अंकिता जैन. जशपुर छतीसगढ़ की रहने वाली हैं. पढ़ाई की इंजीनियरिंग की. विप्रो इंफोटेक में छह महीने काम किया. सीडैक, पुणे में बतौर रिसर्च एसोसिएट एक साल रहीं. साल 2012 में भोपाल के एक इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर रहीं. मगर दिलचस्पी रही क्रिएटिव राइटिंग में. जबर लिखती हैं. इंजीनियरिंग वाली नौकरी छोड़ी. 2015 में एक नॉवेल लिखा. ‘द लास्ट कर्मा.’ रेडियो, एफएम के लिए भी लिखती हैं. शादी हुई और अब वो प्रेग्नेंट हैं. ‘द लल्लनटॉप’ के साथ वो शेयर कर रही हैं प्रेग्नेंसी का दौर. वो बता रही हैं, क्या होता है जब एक लड़की मां बनती है. पढ़िए नौवीं किश्त.
गर्भावस्था की तकलीफें आधी हो जाती हैं, जब होने वाला पिता बेटी की चाहत रखता है
प्रेग्नेंट लेडी की डायरी: मेरा एक रिश्ता इसलिए टूट गया था, क्योंकि मेरा भाई नहीं है.

आज के समाज के परिपेक्ष में मुझे इस तरह की बातों पर यकीन नहीं होता. जहां एक तरफ लोग पढ़ी लिखी, नौकरीपेशा बहू की उम्मीद रखते हैं. वहीं दूसरी तरफ लड़कियों को इस बात के लिए ठुकराया जाता है. हालांकि मुझे ख़ुशी थी कि उन महाशय को मेरी मां ने घर से बेइज्ज़त करके बाहर निकाला था. ताकि अगली बार वो किसी लड़की के परिवार को इस तरह नीचा दिखाने की जुर्रत ना करें. लेकिन अफ़सोस इस बात का था वैसे सिर्फ वो अकेले नहीं थे. उनके बाद 2-4 और भी ऐसे रिश्ते आये जिन्होंने बाद में यह कहकर मना किया कि “मेरा कोई भाई नहीं, जिसकी वजह से भविष्य में मेरे मां-बाप की ज़िम्मेदारी मुझे ही उठानी होगी”
“क्या वाक़ई पहला बच्चा बेटी होना एक टेंशन है?” ये एक ऐसा सवाल है जिसने अब तक की मेरी गर्भावस्था को भी इस डर के साथ आगे बढ़ाया है. हालांकि मेरे परिवार में कभी किसी ने मुझे इस तरह का अनुभव नहीं कराया कि उन्हें बेटा ही चाहिए. लेकिन यदि बेटा होगा तो उन्हें बेहद ख़ुशी होगी इस बात का अहसास मुझे कई बार आस-पास की बातों से हो जाता है.
अभी कुछ दिन पहले अखबार में एक खबर पढ़ी थी. नोएडा में एक सास ने अपनी बहू को होंडा-सिटी गिफ्ट की थी, क्योंकि उसने एक बेटी को जन्म दिया था. मैंने भी मन ही मन कुछ ऐसे ही सपने संजोए हैं. हां मुझे हौंडा सिटी नहीं चाहिए, बस अपनी आने वाली संतान के लिए भरपूर प्रेम और उत्साह चाहिए. और यदि वो बेटी हो तो बेटे से ज्यादा उत्साह और प्रेम चाहिए.
मैं अपनी अब तक की ज़िन्दगी में दिल्ली, पुणे जैसे मेट्रो सिटी में रही. भोपाल इंदौर जैसे थ्री-टायर शहरों में रही. गुना जैसे छोटे जिलों में रही. और भौंती, ईसागढ़, खनियाधाना जैसे बहुत छोटे गावों में भी रही. लेकिन “एक बेटे की चाहत” में मुझे कहीं कोई ख़ास बदलाव नज़र नहीं आया. हां बड़े शहरों में लोगों ने स्टैंडर्ड, एजुकेशन, ब्रांड्स की एक चादर ज़रूर ओढ़ रखी है. लेकिन उस चादर के पीछे अभी भी बहुत कुछ पुराना, सड़ा हुआ और दकियानूसी बाकी है. लोगों को अभी भी एक मां का मां होना समझना बाक़ी है.
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