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धवल कुलकर्णी की किताब 'ठाकरे भाऊ: उद्धव, राज और उनकी सेनाओं की छाया' के अंश

महाराष्ट्र के सियासी परिदृश्य पर लिखी गई इस किताब में धवल कुलकर्णी ने राजनीतिक विरासत के दावेदारों उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के राजनीतिक जीवन और उनके राजनीतिक दलों की यात्रा का विश्लेषण किया है.

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ठाकरे भाऊ किताब में महाराष्ट्र की राजनीति को बेहतर समझाने और दिखाने की क्षमता है (फोटो सोर्स- ट्विटर Rajkamal प्रकाशनं )

ठाकरे भाऊ- महाराष्ट्र के सियासी परिदृश्य पर लिखी गई इस किताब में धवल कुलकर्णी ने राजनीतिक विरासत के दावेदारों उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के राजनीतिक जीवन और उनके राजनीतिक दलों की यात्रा का विश्लेषण किया है. किताब में राज और उद्धव के वैचारिक राजनीतिक टकराव की कहानी भी बताई गई है. पढ़िए इस किताब के कुछ अंश-

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2011 में राज ने बहुत बड़ी रणनीतिक ग़लती कर दी।

कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, महाराष्ट्र से भाजपा के कुछ नेता शिवसेना को सबक़ सिखाने के लिए राज के साथ बातचीत कर रहे थे. उनसे कह रहे थे कि वे नरेंद्र मोदी से नज़दीकी बनाएँ, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. मोदी और राज दोनों में एक बात सामान्य थी—दोनों सत्तावादी विकास में यक़ीन रखते थे.

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2007 में जब मनसे की कोई पहचान भी नहीं बनी थी तब शिशिर शिंदे ने कहा कि वे राज के दूत बनकर मोदी से मिलने के लिए गए थे और उनको अपने नेता का शुभकामना पत्र दिया.

अगस्त 2011 में राज ने विशेषज्ञों के दल के साथ राज्य अतिथि के रूप में नौ दिन तक गुजरात का दौरा किया, जिस दौरान वह कई परियोजनाओं को देखने के लिए गए, जिनमें टाटा नैनो की इकाई भी थी और साथ ही उन्होंने बहुत तरह के प्रेजेंटेशन देखे. उन्होंने मोदी के विकास ढाँचे की ख़ूब तारीफ़ की और यह भी कहा कि गुजरात की जनता भाग्यशाली है कि उसको मोदी जैसा मुख्यमंत्री मिला.

सबसे बड़ी बात यह कि राज सबसे पहले नेता थे जिन्होंने यह कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री में प्रधानमंत्री बनने की कुव्वत है. एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने ध्यान दिलाया कि जब राज ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम लिया था तब तक भाजपा में भी इसके लिए औपचारिक रूप से इसकी माँग नहीं हुई थी. संजय निरुपम के अनुसार इसकी वजह से महाराष्ट्रीय मतदाताओं का एक हिस्सा राज की पार्टी से छिटक गया क्योंकि गुजरातियों के बढ़ते प्रभाव से वे ख़ुश नहीं थे।

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जब यह साफ़ दिखाई देने लगा कि ऊपरी मध्य वर्ग के जो मतदाता मनसे की तरफ़ चले गए अब उसकी तरफ़ वापस आ गए तो राज ने नरेंद्र मोदी के ऊपर आक्रमण करना शुरू कर दिया, जो तब तक प्रधानमंत्री बन चुके थे. उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि उन्होंने जो वादे किए थे उन वादों को पूरा नहीं कर पाए तथा वे गुजरात को लेकर पूर्वाग्रही थे.

राज ने नोटबंदी की भी आलोचना की और मुंबई से अहमदाबाद के बीच 500 किलोमीटर की उच्च गति से चलने वाली ट्रेन, जिसे बुलेट ट्रेन भी कहा जाता है, की योजना की निंदा की. उन्होंने यह आरोप लगाया कि बुलेट ट्रेन उनके षड्यंत्र का हिस्सा थी ताकि अहमदाबाद के लोग मुंबई आसानी से आने लगें और मुंबई को महाराष्ट्र से अलग कर दिया जाए.

शिवसेना शायद इस बात को स्वीकार करना पसंद न करे लेकिन यह नरेंद्र मोदी की लहर थी जिसके कारण 2014 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना का प्रदर्शन अच्छा हुआ. जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी से शिवसेना उनको लेकर असहज रहती थी. शिवसेना की तरह ही हिंदुत्व को लेकर मोदी की आक्रामक छवि थी.

भाजपा के पुराने नेताओं एल. के. आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी, यहाँ तक कि उनके युवा नेताओं में प्रमोद महाजन का बाल ठाकरे के साथ निजी रिश्ता था, और वे उनको महाराष्ट्र में भगवा गठबंधन का नेता मानते थे. ठाकरे भी ख़ुद को राज्य में वरिष्ठ सहयोगी के रूप में देखते थे. सेना के नेतृत्व के साथ मोदी का वैसा रिश्ता नहीं था.

