ऐसा क्या हुआ होगा उस रात कि नौ समझदार और अनुभवी हायकर्स नंगे पांव, केवल अंडरवेयर पहने अपने टेंट से भाग गए हों? ऐसा क्या हुआ होगा कि उतनी सर्द रात वो अपना टेंट छोड़कर एकाएक जंगलों की तरफ दौड़ गए हों? उनके टेंट पर चाकू से चीरे जाने का निशान क्यों था? क्यों उनकी लाश टेंट से सैकड़ों गज़ दूर छितराई हुई पड़ी मिली? उनमें से एक की आंखें क्यों गायब थीं? क्यों एक टीम मेंबर की जीभ कटी हुई थी? फूटी खोपड़ी, टूटी पसलियां, क्या हुआ था उनके साथ?
ये क्या, क्यों, कैसे का सवाल पिछले 62 साल से एक मिस्ट्री बना हुआ है. इसपर कई क़िताबें लिखी गईं. कई फिल्में बनीं. दर्जनों एक्सपर्ट्स ने इसे सुलझाने की कोशिश की. सरकार ने कई बार जांच टीम बिठाई. देश-विदेश के संस्थान इस पहेली को बूझने में लगे रहे. कइयों ने तो इसे अपने जीवन का मिशन बना लिया.
किसी ने कहा, इसके पीछे ऐलियन्स का हाथ था. कोई बोला, किसी विशालकाय जीव ने उन पर हमला किया था. किसी का अनुमान था, सीक्रेट वेपन टेस्ट से निकली रेडिएशन के चलते वो पर्वतारोही मारे गए. किसी ने कहा, ये कोई टॉप सीक्रेट मिलिटरी ऑपरेशन था. सौ मुंह, सौ बातें. बीते दिनों इस मामले में एक नई थिअरी आई है. क्या है ये मामला, विस्तार से बताते हैं.
ये कहानी शुरू हुई 1959 में
रूस में 'यूरल फेडरल डिस्ट्रिक्ट' नाम का एक प्रांत है. इसे अपना नाम मिला है, रूस की यूरल पर्वत श्रृंखला से. इसी प्रांत में था- यूरल पॉलिटेक्निक इंस्टिट्यूट. अब यही संस्थान 'यूरल स्टेट टेक्निकल यूनिवर्सिटी' कहलाता है. 1959 के साल इस संस्थान के रेडियो इंजिनियरिंग डिपार्टमेंट में एक 23 साल का लड़का पढ़ता था. नाम था, इगोर डायटलोव. इगोर पहाड़ चढ़ने और हाइकिंग में दक्ष था. उसने अपने नौ साथियों को जुटाकर एक टीम बनाई. तय किया कि ये सब मिलकर एक हाइकिंग एक्सपीडिशन पर जाएंगे. कहां? ओटोरटेन नाम के एक पहाड़ पर.

इगोर डायटलोव.
रूट फाइनल हुआ. 23 जनवरी, 1959 को इगोर और उसके नौ साथी मिशन पर निकल गए. शुरुआती रास्ता ट्रेन और ट्रक से तय करके ये ग्रुप पहुंचा विझाई नाम के एक गांव. ये उनके ट्रैकिंग रूट का आख़िरी गांव था. इससे ऊपर पांव की चढ़ाई शुरू हो जाती थी.
27 जनवरी, 1959 को तड़के सुबह 10 ट्रैकर्स की ये टीम एक्सपीडिशन के लिए रवाना हुई. अगले रोज़ टीम के एक साथी की तबीयत बिगड़ गई. वो वापस लौट गया. अब टीम में बचे नौ लोग. सात लड़के और दो लड़कियां. तय हुआ कि ठीक 17 दिन बाद, यानी 12 फरवरी को ये लोग ट्रैकिंग पूरी करके विझाई गांव लौट आएंगे.
