उनके मनोरंजन का दायरा टोटकों में कतई नहीं सिमटा. ये कहानियां हैं सुनने-देखने में आनंद आता है. भीना-भीना. 1999 में रिलीज हुई उनकी दूसरी ही फिल्म 'रॉकफोर्ड’ देखें. बेहद सुहावनी फिल्म है. एक किशोरवय बच्चे राजेश नायडू के बोर्डिंग स्कूल वाले जीवन की कहानी. दोस्ती, फैंटेसी, यौन अनुभव, सबक और जीवन मूल्यों का किस्से. नागेश कुकुनूर अपनी तकरीबन सभी फिल्मों में नजर आते हैं. 'रॉकफोर्ड' का ट्रेलर https://www.youtube.com/watch?v=va3mORYmzIA 'हैदराबाद ब्लूज़’ और उसकी सीक्वल में तो वे केंद्रीय पात्र थे. 'रॉकफोर्ड’ में वे पीटी इंस्ट्रक्टर जॉन मैथ्यू बनते हैं. इसमें उन्होंने बहुत ख़याल रखा है कि लोगों का ध्यान लड़के राजेश के केंद्रीय पात्र से हटकर उन पर न चला जाए. उनके पुरुष पात्र हमेशा सही नहीं होते. गलतियां करते हैं और मान लेते हैं. जो सही तरीका असल जीवन में भी होना चाहिए. जैसे 'रॉकफोर्ड' को ही लें. मैथ्यू और उनकी एक छात्रा एक-दूसरे की ओर आकृष्ट होते हैं. एक बार शराब के नशे में या अन्य बहकावे में मैथ्यू कुछ ऐसा करता है जिसे अब गलत मानता है. ये बात वो अपने प्रिय छात्र राजेश के सामने स्वीकार करता है. उसकी नजरों में वो अपनी परफेक्ट इंसान वाली छवि तोड़ने में एक सेकेंड नहीं लगाता. 'हैदराबाद ब्लूज़-2' (2004) में वरुण नायडू को उसकी कॉल सेंटर की ट्रेनर (टिस्का चोपड़ा) कामोत्तेजित करती है. वो अमेरिका से लौटा था जहां स्वतंत्र देह संबंध बनाना आम है जो वो पहले किया भी करता था. लेकिन अब जीवन में पत्नी है. लेकिन वो खुद को रोक लेता है. स्पर्श भी नहीं होने देता. लेकिन जेहन में वो सारी फैंटेसी करता है जो स्त्री-पुरुष आम तौर पर करते हैं. ये बात वो पत्नी अश्विनी को बताता है. ईमानदारी से. अश्विनी उसे तलाक दे देती है. लेकिन वे अंत तक उससे माफी मांगता रहता है. सिने संन्यासी: टीचर का बच्चा आतंकवादी बन गया है, आपको कहीं दिखा क्या अपनी फिल्मों में नागेश कुकुनूर दोस्ती को बड़ा महत्व देते हैं. उनकी कहानियों में दोस्तों के पात्र बड़े मजेदार रहे है. 'हैदराबाद ब्लूज़’ में उनके पात्र वरुण के दोस्त संजीव के रोल में विक्रम ईनामदार याद रहते हैं जबकि ये उनकी पहली फिल्म थी और उन्हें अभिनय का कोई अनुभव नहीं था. संजीव और उसकी पत्नी सीमा (ईलाही हिपतोल्ला) वरुण और अश्विनी के हर सुख-दुख में साथ रहते हैं. (ईलाही पहली फिल्म से नागेश के साथ हैं. वे उनकी क्रिएटिव प्रोड्यूसर और एसोसिएट डायरेक्टर जैसे कार्य संभालती रहती हैं. ज्यादातर फिल्मों में वे किसी न किसी झलक में दिख ही जाती हैं.) "डोर’ में ज़ीनत-बहरूपिए की दोस्ती, 'आशाएं' में राहुल-पद्मा की दोस्ती, '8x10 तस्वीर’ में जय-हैप्पी (अक्षय कुमार-जावेद जाफरी), 'लक्ष्मी' में सुवर्णा-लक्ष्मी की दोस्ती और खासकर 'रॉकफोर्ड' में राजेश-सेल्वा की दोस्ती. 'आशाएं' का ट्रेलर https://www.youtube.com/watch?v=YtG-vf0QXMk पिछले साल आई उनकी फिल्म 'धनक' भी अनूठी कहानी है. राजस्थान के चुरू जिले में रहती है बच्ची परि और उसका नन्हा भाई छोटू. छोटू देख नहीं सकता. जैसलमेर में शाहरुख शूटिंग कर रहे हैं और परि का लक्ष्य उन तक पहुंचना है जहां वो छोटू को आंखें दिलवाएगी क्योंकि उसने शाहरुख का कहा एक पोस्टर पर पढ़ा, नेत्रदान कीजिए. जैसे पहले कहा, नागेश कोका कोला किड वाली अपनी यात्रा तेजी से पूरी कर रहे हैं. 'धनक' उसी की ताजा कड़ी है. समय के साथ उनकी ये कहानी और भी निर्लिप्त और मासूम हो गई है. सिनेमाई क्रॉफ्ट के लिहाज से भी ये ज्यादा उम्मीदों और प्रेरणा भरी है. एक साल से 'धनक' फेस्टिवल सर्किट में है. बर्लिन फेस्ट में इसने बड़ा अवॉर्ड जीता और मॉन्ट्रियल में बच्चों के फिल्म फेस्ट में दो पुरस्कार और कई तारीफें हासिल की. अगर आप फिल्मों से लगाव रखते हैं तो आपको 'हैदराबाद ब्लूज़’, 'हैदराबाद ब्लूज़-2’, 'रॉकफोर्ड', 'बॉलीवुड कॉलिंग', 'लक्ष्मी', 'डोर', 'इक़बाल' और 'धनक' जरूर देखनी चाहिए. किसी भी फिल्म के सर्वोच्च गुण होते हैं स्वतंत्र रूप से निर्मित, सरल कथ्य वाली, हमें आगे ले जाने वाली, मानवीय और बेहतर मूल्यों की बात करती हुई. ये सब नागेश कुकुनूर के सिनेमा की खासियत हैं. आनंद की बात है कि इतने वर्षों बाद भी उनमें फिल्मों से पैसे कमाने की इच्छा नहीं है. वे इस कला के प्रेम में पड़कर अपनी बढ़िया नौकरी छोड़कर आए थे. अभी तक वो प्रेम गाढ़ा है. हालिया 'लक्ष्मी' और 'धनक' की कहानियों की ईमानदारी से ये जाहिर होता है. आप भीतर से बेइमान हो जाएं तो इन्हें ऐसे बिलकुल नहीं लिख सकते. आखिर में सुनिए नागेश की फिल्म डोर का गाना- ये हौसला कैसे रुके... https://www.youtube.com/watch?v=d8me1GXijJA