बाल ठाकरे इस बात का दावा करते थे कि गोधरा दंगों के बाद जब उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे यह राय ली कि क्या मोदी को हटा दिया जाए तो उन्होंने चेतावनी दी थी: मोदी गया तो गुजरात गया. उन्होंने इस तरह से इस बात को पक्का किया कि गुजरात के मुख्यमंत्री आगे भी संघर्ष करने के लिए बने रहें. 2012 में भाजपा की तरफ़ से जब तक मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया गया था तब तक बाल ठाकरे नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को अपनी पसंद बताते थे.

मोदी के नेतृत्व में और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अध्यक्षता में भाजपा अधिक आक्रामक हो चुकी थी और वह शिवसेना की पिछलग्गू बनकर नहीं रहना चाहती थी. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जब भाजपा कांग्रेस का मुक़ाबला करने की तैयारी कर रही थी तब भाजपा आलाकमान ने राज के पास यह संदेश भिजवाया था कि वह मतों के बँटवारे को रोकें क्योंकि उनके कारण 2009 की तरह की स्थिति बन सकती थी. भगवा गठबंधन अपने साथ छोटे-छोटे कई नेताओं को जोड़ चुका था, जैसे राजू शेट्टी, विनायक मेटे, जिनका मराठों में कुछ प्रभाव था, और धनगर नेता महादेव जानकर और दलित नेता रामदास आठवले को, जिनका अपना प्रभाव था.

एक वरिष्ठ भाजपा मंत्री ने बताया कि भाजपा चाहती थी कि दोनों भाई राजनीतिक रूप से एक हो जाएँ. ‘हालाँकि हम लोगों को अंदर से इस बात को लेकर शंका भी थी क्योंकि दोनों के बीच की कड़वाहट बहुत अधिक थी. गोपीनाथ मुंडे चाहते थे कि यह हो जाए, लेकिन असली गोपीनाथ (भगवान कृष्ण) जब महाभारत नहीं रोक पाए तो यहाँ कैसे कुछ होता? वह भी भाइयों के आपसी मतभेदों के कारण ही हुआ था.’

लोकसभा चुनाव के पहले नितिन गडकरी ने राज से कहा कि वे भगवा गठबंधन के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार न उतारें. मार्च 2014 में दोनों एक फ़ाइव स्टार होटल में मिले भी. वसंत गीते उस समय पार्टी के महासचिव और विधायक थे. उन्होंने बताया कि भाजपा ने राज को आकर्षक न्योता दिया था: विधानसभा की तीस सीटें और राज्यसभा की दो सीटें.

उद्धव ने मनसे को शामिल किए जाने का विरोध किया और उन्होंने भाजपा को चेतावनी दी कि भाजपा को अगर राज या शरद पवार से किसी तरह का समर्थन मिला तो इसका असर गठबंधन के ऊपर पड़ेगा.

‘पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि हम लोगों को प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए था क्योंकि हम क्षेत्रीय पार्टी थे और राष्ट्रीय स्तर पर हमारा कुछ दाँव पर नहीं था. मनसे लोकसभा चुनाव लड़ने से दूर रह सकती थी. हालाँकि हमारे नेताओं का एक गुट ऐसा था जिनके संबंध एनसीपी-कांग्रेस से अच्छे थे, उन्होंने ऐसा नहीं सोचा और उनकी राय मान ली गई’, गीते ने कहा.

आख़िरकार, मनसे ने नौ उम्मीदवार मैदान में उतारे. ज़्यादातर शिवसेना के ख़िलाफ़ थे. राज प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का समर्थन कर रहे थे लेकिन उन्होंने पुणे और भिवंडी दो ऐसी सीटों से अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे जहाँ से भाजपा चुनाव लड़ रही थी.

‘मोदी के साथ फ़्लर्ट करना राज की बहुत बड़ी ग़लती थी. उनको शायद ऐसा लगा कि भाजपा अगर शिवसेना को छोड़ने का मन बनाती तो वह उनके साथ गठबंधन कर सकती थी’, राजनीतिक विश्लेषक दीपक पवार का कहना था. उन्होंने आगे कहा कि भाजपा के मतदाताओं और संघ परिवार के समर्थक कुछ नेता मनसे की तरफ खिंच गए थे क्योंकि वे भाजपा से ऊब गए थे लेकिन वे कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के साथ नहीं जा सकते थे.

पुणे और कल्याण-डोंबिवली जैसे शहरों में मनसे की सफलता में यह बात दिखाई भी देती थी क्योंकि वहाँ ब्राह्मण बड़ी संख्या में थे जो भाजपा के मतदाता माने जाते थे. ‘लेकिन जब राष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी आ गए तो ये मतदाता वापस भाजपा में चले गए’, पवार का कहना था.

