हरिशंकर परसाई के लिखे में आजाद हिंदुस्तान का असल चेहरा नजर आता है. उनकी रचनाओं ने कभी भी अपने समाज को कोई धोखा नहीं दिया. वे आज तक अपनी जनता का साथ निभा रही हैं. एक कहानी रोज़ में आज पेश है हरिशंकर परसाई की एक लघुकथा 'समझौता'. मौजूदा वक्त से इसे जोड़ कर पढ़ें तब यह कथा और भी ताजी, और भी मौजूं लगेगी...
‘गिर कर न लड़ने वाला साइकिल सवार बुजदिल माना जाता है’
आज एक कहानी रोज़ में पढ़िए हरिशंकर परसाई की एक छोटी-सी कहानी.
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फोटो - thelallantop
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अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकरा कर गिर पड़ें तो उनके लिए यह लाजिमी हो जाता है कि वे उठ कर सबसे पहले लड़ें, फिर धूल झाड़ें. यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिर कर न लड़ने वाला साइकिल सवार बुजदिल माना जाता है, क्षमाशील संत नहीं. एक दिन दो साइकिलें बीच सड़क पर भिड़ गईं. उनके सवार जब उठे तो एक-दूसरे को ललकारा, ‘‘अंधा है क्या? दिखता भी नहीं.’’ दूसरे ने जवाब दिया, ‘‘साले, गलत ‘साइड’ से चलेंगे और आंखें दिखाएंगे.’’ पहले ने गाली का बदला उससे बड़ी गाली से चुका कर ललकारा, ‘‘जबान संभाल कर बोलना, अभी खोपड़ी फोड़ दूंगा.’’ दूसरे ने सिर को और ऊंचा करके जवाब दिया, ‘‘अरे, तू क्या खोपड़ा फोड़ेगा मैं एक हाथ दूंगा तो कनपटा फूट जाएगा.’’
...और वे दोनों एक-दूसरे का सिर फोड़ने के लिए उलझने ही वाले थे कि अचानक एक आदमी उन दोनों के बीच में आ गया और बोला : ‘‘अरे देखो भाई, मेरी एक बात सुन लो, फिर लड़ लेना. देखो, तुम इसका सिर फोड़ना चाहते हो, और तुम इसका! मतलब कुल-मिला कर इतना ही हुआ कि दोनों के सिर फूट जाएं तो दोनों को संतोष हो जाए. तो ऐसा करो भैया, दोनों जा कर उस बिजली के खंभे से सिर फोड़ लो और लड़ाई बंद कर दो.’’बात कुछ ऐसा असर कर गई कि भीड़ हंस दी और वे दोनों भी हंसी रोक नहीं पाए. उनका समझौता संपन्न हो गया. ***
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