
मजाकिया टीवी शोज ने भारत को बाबाजी के ठुल्लू के अलावा शायद ही कुछ ढ़ंग का दिया हो. लेकिन एक जोक दिया. एकता कपूर बचपन में प्लास्टिक के खिलौने नहीं फेंकती थीं. इकठ्ठा कर-करके रखती थीं. ताकि बाद में जब उनके सीरियल्स के किरदार मरें तो वो प्लास्टिक सर्जरी करा सकें. किरदारों को वापस एंट्री दिला सकें. ये एकता कपूरमय जोक है. एकता कपूर एक सोच है. एक सोच है. एक सोच है. और ये सोच सदैव एक सी ही रही. बालाजी टेलीफिल्म्स की मोडस ओपरेंडी यही रही.

एकता ट्विटर के समय में भी एक्टिव हैं. लेकिन जब उनके जोक 'इन' हुए तब तक ट्विटर इतना बड़ा नहीं हुआ था. लेकिन फिर भी एकता कपूर के काम करने के ढ़ंग पर चर्चा हुई. लेकिन कोई हल्की बात कहते हुए हम ये न भूल जाएं कि बॉलीवुड को विद्या बालन किसने दी? और किसने, स्वयं एकता कपूर ने. हम पांच में जब विद्या पहली बार नज़र आईं तब प्रोड्यूसर की कुर्सी पर एकता कपूर बैठती थीं. कम ही लोग जानते हैं कि तीन बार इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट कह विद्या ने उन्हें ही नमन किया था.

ये भी न भूला जाए कि टीवी को उसका हालिया अमिताभ बच्चन भी एकता ने ही दिया. 'बड़े अच्छे लगते हैं' में राम कपूर को राम अमरनाथ कपूर का नाम देने का नैतिक साहस बस एकता के पास ही था. राम कपूर को 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में कौन लाया? स्वयं एकता! राम कपूर के सामने 'कसम से' में प्राची देसाई को लाने का काम भी एकता ने ही किया. बानी और जय वालिया का बेमेल प्रेम कौन भूल सका है? आई मीन जिस किसी ने सीरियल देखा होगा उन लोगों में से? ये वो कहानी है, जिसमें एक बार पांच साल का जंप आता है. फिर पांच साल का और फिर सोलह साल का. कुल जमा कहानी पर थोड़ा ध्यान दे दिया जाता तो 'लिटरली' कालजयी होने से इसे कौन ही रोक पाता.

बीते सालों की बात करें तो दो साल बार-बार भारतीयों को याद आते हैं. वो साल जिनमें ऐसी घटनाएं हुई, जिन्होंने देश को बदलकर रख दिया. साल थे. 1992 और 2002. बड़े सालों में बड़ी घटनाओं के स्थान बस अलग थे. 1992 वो साल था जब बड़े परदे पर 'जान तेरे नाम' रिलीज हुई और 2002 में छोटे परदे ने 'कसौटी ज़िंदगी की' का मुंह देखा. दोनों 1992 और 2002 में एक ही चीज कॉमन थी. रोनित रॉय. KZK में प्रेरणा शर्मा, प्रेरणा बजाज हुईं, फिर बजाज प्रेरणा बासु हो गईं लेकिन ऋषभ बजाज रोनित ही रहे. ये एकता की देन थी. ये संदेश है, अनुराग बासु आते-जाते हैं. सिजान खान नहीं तो हितेन आ जाएगा, पर ऋषभ की जगह रोनित ही रहेंगे. टीवी के जरिये दुनिया को नई तरह का रोनित एकता ने ही दिया था.

