
विजयदान देथा
कल्पना, कल्लोल कल्पना ही इंसान को बचाएगी. नींद में भी, उसके पार भी. विजयदान देथा उर्फ बिज्जी की कहानियां हमारी संजीवनी बूटी हैं. इन्हें पढ़ें. 1 सितंबर बिज्जी का बर्थडे होता है. तस्वीर देखिए. हमारे आपके बाबा से दिख रहे हैं. खादी की सदरी बने. मोटे लेंस के चश्मे से छांकती दुलारती आंखें. दूध उमड़ आया हो जैसे. इस आशीर्वाद को हम पूरे आठ दिन बांचेंगे. बिज्जी का हफ्ता 1 सितंबर से शुरू हो गया है. हफ्ते भर में सात कहानियां और आठवीं कहानी ब्याज में.
हम आपको ये कहानियां पढ़वा पा रहे हैं, इसके लिए दिल से शुक्रिया बीकानेर के वाग्देवी प्रकाशन का. उन्होंने हमें बिज्जी के लिखे ये अक्षर, ये किस्से मुहैया कराए. ये कहानियां लजवन्ती- बिज्जी की प्रेम कथाएं किताब से हैं. किताब की कीमत 80 रुपये है. अब आप हैं और बिज्जी हैं. हवा पर दौड़ने का वक्त हो चला है कॉमरेड. खुद अपने ही फेफड़ों में हवा भर.
उलझन
बीज बेहतर या फल बेहतर अंधेरा बेहतर या उजाला बेहतर उदय बेहतर या अस्त बेहतर शुरुआत बेहतर या अन्त बेहतर राह बेहतर या मंजिल बेहतरतो सूरज भगवान की किरणों के हिंडोले पर सारी दुनिया झूलती है कि धरती के किसी एक रास्ते पर लक्खी बनजारे का कारवां जा रहा था. केसर-कस्तूरी का कारोबार और हीरे-मोतियों की आढ़त. देश का राजा भी उसकी इज्जत करता था. तिस पर लाखों में एक अप्सरा-सी बनजारी. चांद-सूरज उनकी पलकों पर ही उगते और अस्त होते थे. दो जिस्म, एक जान. सबसे आगे बनजारे का सुनहरा रथ चल रहा था. उसकी गोद में सोयी बनजारी बातों में मशगूल थी कि सहसा भेड़ों की में-में सुनायी दी. बातों का सिलसिला टूट गया. वह अचकचाकर उठ बैठी. नजर में न समाये, इतना रेवड़. मुंह नीचा किये धरती-मां को अपनी-अपनी खैरियत का हवाला देती आगे बढ़ रही थीं. दोनों अचरज से भेड़ों का भोलापन देखते-सुनते रहे. अपनी-अपनी काया में सब कोई मस्त हैं! इसी बीच बनजारे की नजर रेवड़ का पीछा करते एक भालू पर पड़ी. उसने फौरन तरकस से तीर निकाला और कमान पर चढ़ाया. तीर छोड़ने ही वाला था कि बनजारी ने उसका हाथ थाम लिया, बोली, ‘ठहरो, यह आदमी जैसा लगता है!’
‘आदमी?’
वह गहरी सांस भरकर बोली, ‘ध्यान से देखो. गजब हो जाता.’
वो मुंह बिगाड़कर बोला, ‘कुछ भी गजब नहीं होता. ऐसे आदमी, आदमी के नाम पर दाग हैं. इसे खत्म करना ही होगा. तभी आदमी की शान बनी रह सकेगी. आदमी का यह रूप देखकर मेरा सर शर्म से झुका जा रहा है. मुझे रोक मत.’
वह हठ करते बोली, ‘आदमी, आदमी होता है. कोई ताकतवर, कोई कमजोर. कोई अमीर, कोई गरीब. कोई चतुर, कोई अबूझ. सब, माहौल और सोहबत का असर है.’
बनजारी के हाथ में पकड़ा तीर जैसे बनजारे के कलेजे के पार हो गया. हैरानी से आंखें सिकोड़कर कड़कती आवाज में कहा, ‘माहौल! सोहबत! मेरी पत्नी होकर तू ऐसी बातें करती है! भला, पुरखों का कहा कभी गलत हो सकता है! जैसा बीज, वैसा दरख्त. आक में आक ही लगेगा, आम नहीं. खानदानी तासीर को कैसे झुठलाया जा सकता है! इसकी सात पुश्तों में घुन लगा है. इसे जनम देने वाली कोख ही खराब है.’