17 दिन बीत गए, वो नहीं लौटे
जब 25वें दिन तक भी उनकी कोई ख़बर नहीं आई, तब जाकर वॉर्निंग बेल बजी. ट्रैकर्स के दोस्तों और परिवारवालों को चिंता हुई. उन्होंने अथॉरिटीज़ से कहा, रेस्क्यू टीम भिजवाओ. एक्सपीडिशन टीम के ज़्यादातर लोग 'यूरल पॉलिटेक्निक इंस्टिट्यूट' के छात्र थे. रेस्क्यू के लिए इसी संस्थान ने पहली टीम रवाना की. इसके बाद आर्मी ने भी अपने कुछ हेलिकॉप्टर्स मदद के लिए भेजे.
62 साल पहले आज ही का दिन था. यानी 26 फरवरी, 1959 की तारीख़, जब ये रेस्क्यू टीम पहुंची- होलात सियाखल. ये यूरल पर्वत क्षेत्र के उत्तरी हिस्से में स्थित एक पहाड़ है. स्थानीय भाषा में 'होलात सियाखल' का मतलब होता है- डेड माउंटेन. यानी, मृत पहाड़. यहां एक पहाड़ी दर्रा है. इसी के ऊपर, थोड़ी ढलान वाली जगह पर बर्फ़ से बाहर झांकता मिला एक टेंट. ये टेंट उन्हीं नौ ट्रैकर्स की टीम का था.

नौ लोगों की टीम में दो लड़कियां शामिल थीं.
टेंट तो मिला, मगर वो नौ ट्रैकर्स यहां नहीं मिले. खाने-पीने की उनकी समूची सप्लाई टेंट के भीतर रखी थी. उनकी डायरियां. तस्वीरें. वोदका से भरा एक फ्लास्क. मानचित्र. सब टेंट के भीतर था. टेंट में ही एक किनारे पर प्लेट रखी थी, उसमें रूसी व्यंजन 'सालो' पड़ा था. देखने से मालूम होता था, मानो कोई जल्दी में प्लेट छोड़कर भागा हो. ऐसा लग रहा था मानो उस टेंट में बहुत आपाधापी मची हो. कुछ ऐसा हुआ हो कि सारे पर्वतारोही बहुत जल्दबाजी में सारा सामान छोड़कर भाग गए हों.
भीतर सामान पसरा था और टेंट के एक किनारे पर चाकू से चीरा लगा था. जैसे किसी ने टेंट के भीतर बैठकर वो हिस्सा चाकू से काटा हो और बाहर निकल आया हो. टेंट के बाहरी हिस्से में बर्फ़ पर बने नौ जोड़ी पांव के निशान थे. ये निशान कुछ आगे जाकर ख़त्म हो गए थे. इन निशानों को देखने से लगता था, मानो कुछ लोग केवल एक पैर का जूता पहन पाए थे. और कुछ तो नंगे पांव ही भाग गए थे.
लेकिन नंगे पांव क्यों भागेंगे हायकर्स?
बर्फ़ीले माउंटेन पास के ऊपर माइनस चालीस डिग्री तापमान. उसपर अंधेरी रात और ख़राब मौसम. ऐसे में नौ अनुभवी हायकर्स बिना जूते पहने टेंट से क्यों भागेंगे? ये जानते हुए कि इतनी ठंड में एक्सपोज़र जानलेवा हो सकता है. हाइपोथर्मिया से जान जा सकती है. ऐसी क्या इमरजेंसी रही होगी कि सारे ख़तरे जानने के बावजूद ये ग्रुप इस तरह भागा होगा? और वो भागकर गए कहां?
जहां ये टेंट मिला, उससे कुछ आगे जाकर जंगल शुरू होता था. जंगल की सरहद के पास ही एक देवदार का पेड़ था. रेस्क्यू टीम को इस पेड़ के नीचे जली हुई कुछ लकड़ियां मिलीं. पेड़ के ऊपर की टहनियां भी टूटी हुई थीं. ऐसे, जैसे किसी ने उसपर चढ़ने की कोशिश की हो.