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शगुन मम्मा को तो जानते होंगे, अनिता हसनंदानी को? नहीं जानते. 'ये दिल' वाली वसुंधरा यादव को? उन्हें कौन लाया एकता. धोनी आई मीन सुशांत सिंह राजपूत को मानव गोहिल किसने बनाया? एकता ने. राजीव खंडेलवाल को फेमस किसने किया? एकता ने. एकता मिट्टी जैसी हैं, उन पर पनप के जाने कितने वट वृक्ष हो गए. जाने कितने पेड़ बन गए पर एकता-एकता ही रहीं. मिट्टी बांधकर रखती है, मिट्टी पेड़ को कहीं जाने थोड़े देती है. एकता ने भी किसी कॉन्ट्रैक्ट के बूते किसी कलाकार को साथ ही रखना चाहा हो तो सिर्फ इस बात के कारण हम उन्हें जज थोड़े कर सकते हैं? एकता को सीरियल और फिल्मों से अलग करके देखिए. लगेगा काल से पहले भी वहीं थीं और काल के बाद भी वही रहेंगी. बालाजी टेलीफिल्मस का नाम लीजिए और उसके बाद किसी भी सीरियल का नाम ले लीजिए. 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' , 'कहानी घर-घर की', 'कसौटी ज़िंदगी की', 'कहीं किसी रोज़', 'कहीं तो होगा', 'कुसुम', 'कुटुंब', 'कसम से' इतने 'क' जितने मनुष्य जीवन की शुरुआत के बाद काल -कलवित न हुए होंगे.
लोगों को लगता है कि ये एकता का अंधविश्वास है जो वो 'K' से सीरियलों के नाम रखती थीं लेकिन एकता इस मायने में समझदार हैं. जो ज्ञान बिजनेस स्कूलों में दिया जाता है. वो ज्ञान 19 साल की उम्र से काम में लग गई इस लड़की ने सहज ही पा लिया था. ये मार्केटिंग स्ट्रेटेजी थी. ब्रांडिंग का तरीका था. बताओ एकता कपूर के अलावा किस सीरियल बनाने वाले का कोई ऐसा ट्रिविया आप जानते हो कि वो अपने सीरियल्स के नाम कैसे रखता है. अरे छोड़ो आप यही बता दो हिंदी में कितने सीरियल बनाने वालों को ही आप जानते हो. बस इसी जवाब के आते-आते एकता जीत जातीं हैं.

एकता ने महिलाओं की छवि बनाई. ननदों को बुरा बताया गया. सास सबसे बड़ा अभिशाप जानी गईं. महिलाओं ने समझा. खलनायिका वो है जो मोटा काजल लगाती है. जितना मोटा काजल उतनी ही बुरी महिला. यहां मर्द सिर्फ शादी करने के लिए बने हैं. एक विवाह, दो विवाह, बहू विवाह. एक चेहरा, दूसरा चेहरा, तीसरा चेहरा. वहां तुलसी वीरानी मरती थी, फिर ज़िंदा होती थी, फिर मरती थी. चेहरा बदलती थी. फिर उसी चेहरे को लिए वापिस लौट आती थी. ये वो दुनिया थी जहां बाहर से आकर कोई औरत आपके घर में रहने लगती थी और तीन एपिसोड और चार ब्रेक के बाद सारे घर पर कब्जा कर चुकी होती थी. एकता कपूर के सीरियल्स से जनता ने पावर ऑफ एटार्नी जाना. ये जाना कि 2500 रुपये एपिसोड में काम करने वाला जूनियर आर्टिस्ट जब ये कहे कि बिजनेस में मुझे 500 करोड़ का घाटा हुआ है तो कैसे उसे गले से उतारा जाए. ये वो दुनिया थी जहां चीजें तीन-तीन बार होती थीं. ये वो दुनिया थी जहां चीजें तीन-तीन बार होती थीं. ये वो दुनिया थी जहां चीजें तीन-तीन बार होती थीं. ये एक इन्फाइनाईट लूप जैसा था. वैसा लूप जिस लूप में डॉक्टर स्ट्रेंज ने डोरामामू को फंसा लिया था. उस लूप में फंसने के बाद बार-बार वही होता रहता. और बड़ी बात किसी की मौत भी उस चीज को बदल नहीं सकती थी.
एकता ने एक अलग ही दुनिया गढ़ दी, जहां कुछ भी हो सकता था. टीवी हर घर पहुंचने लगता था. एकता ने उस छोटे परदे पर बड़ा खेल शुरू किया. सैटेलाईट चैनल बढ़ रहे थे, और एकता चूहों के आगे बांसुरी बजाए जा रही थीं. स्मृति ईरानी मोदी युग में मंत्री हुईं. एक लंबा समय बीतने को है. बहुत ज्यादा समय हो गया न? लेकिन इससे भी लंबे समय तक टीवी पर 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' चला है. उसमें स्मृति नज़र आती थी. इस बात से समझिए कि एकता ने किस तरीके से टीवी पर काम किया है. उन्होंने फिल्में भी बनाई-बनवाई. इतनी फिल्मों से उनका नाम जुड़ा है जितनी फिल्मों से जुड़कर कोई बड़ा फिल्मकार कहला जाना चाहता है. लेकिन एकता का क्या? वो तो अपने ही काम में लगी हैं. आगे क्या? जानने के लिए देखिए अगला एपिसोड.
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