वह मुस्करायी. कहने लगी, ‘किसी मां की कोख खराब नहीं होती.’
उसने पूरी बात सुनी ही नहीं. बीच ही में उबल पड़ा, ‘तेरी इतनी मजाल कि तू मेरी मां का मुकाबला इस ढोर की मां से करे!’
आज पहली बार उसने पति की सख्त आवाज सुनी. कानों में जैसे गर्म सीसा उड़ेला हो. आपा बिसारते बोली, ‘न किसी मां की कोख खराब होती है और न किसी बाप का अंश. ये सब तो जनम के बाद के खेल हैं. जो जैसा देखेगा-सुनेगा, वैसा ही तो बनेगा.’
बनजारे की जबान भी आज पहली दफा ऐंठी थी. बदहवास-सा बोला, ‘इसका मतलब, दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती मेरी शोहरत के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं! राजा यूं ही मेरी कद्र करते हैं?’
बेकार बात बढ़ाने से क्या फायदा! मुस्कान को जबरन रोककर वह चुप हो गयी. वह खामोश मुस्कान बनजारे के कलेजे में बिजली की तरह कौंधी. हाथ पकड़कर धकियाते हुए उसे रथ से नीचे उतारा. फिर भालू की तरह चारों हाथ-पैरों पर चलते उस आदमी की तरफ उसे घसीटते कहने लगा, ‘तेरी इतनी औकात कि तूने मेरा इससे मुकाबला किया! पहले आंखें खोलकर इसे देख तो सही.’

घरवाली को घसीटते हुए वो उस भालूनुमा आदमी का पीछा करने लगा. कमर पर दरख्त की छाल. लम्बे नाखून. कीचड़ सने बालों की लटकती पूनियां. मोटी बेजान खाल के तलवे और हथेलियां. चमकते दांतों की अबूझ हंसी. भेड़ों की तरह पानी में मुंह डालकर प्यास बुझाता. उन्हीं की तरह फुर-फुर होंठों से भूख मिटाता. बनजारा हंसे बिना न रह सका. बनजारी का हाथ छोड़कर आप ही हंसता रहा. हंसते-हंसते ही बोला, ‘तुझे आज यह क्या औंधी सूझी! बेकार मुझे चिढ़ाया! अब तो मेरी बात पर यकीन आया?’
उसने कोई जवाब नहीं दिया. गुमसुम, आदमी के उस बिगड़े रूप को फटी-फटी आंखों से देखती रही. सर में बवण्डर-सा उठा. उसे अपनी अलग राय दरसाने का हक भी नहीं? फकत रोटी-कपड़ों की खातिर शौहर की गुलामी करती है? रोटी चाहे जैसी हो, है तो रोटी ही. कपड़े चाहे कितने ही कीमती हों, हैं तो बदन ढांपने के लिए ही. हम-बिस्तरी के अलावा उसकी कोई अहमियत नहीं? उसके रोयें-रोयें से चिनगारियां चटकने लगीं.
बनजारी को इस तरह खामोश देखकर उसका गुस्सा काफूर हो गया. उसके गालों को सहलाते कहने लगा, ‘पहले तो अंट-शंट बक देती है, फिर उसका पछतावा करती है!’ बनजारी को लगा, जैसे कोई उसके दिल पर आरी चला रहा हो. सर को झटका देकर, विद्रूप मुस्कान के साथ बोली, ‘पछतावा! पछतावा काहे का! मैं अब भी अपनी बात पर कायम हूं.’
पति का खून खौल उठा. लाडो के इतना गरूर! इतनी मैं! छिनाल बहुत सर चढ़ गयी. चोटी पकड़, जोर से झटका देते कहने लगा, ‘तो अपनी बात पर कायम ही रहना. हरगिज डिगना मत. कुतिया को ज्यादा मुंह लगाया, जिसका यह फल तो मिलना ही था. शराफत से मेरा सारा गहना दे दे, फिर सारी उम्र इसकी सोहबत का मजा ले. मुझे पहले ही मालूम था कि जानवरों के बिना तेरी हवस पूरी नहीं होगी.’
इस भोंड़ी और फूहड़ बात के जवाब में कहने को तो वह दसों बातें कह सकती थी, पर उसने अपने होंठ सी लिये. ऐसी निर्लज्ज बात का क्या जवाब दे. ऐसे आसरे से तो मौत भली. घिन और सूग से उसका मुंह कसैला हो गया. लानत है ऐसे सुहाग और ऐसे गहनों पर.
