मुहम्मिन की रिश्तेदार हैं शाज़िया. बताती हैं –
“यहां (पाकिस्तान) के मदरसों में बच्चों के साथ ये सब हरकतें होना कोई नई बात नहीं है. ये बीमारी है मदरसे के लोगों की. हमारे साथ हुआ. अब हमारे बच्चों के साथ हो रहा है. मोइद शाह नाम के एक मौलवी थे हमारे वक्त में. लड़कियों से अपनी कमीज़ ऊपर करने के लिए कहते थे. इतनी गंदी आदत. लड़के-लड़कियों, सबके साथ गंदी हरकत करता था वो.”शिकायत करने वाले अपना पूरा नाम तक नहीं बताते
एसोसिएटेड प्रेस की ख़बर के मुताबिक, पाकिस्तान के मदरसों में बच्चों का यौन उत्पीड़न, बलात्कार और तमाम तरह से उन्हें सताया जाना कोई नई बात नहीं है. ये वहां के मदरसों की एक किस्म की मानसिक बीमारी है. दर्जनों एफआईआर दर्ज़ हैं. कोई एक्शन नहीं. यहां के मदरसे बहुत मज़बूत हैं. और पढ़ने आने वाले ज़्यादातर बच्चे वो, जिनका फैमिली बैकग्राउंड आर्थिक रूप से ज़्यादा मज़बूत नहीं है. आत्मविश्वास की कमी होती है. डरते हैं. और शायद यही वजह है कि कोई भी शिकायत करने वाला या इस पर खुलकर बात भी करने वाला अपनी पहचान नहीं बताता. अपना पूरा नाम नहीं बताता.
ये स्कूली ड्रेस में बैठा बच्चा मुहिम्मन है. साथ में उसके माता-पिता. (फोटो- AP Photo/K.M. Chaudhry)22 हज़ार मदरसे, लेकिन कोई आका नहीं
पाकिस्तान में करीब 22 हज़ार रजिस्टर्ड मदरसे हैं. इनमें 20 लाख से ज़्यादा बच्चे पढ़ते हैं. अनरजिस्टर्ड मदरसे मिला दें तो ये संख्या और ज़्यादा हो जाती है. ग़रीब परिवारों के बच्चे मदरसों में आते हैं. यहां रहने और खाने की सुविधा मिलती है. इतने बड़े सिस्टम की निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है. मौलवियों की कोई सेंट्रल बॉडी नहीं है. मदरसों का कोई हेड नहीं है. कुछ भी हो, पूछने वाला कोई नहीं.
यहां के डेप्युटी पुलिस सुपरिटेंडेंट सादिक बलोच कहते हैं –
“मदरसों में गलत काम के जो मामले पुलिस की जानकारी में आते हैं, वो तो सिर्फ एक नमूना भर हैं. लोग खुलकर बोलने से ही डरते हैं. यहां के मदरसे, इस्लामिक गुरु..सब बहुत पावरफुल हैं. किसी ने आवाज़ उठाई भी, तो उसे इस्लाम विरोधी साबित कर दिया जाता है. ये इन लोगों की हिपोक्रेसी है. जिसने दाढ़ी बढ़ाई है, टोपी लगाई है, वो कुछ भी करे. जो कुछ आधुनिक विचारों वाला है, क्लीन शेव है, वो इस्लाम विरोधी है.इमरान खान अगस्त-2018 में पाकिस्तान के पीएम बने थे. तबसे कई बार पब्लिक अड्रेस में भी मदरसों के आधुनिकीकरण और इसको एक सिस्टम में ढालने की बातें कर चुके हैं. लेकिन 20 महीनों में सिस्टम बनना तो दूर, मदरसों के बच्चों की बातें सुनी जानी भी शुरू नहीं हुई हैं. बच्चे मदरसे जाने से डरते हैं. कोई बच्चा है, जो 11 साल का होने को आया है. कहने को तो रोज़ मदरसा जाता है. कुछ सीखने. लेकिन अब तक सिर्फ अपना नाम लिखना जानता है- मुहिम्मन.
फिर बच्चों के परिवारों में भी ज़्यादातर लोगों का मदरसों पर अटूट भरोसा रहता है. वो किसी भी काम के लिए मदरसों को ‘माफ’ करने में भरोसा रखते हैं. फिर डर भी रहता है कि ये बात सबके सामने आ गई तो बच्चे को ज़िंदगीभर ज़िल्लत में जीना पड़ सकता है. ”
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