‘फिएट वाले बलमा’ गाना सुना बम मारने वाली चंदा का किस्सा
मिसकौट के पास लीची के बागान काटकर जब कॉलोनियां बनीं तो उनके ठेके सिन्धी ठेकेदारों को गये, उन्होंने सिर्फ शहर की सड़कें, घर ही नहीं बनाये, उनमें अपनी चमकदार कोठियाँ भी चमकाईं. उस टीवी-पूर्व दौर में वे कोठियाँ उनके मौज-मनोरंजन के काम आती थीं. कहते हैं शहर में चन्दा को पहले पहल यशराज ने पहचाना. सिनेमा हॉल वाले सेठ जब पहली बार विधायक बने तो सबसे बड़ी पार्टी यशराज ठेकेदार ने ही दी थी. सिनेमा हॉल वाले सेठ वैसे तो गाँधी जी की टोपी लगाते थे और हर तरह के ऐब से दूर रहते थे लेकिन चुनाव में इतने लोगों ने मेहनत की थी कुछ उनकी थकान उतारने का इन्तजाम भी तो होना था न. रात में चार बाईजी का नाच रखा था यशराज ने. लेकिन दीवाना सबको चन्दा ने बना दिया बलमा हमार फिएट कार लेके आया है घर से निकल के वो दिल में समाया है पैरों में बाटा है कद का वो नाटा टाटा सा उसका फौलादी इरादा बीच बजरिया में अंखिया लड़ाया है बलमा हमार फिएट कार लेके आया है... कहने-सुनने की बात पर ही जब सब कुछ ठहरा तो उन दिनों शहर मुजफ्फरपुर के क्लबों, सोसाइटियों में 28 या रम्मी के पत्ते फेंटते हुए बाबू साहेब लोगों में बड़ी चर्चा थी. कुछ दिन बाद ही आँख, नाक, कान, गला रोग विशेषज्ञ डॉ. सुरेश चन्द्र ने एक सेकेंड हैंड फिएट कार कलकत्ता (उन दिनों यही कहते थे) से मँगवाई थी. कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि उन दिनों शहर मुजफ्फरपुर के अंटीदारों में फिएट में चलने का शौक लग गया था. एम्बेसेडर मार्क 2 एक दिखती थी तो फिएट तीन. कहाँ एम्बेसेडर जैसी गाँव-देहातों को धाँगने वाली गाड़ी एम्बेसेडर, कहाँ सड़क के थोड़ा ऊबड़-खाबड़ होते ही थमक-थमक कर चलने वाली फिएट. लेकिन भारी-भरकम एम्बेसेडर की जगह छोटी-छरहरी फिएट लोगों को ज्यादा भाने लगी थी. चतुर्भुज स्थान का माहौल बदलने लगा था. बहुत तेजी से बदलने लगा था. लाइसेंस का सिस्टम तो पहले से था, तब लाइसेंस सिस्टम का पालन होने लगा था. सो भी थोड़ा आँख-कान खोलकर. लाइसेंस टाइम मतलब 6 से 9. इसके बाद बस जो हो सो इल्लीगल. नियम का कड़ाई से पालन हो इसके लिए समय-समय पर देर रात छापे भी पड़ने लगे. कई बार अख़बारों में शहर मुजफ्फरपुर के पन्नों पर ख़बरें छपती कि देर रात चतुर्भुज स्थान में पुलिस ने छापा मारा और शहर के कई नामी ठेकेदार, जाने-माने डॉक्टर वहाँ से पकड़े गये. अक्सर पकड़े जा रहे थे. यही वह जमाना था जब गीत-संगीत की महफिल जमानेवालियाँ, रवायत निभानेवालियाँ एक-एक करके वहाँ से खिसक रही थीं. जमींदारों की जमींदारियाँ कमरे में टँगने वाले जमींदारी बाँड में बदलती जा रही थीं. घर-घर सजने वाली महफिलें अब कहने भर को सजती थीं. कुछ पुराने जमींदार परिवारों में महफिलें सजती भी थीं तो बस रवायत के नाम पर. कहते हैं चन्दा ने नयी रवायत शुरू कर दी. सोनपुर मेला हो या भुतही गाँव का महावीरी झंडा लोगों का जुटान उसके नाच के लिए भी होता. सेठों, जमींदारों के यहाँ ख़ुशी के मौके पर जाकर गानेवालियों के नाम गुम होते जा रहे थे. नाम था तो बस चन्दा... मौका कोई भी हो सबसे पहले चन्दा... कहते हैं वह इतना तेज नाचती जिस तेजी से आकाश में तड़का तड़कता. न रुकती थी, न थकती थी. सुनाने वाले किस्सा सुनाते. शहर सीतामढ़ी में लोहापट्टी के दुकानदारों ने ‘महामाया दुर्गापूजा समिति’ का गठन किया तो लोहाबाजार नवयुवक संघ के युवाओं ने यह फैसला किया कि हमारे पूजा में कुछ ख़ास आइटम होना चाहिए. शहर में तब सबसे बढ़िया मारवाड़ी नवयुवक संघ के दुर्गा पूजा समिति की शान थी. एक साल पहले ही उन्होंने दिल्ली से डोरेमी ऑर्केस्ट्रा को बुलाकर अष्टमी को आधी रात तक प्रोग्राम करवाया था. कहते हैं कि उस साल के हिट फिल्म कर्ज के सुपरहिट गाने ‘ओम शान्ति ओम...ओ गाओ ओम शान्ति ओम!’ के गाने के लिए जानकी स्थान वाले नीरज भैया ने जब पाँचवीं बार फरमाइश की तो ऑर्केस्ट्रा के स्टार गायक विपिन ने गाने से साफ मना कर दिया. टी-सीरीज से विपिन के सात कैसेट आ चुके थे. एक साथ किशोर-रफी और महेन्द्र कपूर की आवाज में गाता था. उसने साफ कह दिया कि पहले ही चार बार गाकर वह अपना नियम तोड़ चुका है. यहाँ सीतामढ़ी के दर्शकों के लिए ख़ासतौर पर उसने चार बार इस गाने को गा दिया. इससे ज्यादा तो वह नागपुर में भी नहीं गाता जहाँ उसके नाम पर फैन क्लब चलता है.