थोड़ा आगे बढ़े, तो नज़र आईं दो लाशें. दोनों में से किसी के पांव में जूता नहीं. शरीर पर कपड़े के नाम पर केवल अंडरवेअर. ये दोनों उसी ट्रैकिंग टीम का हिस्सा थे. फिर तीन और लाशें मिलीं. इनमें टीम के लीडर इगोर डायटलोव का भी शव था. पांच लाशें मिल चुकी थीं. बाकी चार का मिलना अभी बाकी थी.

नौ लोग गए थे, एक भी वापस नहीं आए.
मेडिकल जांच से क्या पता चला?
एक तरफ़ बाकी चार की तलाश चल रही थी. दूसरी तरफ जो पांच शव मिले, उनकी मेडिकल जांच शुरू हुई. पता चला कि ये पांचों हाइपोथरमिया से मरे हैं. इन पांचों में से एक के सिर पर गहरी चोट थी, मगर वो चोट इतनी ख़तरनाक नहीं थी कि जान चली जाए. इस मेडिकल जांच के आधार पर लोगों को लगा कि शायद बाकी के चार भी ठंड में एक्सपोज़र के चलते मर गए हों.
करीब दो महीने की तलाश के बाद एक संकरी खाई की सतह पर बाकी चार टीम मेंबर्स की भी लाशें मिल गईं. मगर इनके मिलने के साथ ही ये केस और उलझ गया. क्यों? इसकी वजह थी, उन बाकी चार लाशों की हालत. एक की दोनों आंखें गायब थीं. जीभ कटी हुई थी. होंठ का एक हिस्सा गायब था. बाकी तीन भी बुरी तरह जख़्मी थे. उनकी पसलियां टूटी हुई थीं. खोपड़ी में फ्रैक्चर था.
मेडिकल जांच से पता चला कि इन्हें बहुत ज़ोर की चोट लगी थी. इतने फोर्स का धक्का आया था इनपर, जैसा तेज़ रफ़्तार कार के किसी चीज से टकरा जाने पर आता है. इसके अलावा कुछ और भी अजीब चीजें थीं. मसलन, टीम की एक लड़की के पांव में दूसरे टीम मेंबर की जैकेट बंधी थी. एक का ट्राउज़र जला हुआ था. एक के शरीर पर किसी और के कपड़े थे. कुछ के शरीर पर नोचे हुए चीथड़े लिपटे थे. इसके अलावा एक की लाश पर रेडिएशन के भी अंश पाए गए थे.
पहाड़ चढ़ने के दौरान कई बार हादसे होते हैं. अनुभवी से अनुभवी पर्वतारोही मारे जाते हैं. मगर इतनी अजीबो-गरीब मौतें समझ से बाहर थीं. टीम मेंबर्स की डायरियां 1 फरवरी, 1959 की शाम तक का पूरा ब्योरा बताती थीं. मगर उस रात को क्या अनहोनी हुई, इसका कोई जवाब नहीं था.
वो नंगे पांव टेंट से क्यों भागे?
कुछ के शरीर पर बस अंडरवेअर क्यों था? फूटी आंखों और कटी हुई जीभ का कारण क्या था? इतने फोर्स से चोट लगने की क्या वजह थी? ये सारे सवाल लॉजिक से परे थे. इगोर और उसकी ट्रैकिंग टीम के साथ जुड़ा पूरा घटनाक्रम ही समझ से परे था. इसी के चलते ये घटना एक सेंसेशन बन गई. लोगों ने इसे नाम दिया- डायटलोव पास इंसिडेंट. ये नाम एक्सपीडिशन टीम के मुखिया इगोर डायटलोव के नाम पर प्रचलित हुआ था.

मैप पर डायटलोव पास को देखिए.
