मुंबई के चर्चगेट के पास बने ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर में जब दी लल्लनटॉप शो शुरू हुआ, तो पब्लिक दबाके खुश थी. फिल्म इंडस्ट्री और लिट्रेचर से जुड़े एक से एक धुरंधर आ रहे थे और बतिया रहे थे. इसी सीक्वेंस में चौथा सेशन रहा 'पिक्चर वाली पोयम' का. यानी वो पोयम, जो फिल्मों में आती है, हम सुनते हैं, याद करते हैं, गाते हैं, लेकिन उसे कभी कविता वाला सम्मान नहीं देते.
जब 'चिट्टियां कलाइयां' सुनकर रहमान को लगा, 'चिट्टियां' साउथ इंडियन शब्द है
जब लल्लनटॉप शो में मिल बैठे तीन यार. राजशेखर, पुनीत और कुमार. दिल खोलकर पढ़ते ही जाइए बस.

इस सेशन में हमारे साथ थे राजशेखर (ओ रंगरेज, ओ साथी मेरे, घणी बावरी), पुनीत (चंदा की कटोरी है, बर्बादियां, ट्विंकल ट्विंकल) और कुमार (बेबी डॉल, चिट्टियां कलाइयां, काला चश्मा), जिन्होंने गाना लिखने के प्रॉसेस से लेकर उसके फिल्मों में जाने तक की ढेर सारी बातें बताईं. इस प्रॉसेस में राइटर से लेकर फिल्ममेकर को क्या महसूस होता है... सब कुछ. अब आप शो में तो आ नहीं पाए, तो यहीं लुत्फ लीजिए. सेशन कॉर्डिनेट कर रहे कुलदीप 'सरदार' ने पूछा कि कभी अपना लिखा हुआ कुछ खराब लगा है, तो पुनीत ने बताया...
े'मैं अपना ही उदाहरण देता हूं. तीसरा-चौथा महीना था मुंबई में और जेब खाली थी. तीन दिन बाद किराया देना था और पैसा नहीं था. तभी मेरे पास एक फोन आया कि गाना लिखना है. मैंने कहा बिल्कुल लिखूंगा. उस आदमी ने मुझे कुछ ब्रीफ भी दिया, वो मैं लिखता रहा. मैंने गाना पूरा किया. किसी तरह पैसा मिला, किराया भरा और टेंशन कम हुई. तब दिमाग काम करना शुरू किया. फिर मैंने वो गाना पढ़ा. मैं देर तक उस गाने को देखता रहा. मैं शुद्धतावादी नहीं हूं, पर वो गाना बहुत खराब था. वो बहुत खराब गाना था.'
फिल्मी गानों का असर कविता से ज्यादा होता है. इसी मसले पर सरदार ने पूछा कि क्या फिल्मों के लिए लिखते हुए आप लोगों को कभी ये नहीं लगा कि हमें एक कवि के तौर पर पहचान नहीं मिली. क्या आपके अंदर का कवि फिल्मों से मिले ब्रैकेट को आगे सरकाना चाहता है? मन करता है कि किसी चालाकी से इसे सरका लें? इस पर्सनल से सवाल पर कुमार ने कहा,
'कवि छोड़िए, जो पहचान बनी है, वो भी मैंने कभी सोचा नहीं था. गीत भी कविता की गोद से निकला अंग है. मुझे लगता है कि पहले कविता बनी होगी, फिर उससे गीत बना होगा. जो भी राइमिंग हो रहा है, उसमें कुछ खराब नहीं है. अभी मैं फिल्मों के लिए गाने लिख रहा हूं, तो मैंने पेपर-पेन पकड़कर कभी सोचा नहीं कि मैं ऐसा करूंगा, तो अच्छा हो जाएगा. मेरी राइटिंग सचिन और गिलक्रिस्ट जैसी रही है. रवि शास्त्री की तरह बैकफुट पर मुझे नहीं खेलना. मेरा फॉर्मेट सेट है. जब प्रॉब्लम आएगी, तो बैकफुट पर खेलेंगे. अभी सब सही चल रहा है.
देखिए इस इवेंट का एक वीडियो...
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इस बारे में राजशेखर ने बड़ी अच्छी बात कही कि...
'पहले मैं अपोलोजेटिक होता था कि मैं कवि हूं या नहीं. मैं हूं. अब मुझे पता है कि इन्हीं 16 लाइनों, दो अंतरे और एक मुखड़े में मैं कवि हूं. यही है मेरी कविता. मुझे ये नहीं लगता कि मैं बहुत अच्छा लिख सकता था और मुझे मौका नहीं दिया जा रहा, तो मैं लिख नहीं पा रहा हूं. मैं फिल्मी गीत को कविता मानता हूं. जरूरी नहीं कि जितना लिखता हूं, सब फिल्मों में खप जाए. बहुत कुछ है, जो डायरी में दबा है. कुछ अंतरे, जो पूरे नहीं हुए. सब कविता है.'
