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'सुरंजन कुछ भी करे लेकिन मुस्लिम से प्रेम नहीं करेगा, फिर अचानक सब कुछ क्यों बदल गया?'

पढ़िए तसलीमा नसरीन की 'बेशरम: लज्जा उपन्यास की उत्तर कथा' के पुस्तक अंश

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सत्यतसलीमा नसरीन का यह उपन्यास उन लोगों के विषय में है जो अपनी जन्मभूमि को छोड़ किसी और देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में, पराए माहौल और पराई आबोहवा में अपना जीवन बिता रहे हैं. कहने की ज़रूरत नहीं कि तसलीमा ने यह जीवन बहुत नज़दीक से जिया है. उनकी विश्व-स्तर पर चर्चित पुस्तक ‘लज्जा’ के लिए उन्हें कट्टरपंथियों ने देशनिकाला दे दिया था. इस उपन्यास में उन्होंने अपनी जड़ों से उखड़े ऐसे ही जीवन की मार्मिक और विचारोत्तेजक कथा कही है. उनका कहना है कि यह उपन्यास ‘लज्जा’ की तरह राजनीतिक नहीं है, इसका उद्देश्य निर्वासन की सामाजिक दुर्घटना और उसकी परिस्थितियों को रेखांकित करना है.

पुस्तक अंश- बेशरम

सुरंजन पुरुष था. अपनी मर्ज़ी से चलता था. अपनी मर्ज़ी का करने का उसके पास अवसर था. आज नौकरी शुरू की, कल छोड़ दी. आज कुछ करने की इच्छा नहीं हो रही, तो नहीं करेगा. उसकी सुरक्षा के लिए मां हैं. साड़ी-कपड़े बेचकर वे घर चला सकती हैं. मां उसकी देखभाल करती हैं. उसे अपनी पैंट-शर्ट धुली मिलती है. तकिया-बिस्तर साफ़-सुथरा मिलता है. भूख लगने पर खाना मिल जाता है. उसे भला क्या असुविधा है!
किरणमयी भी एक तरह से ठीक ही हैं. पति नहीं हैं. पैसा भी पहले से कम है लेकिन उनका बेटा, उनके मन की दौलत तो पास में है. बहू नहीं है. बेटे का ध्यान किरणमयी को बहू के साथ बांटना नहीं पड़ता. जब सुदेशना थी तो सुरंजन सुदेशना को लेकर ही व्यस्त रहता था. मां के पास थोड़ी देर बैठने, मां को क्या अच्छा लगता है क्या नहीं लगता, यह जानने तक का समय नहीं था उसके पास. वह पत्नी के साथ कॉलेज के लिए निकल जाता था, शाम को वे साथ लौटते थे. फिर शाम को ही वे बाहर निकल जाते. किरणमयी को बहुत अकेलापन लगता था. बेटे की शादी नहीं टिक सकी, कोई बात नहीं, बाल-बच्चे होते तो घर खुशियों से भरा रहता, लेकिन अब वैसा नहीं हुआ तो इसमें क्या बुरा है! सुरंजन अब पूरी तरह से उनका है. उनकी सोचकर सुरंजन घर लौट आता है. घर आते ही वह 'मां-मां’ कहकर आवाज़ लगाता है. किरणमयी का मन लबालब भर जाता. बेटे ने कभी भी उन्हें चुभती बात नहीं कही. बीमारी में वह दौड़कर डॉक्टर को बुला लाता है.
बुखार हो तो रात भर पास में बैठा रहता है. किरणमयी बीमार पड़तीं तो भी उन्हें आनन्द आता था. वे बेटे को अपने और ज़्यादा पास पाती थीं. इस उम्र में कितनों के भाग्य में बेटे को अपने निकट देख पाना नसीब होता है! आजकल तो बेटे शादी करके अलग ही रहते हैं, विदेश चले जाते हैं या फिर बहुएं उन्हें इस तरह कब्ज़े में रखती हैं कि बेटे मां के पास आने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते. सुरंजन कभी-कभी मां के लिए आम, सेब, केले, सन्तरे वगैरह खरीद लाता. मां, ज़रा यह खाओ तो! तबीयत ठीक रहेगी. किरणमयी को इसी में सुकून मिल जाता कि बेटा यह लाया, बेटे ने उनसे खाने का आग्रह किया. सारे फल काट-काटकर वे बेटे को ही खिला देतीं. ट्यूशन से जो थोड़े-बहुत पैसे मिलते, उनमें से थोड़े खुद रखकर सुरंजन बाकी पैसे किरणमयी के हाथों में दे देता ताकि वे घर चला सकें. पैसे बहुत ज़्यादा नहीं होते, लेकिन किरणमयी को बहुत सुकून मिलता. वे कामना करतीं कि काश, बेटे का प्यार पाते-पाते ही उनका अन्त समय आ जाए!