एक आशंका उभरी कि कहीं उस टीम को स्थानीय मानसी कबीले ने तो नहीं मारा. ये चरवाहों का कबीला था ऊंचे पहाड़ पर रहता था. आशंका थी कहीं उन्होंने बाहरियों को देखकर हमला न कर दिया हो. मगर ये आशंका भी खारिज़ हो गई. इसलिए कि एक्सपीडिशन टीम के किसी के साथ संघर्ष के सबूत नहीं मिले थे. उन्हें किसी इंसान ने नहीं मारा था, ये पक्की बात थी.
सोवियत ने कुछ समय तक इस केस की जांच की. फिर उन्होंने इस केस की फाइलों को क्लासिफ़ाइड कर दिया. इस सीक्रेसी के कारण केस ने और तूल पकड़ा. लोगों ने कहा, अगर कोई रहस्य न होता, तो इतनी गोपनीयता क्यों बरती जाती? फिर लोग कयास लगाते रहे. क्या ये लोग गुलाग, यानी सोवियत के कुख़्यात यातना शिविरों से भागे क़ैदी थे? क्या एक्सपीडिशन टीम ने UFO देखा था? क्या इसी वजह से वो इतनी हड़बड़ी में टेंट छोड़कर भाग गए? या सच में ही ऊपर पहाड़ों पर बर्फ़ का विशालकाय जीव येति रहता है? क्या उसी ने इस टीम पर हमला कर दिया था?
या कहीं सोवियत कोई सीक्रेट मिलिटरी एक्सपेरिमेंट तो नहीं कर रहा था?
या कहीं पहाड़ से एकाएक कोई अनजानी और ख़तरनाक ऊष्मा निकली? या ऐसा तो नहीं कि किसी न्यूक्लियर हथियार का परीक्षण हो रहा हो और ये टीम उसकी चपेट में आ गई हो? KGB, सीक्रेट मिसाइल टेस्ट, कान फाड़ देने वाले इनफ्रासाउंड, अंतहीन ऐंगल निकलने लगे इस केस में.
90 के दशक में सोवियत का विघटन हुआ. सोवियत दौर के कई रहस्य बाहर आने लगे. इस केस ने भी सिर उठाया. रूस के बाहर भी बात फैल गई. इस केस ने मेनिया का रूप ले लिया. इसे टर्म मिला- डायटलोव मेनिया. लोग ऑब्सेस्ड हो गए इससे. ये केस इतिहास की सबसे बड़ी अनसुलझी पहेलियों में गिना जाने लगा.

रूसी सरकार ने 2019 में इस केस को वापस खोलने का ऐलान किया.
दशकों के गेस-वर्क और अफ़वाहों के बाद आया फरवरी 2019
इस बरस रूसी सरकार ने ये केस वापस खोलने का ऐलान किया. इस जांच का नतीजा आया जुलाई 2020. इसके मुताबिक, उस हादसे की वजह थी- एवलांच. क्या होता है एवलांच? पहाड़ में जहां स्लोप वाला इलाका होता है, वहां बर्फ़ जमा होती रहती है. इस बर्फ़ को सहारा देता है, स्नोपैक. इसे समझिए बर्फ़ की एक ठोस और मोटी सतह. जो धीरे-धीरे, बर्फ़ की कई तह जमा होने से बनती है. ये स्नोपैक अपने ऊपर जमा हो रही बर्फ़ को सहारा देता है. उसे नीचे गिरने से रोकता है.
लेकिन जब बर्फ़ का वजन बहुत बढ़ जाए, तब कई बार स्नोपैक कमज़ोर होने लगता है. उसका एक हिस्सा टूट जाता है. ऊपर जमा बर्फ़ नीचे रिलीज़ हो जाती है. यही प्रक्रिया एवलांच कहलाता है. एवलांच में एकाएक बहुत सारा बर्फ़ तेज़ रफ़्तार से नीचे ढुलकता है. बड़ी एवलांच अपने साथ बड़े-बड़े पत्थर, पेड़ और मिट्टी का मलबा भी लाती है.