शिशिर शिंदे ने माना कि मराठी मानुस इस बात से दुखी था कि राज ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का समर्थन कर दिया था, लेकिन लोकसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार भी उतार रहा था.

नतीजे मनसे के लिए बहुत बड़ी आपदा की तरह थे, क्योंकि उनके उम्मीदवारों को धूल चाटनी पड़ी. शिवसेना ने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसको 18 सीटों पर जीत मिली, जो 2009 से अधिक थी, और भाजपा 23 सीटों पर विजयी रही. उस समय भाजपा-शिवसेना गठबंधन के साथ चुनाव में खड़े होने वाले राजू शेट्टी पश्चिम महाराष्ट्र में अपनी हातकणंगले सीट को बचा पाने में कामयाब रहे. 2010 में अशोक चव्हाण को आदर्श सोसाइटी घोटाले के कारण मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में वह और युवा कांग्रेस के अध्यक्ष राजीव सातव ही कांग्रेस की इज़्ज़त बचा पाए. उन्होंने क्रमशः नांडेड और हिंगोली सीटों से जीत दर्ज की.

चार सीटों पर एनसीपी को भी जीत मिली. शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले अपने पारिवारिक गढ़ बारामती से सत्तर हज़ार से भी कम मतों से जीत पाई. उसका मुक़ाबला किया था राष्ट्रीय समाज पार्टी के महादेव जानकर ने. एनसीपी के समर्थक भी यह मान रहे थे कि जानकर को उस चुनाव क्षेत्र में कम ही लोग जानते थे, लेकिन अगर वे भाजपा के टिकट से चुनाव लड़े होते तो शायद बड़ा उलटफेर कर देते.

उस समय महाराष्ट्र की सरकार में मंत्री रहे एनसीपी के एक नेता का कहना था कि मोदी की लहर धीरे-धीरे उठी, धीरे-धीरे ज़ोर पकड़ती गई और देखते-देखते सुनामी बन गई, जो रास्ते में आया सबको उखाड़ती-पछाड़ती. इसके कारण ऐसे लोग भी जीत गए जो नहीं जीत सकते थे.

उदाहरण के लिए, पश्चिमी महाराष्ट्र में भाजपा के एक उम्मीदवार की जीत, जिसको कांग्रेस के एक बड़े नेता के ख़िलाफ़ उतारा गया था. ‘वह आदमी समझ रहा था कि वह हारी हुई लड़ाई लड़ रहा था. वह दोपहर के खाने तक प्रचार करता था और फिर शरीर में दर्द का बहाना बनाकर घर जाता और बीयर पीकर सो जाता. लेकिन हैरानी की बात यह रही कि वह चुनाव जीत गया. मोदी लहर में इसी तरह से हो रहा था. लेकिन जो लोग चुनाव हारे उनके लिए नतीजे अप्रत्याशित थे, उसी तरह विजेताओं के लिए भी!’

1984 में राजीव गांधी को मिले बहुमत के बाद पहली बार नरेंद्र मोदी और भाजपा ने 282 सीटों के साथ लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया. कांग्रेस को महज़ 44 सीटें मिलीं.

शिवसेना पार्टी प्रमुख की मृत्यु के बाद अपना पहला चुनाव लड़ रही थी. उसके लिए ये नतीजे जैसे वरदान थे. मुंबई में उसने तीनों सीटों पर जीत दर्ज की, जहाँ मनसे ने उसके उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारे थे, जिन उम्मीदवारों में मुंबई उत्तर-पश्चिम से फ़िल्म निर्देशक महेश माँजरेकर भी थे.

कॉस्मोपोलिटन मुंबई दक्षिण चुनाव क्षेत्र, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक है, से शिवसेना के उम्मीदवार अरविंद सावंत ने सभी अनुमानों को धता बताते हुए कांग्रेस के क़द्दावर उम्मीदवार, केंद्रीय राज्य मंत्री मिलिंद देवड़ा को एक लाख से अधिक मतों के अंतर से पराजित कर दिया. बाला नांदगांवकर ने 2009 में कांग्रेस के मिलिंद देवड़ा के ख़िलाफ़ शिवसेना के उम्मीदवार को पीछे छोड़ते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था, और उनको एक लाख साठ हज़ार के करीब मत मिले थे. इस बार उनको महज़ 84 हज़ार मतों से संतोष करना पड़ा.

ऐसा लग रहा था कि कछुआ धीरे-धीरे ख़रगोश के पास आता जा रहा था.

इस समय भाजपा के लिए काम करने वाले शिवसेना के एक नेता ने यह दावा किया कि उद्धव ने काम करने की अपनी शैली में जो बदलाव किए थे और संगठन को मज़बूत बनाने के ऊपर ध्यान दिया था उसके नतीजे अब सामने आ रहे थे.