लेखकः तसलीमा नसरीन
लेखकः तसलीमा नसरीन

सुरंजन या किरणमयी को लेकर नहीं, मेरी चिन्ता माया को लेकर है. लड़कियां ही तो ठीक से नहीं रह पातीं. यह समाज लड़कियों को ठीक से नहीं रहने देता. निश्चित रूप से माया भी ठीक नहीं है. माया के लिए मेरा अन्तर लहूलुहान होता रहता है. एक दिन मैंने सुरंजन और किरणमयी दोनों से ही फोन पर बात की. मैंने पूछा कि माया कैसी है, मैं माया से मिलना चाहती हूं. माया अगर सुरंजन के घर आ जाए, तो मैं वहीं आकर मुलाक़ात कर लूंगी, या फिर वह मेरे घर चली आए. और अगर यह भी सम्भव नहीं तो मैं उससे उसकी ससुराल में मिल लूंगी.
किरणमयी ने मेरी इच्छा के जवाब में भले ही कुछ न कहा हो लेकिन सुरंजन बोला कि वह मुझे बाद में फोन लगाएगा और माया के विषय में मुझसे बात करेगा. मैं दिन भर इन्तज़ार करती रही, सुरंजन का फोन नहीं आया. अगले दिन भी वही स्थिति रही. कमाल है, किस चीज़ में इतना व्यस्त है, मैं कुछ भी अन्दाज़ नहीं लगा पाई. फिर मैंने एक एस.एम.एस. किया कि तुम तो बतानेवाले थे. इसका भी कोई जवाब नहीं आया.
नहीं, पुरुषों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. किरणमयी के पास तो फोन है नहीं, होता तो उन्हीं से बात कर लेती. सुरंजन को किरणमयी ने ही फोन खरीदकर दिया था, उन्हें अपने लिए एक फोन की ज़रूरत महसूस नहीं हुई. माया के लिए दया या कि माया के पूरे परिवार के लिए दयावश मैंने गड़ियाहाट के ट्रेज़र आइलैंड से किरणमयी के लिए दो और माया के लिए चार साड़ियां तथा सुरंजन के लिए एक कुर्ता-सब मिलाकर सात हज़ार रुपये के उपहार खरीदे. फिर मैं गाड़ी पर सवार हुई और तरुण से कहा कि पार्क सर्कस वाले उसी घर में जाना है. वहां पहुंचकर मैं सीधे सुरंजन के घर जा पहुंची. सुरंजन घर पर नहीं था, किरणमयी थीं. सोचा था, उन्हें सारे उपहार देकर लौट आऊंगी, लेकिन किरणमयी ने मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया.  कुछ-न-कुछ तो खाना ही पड़ेगा. मैं कब उनके घर में खाना खाने आऊंगी, इसे लेकर वे मनुहार करने लगीं. उस समय किरणमयी खाना खाकर उठी ही थीं, नहीं तो मैं उनके साथ खाना खा सकती थी. हालांकि वे सारी चीज़ें शायद मैं खा ही नहीं पाती. उनकी बड़ी इच्छा थी कि मेरे लिए एक दिन वे बढ़िया मछली वगैरह बनाएंगी.
मैंने जब माया के बारे में पूछा तो किरणमयी रो पड़ीं. वे रोती-रोती बोलीं कि उसकी बात मत पूछो मां, उसका दिमाग ठीक नहीं है. उसका दिमाग खराब हो गया है. अब उससे क्या मिलोगी? उसे देखकर तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा.