रूस ने अपनी जांच में एवलांच को कारण बताया लेकिन संतोषजनक तर्क नहीं दिए.
रूस ने अपनी जांच में एवलांच तो कह दिया, मगर इस थिअरी को सपोर्ट करने के लिए संतोषजनक तर्क नहीं दिए. इसकी वजह से कई सवाल अनसुलझे रहे. कई एक्सपर्ट्स का कहना था कि जिस जगह डायटलोव की टीम ने कैंप लगाया, वहां स्लोप बहुत लो था. इस स्लोप का ऐंगल 30 डिग्री से कम था. एवलांच 30 डिग्री से कम ऐंगल वाले स्लोप पर नहीं आता.
अगर बहुत एक्स्ट्राऑर्डिनरी हालात बनें और एवलांच आए भी, तो वो छोटा होगा. उसका फोर्स ज़्यादा नहीं होगा. उसमें वैसी चोटें नहीं आएंगी, जैसी उस टीम को आई थीं. इसके अलावा, उस इलाके में हमेशा तेज़ हवा चलती रहती है. हवा हल्की बर्फ़ को उड़ा ले जाती है. उसे इतना जमा ही नहीं होने देती कि एवलांच आए. एक बड़ा सवाल ये भी है कि रेस्क्यू टीम को एवलांच का कोई सबूत नहीं मिला था. ऐसे ही सवालों के साथ लोगों ने रूसी जांच की थिअरी को ख़ारिज़ कर दिया.
फिर आया जनवरी 2021
इस महीने की 28 तारीख़ को प्रतिष्ठित साइंस जरनल 'नेचर' में एक लेख छपा. इसे लिखा था दो लोगों ने- योहान गॉमे और अलेक्ज़ेंडर पुज़रिन. योहान स्विट्ज़रलैंड स्थित 'स्नो ऐंड एवलांच स्टिम्यूलेशन लैबोरेट्री' के प्रमुख हैं. अलेक्ज़ेंडर स्विट्ज़रलैंड में ही जियोटेक्निकल इंजिनियरिंग के प्रफ़ेसर हैं. इन दोनों ने भी डायटलोव मिस्ट्री को सुलझाने की कोशिश की. उनकी जांच में भी जवाब मिला- एवलांच. मगर ये नतीजा रूसी जांच की तरह सवालों को अनसुलझा नहीं छोड़ता.

अलेक्ज़ेंडर पुज़रिन और योहान गॉमे ने नेचर के इस लेख को लिखा था.
इन दोनों एक्सपर्ट्स ने वैज्ञानिक मॉडल का इस्तेमाल किया. तत्कालीन मौसम से जुड़े डेटा के सहारे डायटलोव हादसे वाली रात को रीक्रिएट किया. फिर इन्होंने एवलांच जैसी कंडीशन पैदा करके उसका नतीजा देखा. इस रिज़ल्ट के आधार पर बताया गया कि डायटलोव टीम के साथ क्या हुआ था?
घटनाक्रम कुछ यूं है कि 1 फरवरी, 1959 की शाम एक्सपीडिशन टीम डेड माउंटेन के ऊपर पहुंची. वहां पहाड़ के पूर्वी हिस्से पर एक ढलान के पास 'पॉइंट 1079' के ऊपर उन्होंने अपना टेंट लगाया. ये उनकी चॉइस नहीं थी. वो बर्फ़ीले मौसम में रूट से थोड़ा भटक गए थे. मज़बूरी में उन्होंने यहां डेरा जमाया. रात का वक़्त था. सब टेंट के भीतर सोये थे. तभी एकाएक ऊपर की तरफ से एक एवलांच बहुत तेज़ फोर्स के साथ उनकी टेंट की तरफ बढ़ा. जिस जगह ये टेंट था, उस लोकेशन में इस तरह का एवलांच आना बहुत दुर्लभ घटना है. मगर दुर्योग से उसी रात वहां ये दुर्लभ हादसा हो गया. मगर ये एवलांच उनकी मौत का कारण नहीं, उनकी मौत का ज़रिया था.