प्रैक्टिकली इस मामले में क्या दिक्कत आती है, उसके बारे में कुमार ने बताया कि...
'रेडियो वगैरह की वजह से लिमिट सेट हो गई है कि 2:40 से 3:10 मिनट का गाना लिखना है. लिखने से पहले ही ऐसा बोल दिया जाता है. ऐसे में वो दूसरा अंतरा खुद ही रोने लगता है कि क्यों लिख रहे हो मुझे. ये मेरी समस्या नहीं है. मैं तीन क्या, 10 अंतरे लिखने को तैयार हो. आप चलाओ तो. जो जाना नहीं है, वो क्यों लिखूं मैं. अब आनंद बख्शी को क्या कहेंगे आप.'
पुनीत इस बारे में कहते हैं, 'मेरी कविता की सारी पढ़ाई गानों के जरिए ही हुई है. किताबों से कोई कनेक्शन नहीं था. मेरे बड़े पापा को पुराने गाने पसंद थे और वो मुझे पकड़-पकड़कर गाने सुनाते थे. वो चीज बात में काम आई. मेरी ये कोशिश नहीं होती है कि मैं गीत में अपनी सारी कविता झोंक दूं. मैं गीत लिखने की ही कोशिश करता हूं.'
इसके बाद सरदार ने इन लल्लनटॉप राइटर्स से पूछा कि हॉलीवुड में गाने तो होते ही नहीं हैं, जबकि बॉलीवुड में बिना गानों के काम ही नहीं चलता है. तो आपको क्या लगता है कि ये इंटरनेशनल ऑडियंस के मिजाज का फर्क है या कुछ और है. इस बारे में कुमार ने बताया...
'अब इसके बारे में क्या कह सकते हैं. अब उनकी फीलिंग ही नहीं जुड़ती होगी गानों से. हिंदुस्तान में गानों के बगौर फिल्में इमैजिन करना ही मुश्किल है. हॉलीवुड का फॉर्मेट वैसा होगा. उन्हें गानों की जरूरत नहीं होती होगी. हमें तो कॉमर्शियल गाना मिलता है, तो कई बार डायरेक्टर स्क्रिप्ट घुमा देते हैं. आपको लगता है 'बेबी डॉल' स्क्रिप्ट का गाना होगा? कभी कॉमर्शियल गाना जोड़ दिया जाता है, कभी रेडीमेड गाना डाल दिया जाता है. 'शंघाई' में भी गाना आखिरी मूवमेंट पर लिखा गया था और जोड़ा गया था.
एक सवाल, जिसका जवाब हर कोई जानना चाहता है कि गाना लिखने से पहले राइटर कितनी माथा-पच्ची करते हैं. यही सवाल जब सरदार ने इन राइटर्स से पूछा, तो पुनीत ने बताया...
'कई बार हमें लगता है कि किरदार के बारे में हम डायरेक्टर से ज्यादा जानते हैं, तो हम उस हिसाब से लिखने की कोशिश करते हैं. कई बार कॉल आती है कि लव सॉन्ग चाहिए, तो डिमांड के हिसाब से लिखना पड़ता है.
कुमार बताते हैं, 'बेबी डॉल के लिए कोई ब्रीफिंग नहीं थी. उसमें एक लाइन है, 'ये दुनिया पित्तल दी...'. मुझे तो पहले ये भी नहीं पता था कि हिंदी में 'पीतल' होता है. मैं कनेक्शन के बजाय फ्लो में जाना पसंद करता हूं. अब किसी को समझ में ही नहीं आ रहा है, फिर भी गाना चल रहा है. अब इसमें मेरी गलती नहीं है न सर. 'चिट्टियां कलाइयां' के समय मैं रहमान साहब के साथ बैठा था. उन्हें लगा कि 'चिट्टियां' साउथ इंडियन वर्ड है. मैंने एक गाना लिखा था, 'तारे गिन-गिन याद सताए...'. उसमें जो 'हो हो...' था, वो मैंने दर्द दिखाने के लिए लिखा था. लेकिन बाद में लोग उस पर नाच रहे थे.'
इसके बाद सवाल उठा कि लिखते समय कौन सा पैरामीटर मायने रखता है अब? ये कि भाषा पहले रहेगी या ये कि गाना जुबान पर चिपक जाए. इस पर राजशेखर ने बड़ी ईमानदारी से बताया...
'मैं जब मैथ्स छोड़कर हिंदी की तरफ गया, तो नहीं पता था कि मीटर एक बार फिर जिंदगी में आ जाएगा. मैं पहले लिखता हूं, उसके बाद धुन बनती है. तो मेरे पास कहने का मौका होता है. जब मैं मीटर में लिखता हूं, तो ब्रैकेट होता है. हमें लिमिट में लिखना पड़ता है. लेकिन ब्रैकेट में सब कुछ पूरा कर पाना मुश्किल तो होता है.'
देखिए इस इवेंट का एक और वीडियो...
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