मैंने लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा- आप लोगों की यह दशा देखकर मुझे क्या अच्छा लग रहा है? मेरा मन कह रहा है कि माया ठीक नहीं है, मैं तभी तो माया को देखना चाहती हूं.
किरणमयी बोलती रहीं- मैं उसे समझाऊंगी. कहूंगी कि वह तुमसे एक बार ज़रूर मिल ले. उसकी कोई सहेली वगैरह भी नहीं है. वह कोई स्वाभाविक जीवन नहीं जी रही है. बांग्लादेश के लड़कों ने उस पर जिस तरह से अत्याचार किए थे, उसके तो जि़न्दा रहने की बात ही नहीं थी. पता नहीं, ये सारी चीज़ें उसके दिमाग से कैसे निकल पाएंगी! आज भी वे सारी बातें उसके लिए दु:स्वप्न की तरह हैं. उसने ज़बर्दस्ती कामना की थी कि वह एक नॉर्मल लाइफ जिएगी. कामना करने से ही हर चीज़ मिल पाती है क्या! हां, लेकिन, बुरे में अच्छा यह है कि वह अब भी नौकरी कर पा रही है. मुझे डर लगता है, कभी यह नौकरी छूट गई तो? सुना है कि वह दफ्तर में भी चीखती-चिल्लाती है. बांग्लादेश का प्रसंग आते ही वह ऐसा करती है. उस देश का कोई दिख जाए तो वह उस व्यक्ति पर विश्वास नहीं करती. वह उस समूचे देश से नाराज़ है. मैंने उसे बहुत समझाया, उससे कहा कि कुछ अच्छे लोग भी तो थे उस देश में. माया किसी भी हालत में इसे मानने को तैयार नहीं.
मैं चुपचाप सुनती रही. माया के गुस्से की वजह को समझने की कोशिश करती रही. माया के लिए मेरे मन में पहले से कहीं ज़्यादा करुणा उपजने लगी.
- मासीमां, मैं इन सबके बावजूद उससे मिलना चाहती हूं.
मेरे स्वर में आवेग था. लेकिन मैं समझ गई कि मेरा आवेग और माया का आवेग दोनों भिन्न प्रकार के थे. किरणमयी कह नहीं रही थीं, लेकिन मुझे अच्छे से समझ में आ रहा था कि माया मुझसे भयंकर नाराज़ है. 'लज्जा में मैंने उसे अगवा करके ले जानेवाली बात लिखी थी, सम्भवत: इसलिए. मुझे तो यह जानकारी थी कि उन लोगों ने माया की हत्या कर दी है. लेकिन माया आखिरकार जि़न्दा है. जि़न्दा है शायद इसीलिए उसे मरने की तकलीफ झेलनी पड़ी. अगर उसकी मौत हो जाती तो वह सचमुच बच जाती. लड़कियों को तो मरे बिना मुक्ति नहीं मिलती. माया के लिए मेरी आंखें आंसुओं से भीग उठीं.
चाय रखी रही. किरणमयी बैठी रहीं. मैं तेज़ी से बाहर निकल गई. मैंने तय किया, जो लोग मुझे समझने में गलती करके मेरी सूरत नहीं देखना चाहते, उनके दरवाज़ों पर बार-बार दस्तक देने की मुझे ज़रूरत नहीं है. मैं तो अपने ढंग से ही रहूंगी. अपने जीवन को लेकर मेरी भी तमाम दुश्चिन्ताएं हैं. मैं कोलकाता में रहने आई हूं, यहां मैंने एक भरी-पूरी गृहस्थी जमा ली है. मुझे अभी तक नहीं मालूम कि मेरा यहां रहना सम्भव हो पाएगा या नहीं. मुझे किसी भी समय बोरिया-बिस्तर समेटकर जाना पड़ सकता है. कहां जाऊंगी, उस बारे में कुछ नहीं पता. कोलकाता में रहने के दौरान मेरे बहुत सारे दोस्त बने हैं. लेकिन उनमें से ज़्यादातर ही सच्चे दोस्त नहीं हैं. मैं यह समझती हूं. मुझे इसका एहसास होता है.