पूरी रिपोर्ट क्या कहती है?
उनके टेंट के एक किनारे पर बर्फ़ जमा हो गई. जो टेंट की उस साइड में सोए थे, वो तेज़ फोर्स के चलते जख़्मी हो गए. बाकी के टीम मेंबर्स में से किसी ने टेंट में चाकू से चीरा लगाया. उस रास्ते सबको बाहर निकाला. बहुत पैनिक का माहौल था. टीम को लगा कि छोटे एवलांच के बाद एक बड़ा एवलांच आ सकता है. इसीलिए वो जिस हाल में थे, उसी हाल में बाहर निकल आए. जूते तक पहनने का टाइम नहीं मिला उन्हें.
वो टेंट से दूर भागे. उन्होंने सोचा होगा, कुछ देर बाद लौट आएंगे. मगर रात अंधेरी थी. मौसम ख़राब था. बर्फ़ीला तूफ़ान चल रहा था. विज़िबिलिटी नहीं थी. इसीलिए टीम के लोग रास्ता भटक गए. माइनस चालीस टेम्परेचर में इस तरह सर्वाइव करना मुश्किल था. इसीलिए एक-एक करके वो मरते गए. जो पहले मरा, उसके कपड़े बाकियों ने उतारे. ताकि ज़िंदा लोगों को ज़्यादा गर्मी मिल सके.
गर्मी के लिए ही उन्होंने किसी तरह देवदार के पेड़ के पास आग जलाई होगी. रेस्क्यू टीम को इस देवदार की ऊपरी टहनियां टूटी मिली थीं. शायद डायटलोव टीम का कोई ज़िंदा मेंबर बहुत डेस्परेशन में इस पेड़ पर चढ़ा हो. इस उम्मीद में कि शायद ऊंचाई से टेंट दिख जाएगा. मगर टेंट नहीं मिला और ठंड ने उन्हें मार डाला. ये थिअरी कहती है कि अगर टीम टेंट में ही रहती, बाहर न निकलती, तो शायद ज़िंदा बच जाती.

नेचर की रिपोर्ट.
इस रिपोर्ट में सभी सवालों के जवाब हैं?
योहान और अलेक्ज़ेंडर की ये थिअरी वैज्ञानिक प्रयोग पर आधारित है. लेकिन ये भी सारे सवालों के जवाब नहीं देती. मसलन, एक लाश पर रेडिएशन का अंश क्यों मिला? बस धुंधला सा अनुमान है कि शायद इतनी ऊंचाई पर सूरज़ की तेज़ रोशनी से रेडिएशन का अंश आया हो.
ऐसे कई अनसुलझे सवाल हैं. इन्हीं के चलते तमाम वैज्ञानिकताओं के बावजूद ये थिअरी भी केवल अनुमान ही है. इसीलिए कई एक्सपर्ट्स इस थिअरी से भी संतुष्ट नहीं. योहान और अलेक्ज़ेंडर भी केस सॉल्व करने का दावा नहीं कर रहे. उनका कहना है कि संभावित अनुमानों में से ये वाला अनुमान ज़्यादा सटीक, ज़्यादा मुमकिन है.
हां, ये दोनों रिसर्चर एक बात पक्के से कह रहे हैं. उस रात चाहे जो हुआ हो, इतना पक्का है कि उन नौ लोगों ने एक-दूसरे की परवाह की. घायल दोस्तों को मरने के लिए पीछे नहीं छोड़ा. वो साथ मिलकर एक आपदा से लड़े. इस कहानी में बस यही एक सुकून है. उस रात, उस पहाड़ पर, मौत के सामने भी उन नौ दोस्तों ने भरपूर दोस्ती निभाई.