‘कांग्रेस और एनसीपी ने सहकारिता क्षेत्र में संस्थाओं का निर्माण किया जिसके कारण ग्रामीण इलाक़ों पर उनका नियंत्रण बना रहा. इसी तरह शिवसेना ने परिवारों की इसमें मदद की कि मराठी मानुस को बैंकों, बीमा क्षेत्र, पाँच सितारा होटलों में काम मिल सके. सौभाग्य से, ज़मीनी स्तर पर शिवसेना के साथ कार्यकर्ताओं का भावनात्मक जुड़ाव था, जो मनसे के साथ नहीं हो पाया. ‘यह ऐसा नहीं है जो रातोंरात हो जाता हो, इसमें समय लगता है’, उस नेता ने कहा. उन्होंने यह भी कहा कि मतदाताओं की ऊब को दूर करने के लिए शिवसेना ने दिन-रात काम किया, जो नहीं करने के कारण 2009 में उसके परिणाम अच्छे नहीं रहे थे, जबकि मनसे आरंभिक सफलता के बाद ही संतुष्ट हो गया.

संदीप प्रधान के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के उभार का मनसे को नुक़सान हुआ क्योंकि इसके कारण संभ्रांत उच्च और मध्यवर्गीय मतदाता भाजपा की तरफ़ चले गए.

‘मनसे के साथ जो युवा पीढ़ी जुड़ी हुई थी वह अधीर थी. वे जल्दी से जल्दी नतीजे चाहते थे और इसके लिए तैयार नहीं थे कि दस साल तक जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगाते रहें. उनको यह लगने लगा था कि शुरू में कुछ उम्मीद जगाने के बाद मनसे अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही थी. मनसे के विपरीत शिवसेना का बीएमसी पर शासन था जिसके कारण वह अपने समर्थकों को लाभ पहुँचाती रहती थी’, प्रधान ने कहा.

मनसे के नेताओं का दावा था कि बाल ठाकरे के बाद के दौर में शिवसेना के समर्थक और मतदाता राज की तरफ़ आ जाएँगे, लेकिन मनसे की योजना साफ़ तौर पर असफल होने लगी. ‘2012 में हमारे 28 पार्षद निर्वाचित हुए. लेकिन हमारे लोगों को सत्ता और सुविधाओं की आदत बहुत जल्दी पड़ने लगी थी, जिसके कारण कार्यकर्ता और मतदाता उलझन में पड़ गए’, मनसे के एक पूर्व विधायक ने कहा.

पूर्व कांग्रेस मंत्री के अनुसार 2014 के विधानसभा चुनावों में उद्धव की सफलता के कई कारण थे. एक, राज का करिश्मा उतार पर था. दूसरे, शिवसेना को जब 2009 में मनसे के कारण नुक़सान उठाना पड़ा था, तब से उसने अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं के बीच काफ़ी काम किया था. मनसे के पास यह नहीं था क्योंकि वह राज के करिश्मे के ऊपर ही निर्भर थी. ‘लोगों को राज का भाषण और उनका आक्रामक रुख़ अच्छा लगता था. लेकिन वह भीड़ को वोट में बदल नहीं पाए.’, उन्होंने कहा.

‘उद्धव में एक बहुत अच्छा गुण था कि वह लगातार काम करते रहते थे. राज ऐसा नहीं कर पाते थे. वे कुछ समय के लिए ध्यान खींचते फिर ग़ायब हो जाते, जिसके कारण उद्धव लम्बी रेस का घोड़ा हो गए.’, शिवसेना के एक सूत्र ने कहा.

2012 में जब बाल ठाकरे का देहांत हो गया तो कांग्रेस नेता कृपाशंकर सिंह के अनुसार मनसे के बुलबुले फूटने लगे थे. यह बात साफ़ हो गई कि वह शिवसेना की जगह नहीं ले सकती थी. ‘बाल ठाकरे का अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर जादुई प्रभाव था जो उनके मरने के बाद भी क़ायम रहा.’, शिवसेना के एक पूर्व नेता ने बताया.

बाद में सोचते हुए राज ने यह माना कि लोकसभा चुनाव लड़ने का उनका फ़ैसला बहुत बड़ी ग़लती थी. उन्होंने कहा कि ‘कई बार आप ऐसे फ़ैसले भी करते हैं जिनसे आप सहमत नहीं होते. मुझे चुनाव परिणामों से हैरानी नहीं हुई, क्योंकि मुझे लग रहा था कि इस हार से पार्टी उबर कर निकलेगी.'

प्रकाशक: राजकमल
लेखक: धवल कुलकर्णी
अनुवादक: प्रभात रंजन
मूल्य: 259 रुपये

 

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