मैं अपने कामों में व्यस्त रही. सुरंजन पर कुछ नाराज़गी थी. उसने फोन करने को कहकर भी नहीं किया था. उसने एस.एम.एस. का जवाब भी नहीं दिया था. मैंने इतना अच्छा कुर्ता उसे तोहफे में दिया, उसने धन्यवाद तक नहीं कहा और अब पन्द्रह दिन बीत जाने के बाद फोन करके कह रहा है कि उसे मुझसे मिलना है. आह, घर की खेती है! सोचा था, कह दूंगी कि मैं व्यस्त हूं, मुलाकात नहीं हो सकती. बाद में फोन करना. लेकिन नहीं, मैं ऐसा कह नहीं पाई. दरअसल बात यह है कि मैं बनावटीपन बर्दाश्त नहीं कर पाती. मेरी जो इच्छा होती है, वही करती हूं. जितने दिनों तक नाराज़गी रहती है, उतने दिनों तक आवेग की रास खींचकर रखती हूं. लेकिन मेरी नाराज़गी भी कितने दिन टिक पाती है भला!
सुरंजन ने जो आने की इच्छा प्रकट की थी, मुझे लगा कि चार साड़ी और कुर्ते का जो पैकेट मैं उन्हें दे आई थी, शायद वह लौटाने आएगा. उसे वापस लेने के लिए मैं तैयार भी हो चुकी थी. मैंने सोच लिया था कि उन्हें अपने दोस्तों में बांट दूंगी. इसके अलावा और किया भी क्या जा सकता था!
लेकिन जब सुरंजन आया तो उसके हाथ में पैकेट नहीं था. उसके हाथ में टिफिन कैरियर था. क्या है उसमें? खाने की चीज़ें. किरणमयी ने आज ही अपने हाथों से तमाम चीज़ें बनाकर भेजी थीं.
अब यह सब क्या भेजा है? खाने की चीज़ें भेजने की क्या ज़रूरत थी? मेरा फ्रि़ज खाने की चीज़ों से ठसा-ठस भरा हुआ है. मैं उन्हें खाकर खत्म नहीं कर पाती, चीज़ें फेंकनी पड़ती हैं. इस पर खाने की और चीज़ें? उफ़! यह सब बड़बड़ाती हुई मैंने रसोईघर में ले जाकर टिफिन कैरियर खोला और मिनती से कहा- यह सब खाली करके डिब्बे धोकर वापस दे दो. यह कहकर मैं देखने लगी कि उन्होंने क्या पकाया है तो मुझे दिखाई दी पंचफोड़न वाली मसूर की दाल, मछली का सिर डालकर बनी हुई अरबी के तने की सब्ज़ी, मुड़ीघंटो, लटे मछली की शुटकी, कद्दू के पत्ते में लपेटकर तली हुई मछली. मैं बहुत देर तक टिफिन के उन डिब्बों को निहारती रही. आंखें आंसुओं से भर उठीं. आंखें आंसुओं के प्रवाह में बह गईं.
टिफिन कैरियर के डिब्बे के ऊपर एक छोटी-सी पर्ची फंसाकर रखी हुई थी. मैंने उसे पढ़ा.
मां तसलीमा, मेरा प्यार स्वीकार करना. भेजी हुई चीज़ें ज़रूर खाना. मैंने तुम्हारे लिए अपने हाथों से बनाकर कुछ मामूली-सी चीज़ें भेजी हैं. ये चीज़ें बनाकर यहां तुम्हें कौन खिलाएगा भला! तुम्हारे बारे में सोच-सोचकर मैं अकेले में रोती हूं. तुम सावधान रहना मां! हौसला रखना.
मैं उस कागज़ को पकड़े रही. लिखे हुए पर टप-टप करते आंसू गिरने लगे और वह लिखावट धुंधली होती गई. ठीक उसी वक्त ड्रॉइंगरूम में मेरा सुरंजन के सामने जाना सम्भव नहीं हो सका. मुझे आंंसू पोंछने के लिए वहां थोड़ी देर और रुकना पड़ा, और थोड़ी देर गले के स्वर को सुखाने के लिए भी.