'बलमा हमार फिएट कार लेके आया है'
ये किस्से वहां के हैं, जिसका नाम है चतुर्भुज स्थान. जहां बड़ी बड़ी तवायफें आतीं. कोठे बनवातीं. गाने सुनातीं.
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फोटो - thelallantop
दिल्ली में डर लगता है. यहां लोग मिलते बहुत हैं. मतलब से. मुस्कुराते हुए. और फिर गुम हो जाते हैं. क्योंकि उन्हें पहली बार में ही पता चल जाता है. आप किसी काम के नहीं. दाम के नहीं. पर डर के आगे डकार है. और उसके बाद राहत. क्योंकि इसी दिल्ली में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो बेमतलब मिलते हैं. ज्ञानी इन्हें अच्छे लोग कहता है. मैं सच्चे लोग. प्रभात रंजन ऐसे ही एक आदमी हैं. जो दिल्ली के किनारे मयूर विहार में रहते हैं. प्रभात पेशे से मास्टर हैं. कॉलेज में हिंदी पढ़ाते हैं. पढ़ने वाले जानें उनकी टीचरी का हाल. हमें भी बीते बरस प्रभात ने पढ़ाया. एक पुटरियों में बंधा कुल्ल किस्सों का किस्सा. नाम रखा कोठागोई. कोठा गांव के घर में होता था. उसमें घड़े रखे रहते थे. घड़े में दाल होती थी. और एक सांप भी. जो साल में दो चार बार दिख जाता. काटता नहीं. मम्मी कहती. पुरखे हैं. मैं सोचता, बड़े काले हैं. क्रीम नहीं चुपड़ी किसी ने इनको. बड़ा हुआ. मनोहर कहानियां पढ़ने लगा. तो समझ आया. ये जो रंडी तवायफ होती हैं. ये जहां नाचती गाती हैं. उसे भी कोठा कहते हैं. फिर फिलमें देखीं. तो पता चला कि वो भी कोठा होता है, जहां औरतें पइसे लेकर गंदा काम करती हैं. वैसे इसे गंदा काम क्यों कहते हैं. किसके लिए गंदा. स्खलित होने वाले के लिए. या उसके लिए जो लिजलिजेपन के जरिए अपनी जिंदगी को एक रोज और घसीट लेती है. प्रभात रंजन ने एक कोठा और खोला. इस किताब के जरिए. हम सबकी दुनिया में. हमें पता चला. कि कोठों में रहने वाली सिर्फ चेहरा, स्तन, जांघ या योनि भर नहीं हैं. सिर्फ घुंघरू, आवाज या कदम भर नहीं हैं. कि सबकी जिंदगी की तकलीफें पाकीजा वाली मीना कुमारी की तरह सर्द दर्द जर्द भरी ट्रैजिक सुंदरता लिए नहीं होतीं. कोठागोई बिहार के एक शहर मुजफ्फरपुर की कहानी है. वहां पर भी एक खास जगह की, जिसका नाम है चतुर्भुज स्थान. कैसा सुंदर संस्कृत अर्थ और देव ध्वनि वाला नाम. और काम. बड़ी बड़ी तवायफें आतीं. कोठे बनवातीं. गाने सुनातीं. सेठ आते. पइसे से प्यार खरीदने का भरम पालते. फिर पाला मार जाता. कोई और रंडी. कोई और सेठ, कोई और गाना. सब चतुर्भुज के आसमां पर किनारे चुपके से टंक जाता. मेरा मेरे समय को लेकर सबसे बड़ा डर एक ही है. कि किस्से जो कभी लपर लपर हमारे आसपास के मुंह में तंबाकू भरे बूढ़ों की लार से गिरते थे. कहीं वो बिना दर्ज हुए खत्म न हो जाएं. प्रभात ने उस डर को कुछ दूर किया है. उन्होंने कुछ बेहद जरूरी वाकये एक नए कहन में लिखे हैं. फतवों का अपना क्रेज है. सो एक मेरे हिस्से भी. काफिर हूं सो बिना साहित्य का मौलवी बने जारी किए देता हूं. कोठागोई साल 2015 की तीन सबसे अच्छी किताबों में से एक है. एक. बाकी दो हैं, रवीश कुमार की 'इश्क में शहर होना' और रबिशंकर बल की 'दोजखनामा'. उन पर बातें वहां, जहां उनके अंश दिखेंगे. यहां तो आप कोठागोई का एक नजारा देखिए. और जो पढ़कर और की चुल्ल उठे. तो खोज लीजिए. वाणी प्रकाशन ने छापा है इसे.
कोठागोई का एक टुकड़ा
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