वो भालू पीछा करने वालों से डरता, आगे-आगे चल रहा था. ऐसा नजारा कभी देखने को नहीं मिला. उनके बोल न समझते हुए भी वो बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा था. वे उसका पीछा क्यूं कर रहे हैं? उसने उनका क्या बिगाड़ा? पर उस आदमी ने जब सोलह-सिंगार सजी उस औरत की चोटी पकड़ी तो उससे यह छुपा न रहा कि यह गुस्से की हरकत है. शायद अकेली देखकर बेचारी को तंग कर रहा है. उसकी आंखें अंगारों-सी दहक उठीं. तोप से छूटे गोले की तरह वो छलांगें भरता आनन-फानन में उनके पास जा पहुंचा. अपनी ओर घूरती उन सुर्ख आंखों पर नजर पड़ते ही बनजारे का खून सूख गया. इन तीखे नाखूनों की गिरफ्त में आते ही हंसा कूच कर जायेगा. कांपते हाथों से आधे-दूधे गहनों की पोटली लिये वो पीछे खिसकने लगा. बनजारी ने फिर उसकी ओर देखा तक नहीं. बुरे ख्वाब की तरह यह कैसी अचीती बिजली गिरी!
कुछ देर बाद राम जाने क्या सोचकर वो बनमानुस छाती ठोंककर उसे अटपटे इशारे में समझाने लगा कि उसके रहते उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. वो जंगली जानवरों से भी ज्यादा ताकतवर है. कि सहसा उसने चौंककर रास्ते की ओर अंगुली की. बनजारी ने उधर देखा तो उसे एक गड़रिया हाथ में लाठी लिये आता दिखा. लाल टूल का गोल साफा. एक हाथ में चांदी का कड़ा. आबनूसी रंग. दो हिस्सों में बंटी अधपकी दाढ़ी. दूर से ही बत्तीसी दिखाता, बनमानुस के बहाने उसे सुनाते कहने लगा, ‘आज तेरे भाग की यह परी कहां से उतर आयी! कभी पानी में अपनी सूरत देखी है?’
आदमी की बोली से नावाकिफ होते हुए भी वो उस ताने का भाव समझ गया. खीसे निपोरते हुए कुछ इशारा किया. गड़रिया पास आते ही बिना पूछे पिछली रामायण सुनाने लगा कि बाईस बरस पहले उसे सियार की खोह के सामने एक रोता हुआ बच्चा मिला. वो ही देखते-देखते इतना बड़ा हो गया, गोया कल की बात हो. पैरों चलते और जबान से बोलते आदमियों से यह ज्यादा काम का है. उसने जानबूझकर आदमियों की चलन को इसके नजदीक नहीं आने दिया. यह उसी का परताप है कि यह अकेला दस गड़रियों जितना काम करता है. दिन-भर भेड़ें चराता है. उनकी रखवाली करता है. इसके रहते कोई जानवर भेड़ों की ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता. एक कौड़ी का खरच नहीं. जंगल में आप ही बन्दरों की तरह फल-पाती भकोस लेता है. न नून-तेल का झञ्झट, न कपड़े-लत्तों का, न ओढ़ने-बिछाने का, न चिलम-तम्बाकू का. आदमियों की सोहबत में रहता तो यह एक दिन भी दूसरों के लिए खटता भला? उम्र होते ही पहले ब्याह की मुसीबत, फिर औलाद का लफड़ा. अपना भला-बुरा देखकर चलता. पर अब कोई डर नहीं. राम झूठ ना बुलाये, इस की बदौलत आराम से नीम तले ढेरा घुमाता है और जूंएं मारता है.
बनजारी ने सारा किस्सा ध्यान से सुनकर गम्भीरता से कहा, ‘आज तक ढेरा घुमाया और जूंएं मारीं, वही बहुत है. अब अपना रेवड़ खुद संभालो. मैं इसे लेने आयी हूं.’ गड़रिया फितरती था. सोचा, थोथी बहस करने से क्या फायदा! वो मरद ही क्या जो एक अनजान औरत से हार मान ले! खोपड़ी में खाये बिना यह चुड़ैल नहीं मानेगी. अदेर पंजों के बल होकर लाठी घुमाई कि बनमानुस ने लपककर लाठी छीन ली. भागने का इरादा किया ही था कि एक भरपूर वार उसकी पीठ पर पड़ा और एक चीख के साथ धड़ाम से जमीन सूंघता नजर आया. वो नुकीले नाखूनों से उसका कलेजा चीरने ही वाला था कि बनजारी ने इशारे से मना कर दिया. मना करते ही वो दूर हो गया. गड़रिये की जैसे जान ही निकल गयी. फिर हिला तक नहीं.