सुरंजन अपने साथ जिस लड़की को लाया था, उसे मैंने सुरंजन के यहां देखा था, जिस दिन पहली बार मैं उसके घर गई थी. यह वही लड़की तो है. उसने बाल चोटी की शक्ल में गूंथ रखे थे. हलके पीले रंग का ब्लाउज़ और हलके हरे रंग की साड़ी पहनी थी. उस लड़की के चेहरे पर स्निग्ध हंसी थी. आंखें बड़ी-बड़ी और मिठास से भरपूर चेहरा. बहुत छरहरी नहीं थी, चर्बी जमने की चाह रखनेवाला शरीर था उसका. हालांकि अभी तक कोई खास जमी नहीं थी. सुरंजन उसकी बगल में खड़ा था. घुंघराले बाल थे. चौड़ा माथा. गहरी आंखें. नाक उतनी तीखी नहीं थी, लेकिन चेहरे पर बहुत फबती थी. सबसे सुन्दर थे उसके होंठ और ठोड़ी. मानो किरणमयी के होंठ और ठोड़ी उस पर लगा दिये हों. और गाल पर वही तिल. उस अकेले तिल ने ही उस चेहरे को मानो पूरी तरह बदल दिया था. सुरंजन आज वह कुर्ता पहन सकता था, लेकिन उसने नहीं पहना. उसने सफेद कमीज़ और काली पतलून पहनी थी. मैंने गौर किया कि सफेद कमीज़ पहनने पर लड़के बेहद खूबसूरत दिखते हैं. डॉ. सुब्रत मालाकार जब अपनी तमाम रंगीन कमीज़ों को छोड़कर सफेद कमीज़ पहनते हैं तो वे सबसे ज़्यादा खूबसूरत दिखते हैं. मालाकार मेरे ल्यूकोडर्मा के डॉक्टर हैं. कुछ दिनों पहले मुझे अपने हाथ पर सफेद दाग दिखाई दिये थे. हाथ के पिछले हिस्से में वे दाग अब भी मौजूद हैं. वे बढ़े नहीं हैं. मालाकार इलाज कर रहे हैं, हालांकि ठीक होने के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे, लेकिन डॉक्टर के साथ इस थोड़े-से समय में ही मेरी गहरी मित्रता हो गई है. अच्छे लोगों के साथ बहुत जल्दी मित्रता हो जाती है. हालांकि बुरे लोगों के साथ भी हो जाती है. लोग अच्छे हैं या बुरे इसे समझ पाने में मुझे बहुत साल लग जाते हैं.
- जुलेखा के साथ तो आपका परिचय हो चुका है न? - सुरंजन ने पूछा.
मैंने कहा- हां, हो चुका है.
बैठिए. - मैंने जुलेखा से कहा.
- उसे 'तुम’ कहिए. वह आपसे बहुत छोटी है.
- उम्र में छोटे होने की वजह से मैं किसी को 'तुम' नहीं कह पाती सुरंजन. अचानक किसी अपरिचित को मैं 'तुम’ नहीं पुकार सकती. बहुत अजीब लगता है, और इसके अलावा...
मेरे स्वर में रूखापन था.
-कुर्ता पसन्द आया? -मैंने सुरंजन से पूछा.
-हां. छोटा सा जवाब आया.
-लेकिन तुमने तो पहना नहीं?
- इतने महंगे कुर्ते पहनने की मुझे आदत नहीं है. सोचता हूं कि उसके बदले किन्नरी से कुछ सस्ते कुर्ते ले लूं.
- क्यों? मैंने जो दिया, उसे रखा रहने दो. कभी-कभी पहना करो.
- तो फिर शादी के दिन पहनूंगा.
ऐसा कहकर सुरंजन जुलेखा की ओर देखकर हंसा.
जुलेखा भी होंठ दबाकर मुसकरा दी.
सुरंजन के इस व्यवहार का निहितार्थ क्या होगा, मुझे नहीं पता. क्या वह यह कहना चाहता है कि वह जुलेखा से प्यार करता है, उससे शादी करनेवाला है? मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता. सुरंजन अपने जीवन में और कुछ भी करे लेकिन किसी मुसलमान लड़की से वह प्रेम नहीं करेगा. किसी मुसलमान से वह शादी नहीं करेगा, इससे कठोर सच और कुछ भी नहीं था, तो फिर अकस्मात् सब कुछ क्यों बदल गया? मैं ठीक से नहीं समझ पाई कि मुझे क्या कहना चाहिए. सुरंजन जुलेखा को क्या किसी जाल में फंसा रहा है या कि सचमुच यह कोई प्रेम-सम्बन्ध है? इन सबके बारे में सोचती हूं तो मेरा दिमाग चकराने लगता है. मैं चाय बनाने चली गई.
चाय बनाने के लिए मिनती से कहा जा सकता था. लेकिन मैं खुद क्यों बनाने चली गई? उनके सामने बैठना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था, इसलिए. अच्छा क्यों नहीं लग रहा था? वे अगर एक-दूसरे से प्यार करते हैं, फिर तो मुझे ही सबसे ज़्यादा खुश होना चाहिए था. इसका मतलब यह हुआ कि सुरंजन अब कट्टरपन्थी नहीं रहा, अब वह उदार है. वह जिससे प्यार करता है, उसका धर्म नहीं देखता.
मैं बहुत देर तक चाय बनाती रही. अचानक सुरंजन रसोई के दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ.
-आपको हुआ क्या है? -सीधा सवाल था.
- क्यों, कुछ भी तो नहीं हुआ!
-आप तो यहां चली आईं!
-चाय बना रही हूं.
-चाय बनाने की ज़रूरत नहीं है. आइए, आपसे थोड़ी देर बातचीत करके हम चले जाएंगे.
-चाय पीकर जाना.
सुरंजन ने बहुत गहरी निगाहों से मेरी ओर देखा, मानो वह मेरी अन्तरात्मा को भेद देगा. मानो वह मेरी हर तरह की सोच को खत्म कर देगा. वह मेरे हर विचार को देख लेना चाहता था.
-इसके साथ तुम्हारा क्या रिश्ता है?
-किसके साथ?
-यह लड़की, जिसे तुम साथ लाए हो।
-ओ, जुलेखा के साथ? मैं क्या बताऊं!
-बता दो!
-दोस्ती है.
-सिर्फ दोस्ती?
-असल में दोस्ती से भी बढ़कर.
-प्यार?
-हां, प्यार. ऐसा कह सकते हैं.
-ओ!
-क्यों, आप कहानी लिखेंगी?
-नहीं-नहीं.
-आप तो जो देखती हैं, जो सुनती हैं, उसे लिख डालने की आदत है आपको.
-क्यों, तुम लोगों के बारे में लिखकर क्या मैंने गलती की है?
-हमें इससे क्या फायदा हुआ?
-लिखना क्या फायदे के लिए किया जाता है? मैंने तो जानकारियां दी हैं, क्या यह काफी नहीं?
-अगर कोई फायदा न हो, अगर कोई फर्क ही न पड़े तो फिर जानकारी देने की क्या ज़रूरत है?
-मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आ रही है.
अब उनका जो भी रिश्ता रहा हो, मैं भला क्यों सिर खपा रही हूं? सुरंजन मेरे उपन्यास के मुख्य चरित्र के अलावा तो कुछ नहीं है. बहुत सालों बाद अचानक उससे मुलाक़ात हुई है. सौजन्यवश मैं इतना तो पूछ ही सकती हूं कि वह कैसा है, क्या कर रहा है. लेकिन मेरे यह भूल जाने से काम नहीं चलेगा कि बांग्लादेश वाले सुरंजन और यहां के सुरंजन में आकाश-पाताल का अंतर है. राजनीतिक पृष्ठभूमि में ही तो सबसे बड़ा अंतर है. सुरंजन उस समय अल्पसंख्यक था, अब वह बहुसंख्यक है. समूचा समाज बहुसंख्यकों के साथ है. इसलिए उसकी दरिद्रता को लेकर आंसू बहाने की कोई ज़रूरत नहीं. अगर वह चाहेगा तो उसे अपने हालात बदलने के मौके मिल ही जाएंगे. जुलेखा के साथ उसके ताल्लुक उसका नितांत निजी मामला है. अगर उसे किसी मुसलमान लड़की के साथ सम्बन्ध रखना अच्छा लगता है तो इसमें क्या असुविधा है!

किताब का नामः बेशरम लेखकः तसलीमा नसरीन प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन उपलब्धता: ऐमज़ॉन
मूल्यः 215 रुपए (पेपरबैक)



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