बनजारी को काफी तसल्ली हुई. जानवर सरीखे इस बनमानुस में इतनी समझ और ताकत होगी, उसने नहीं सोचा था. ऐसे महाबली के सहारे वह बेखौफ इस सूने जंगल में पनाह ले सकती है. कहीं जाने की जरूरत नहीं. इसी जंगल में इसे आदमी बनाकर दिखायेगी. अपने स्वार्थ में अन्धा होकर जो शैतान इनसान की ऐसी दुर्गति कर सकता है, उसके गुनाह का क्या हिसाब! इस गंवार के लिए पैसे की मार मौत से भी बड़ा दण्ड होगा. अपने मामूली से फायदे के लिए जो कमसल मरने-मारने पर उतारू रहते हैं, उनकी नजर में मौत कोई सजा ही नहीं. मौत तो इनकी जिन्दगी का ही एक हिस्सा है. इनकी जिन्दगी की महत्ता मौत से ज्यादा नहीं है. लालच के वशीभूत जो बात-बात में किसी अनजानी औरत को मारने के लिए तैयार हो जाये, उसके लिए जिन्दगी की क्या कीमत! जिन्दगी की महत्ता समझने वाला स्वप्न में भी किसी पर हाथ नहीं उठा सकता.
कुछ देर बाद गड़रिया कराहते हुए उठा. बनजारी ने मन-ही-मन सब सोच लिया था. बोली, ‘करनी मुजब तुम्हारी थोड़ी पूजा तो हो गयी. आयन्दा इस ओर रुख किया तो सूली पर चढ़वा दूंगी. तुम जानते नहीं मैं कौन हूं? बताऊंगी भी नहीं. अगर जान प्यारी हो और घरवालों को सुखी देखना चाहते हो तो भूल से भी रेवड़ की आस मत करना. कल सवेरे एक होशियार नाई भेज देना, वरना ये नाखून तेरे घर आकर तेरा गला घोंट देंगे.’
गंवार डर से मानता है या मार से. बड़े लोगों का डर उसे मौत से भी ज्यादा लगता है. हुकूमत के नाम का तिनका भी तलवार से अधिक कारगर होता है. उसके मन में ऐसा डर बैठा कि फिर उसने चूं तक नहीं की. हाथ जोड़े-जोड़े वहां से चला जो घर पहुंचने तक जुड़े रहे. गरीब-गुरबों की ऐसी ही मरदानगी होती हैशेर के सामने भेड़ और भेड़ के लिए भेड़िया.
गड़रिये के जाते ही राम जाने उस बनमानुस को क्या सूझी, सो जोर से किलकारी करता, छलांगें भरता, आम के एक पेड़ पर चढ़ गया और दनादन पीले आम नीचे गिराने लगा. थोड़ी देर बाद वो धम्म से कूदकर नीचे आ गया. बिखरे आमों की ढेरी कर बनजारी की ओर देखा. आंखों-ही-आंखों में खाने की मनुहार की.
भूख न होते हुए भी उस पाक मनुहार को वह कैसे टालती! एक आम मथकर चूसने लगी और दूसरा मथकर उसके सामने किया. दो-तीन मर्तबा मना करने के बाद उसने आम ले लिया. ज्यादा दबाने से रस की पिचकारी छूटी, जिससे उसकी धूल सनी दाढ़ी भर गयी. उसने खिसियाकर मुंह नीचा कर लिया, पर अचरज की बात कि दूसरे आम से उसने एक बूंद भी बाहर नहीं गिरने दी. खुश होकर एक आम उठाया और उसकी देखादेख खुरदरी हथेलियों से मथने लगा. फिर पिलपिले आम को बनजारी की ओर करते हंसा. गोया दांतों से हंसी के बहाने ताजा दूध झर रहा हो.
उसने खुशी-खुशी उसकी मनुहार कबूल की. आज तो खाने का स्वाद ही दूसरा था. तृप्त होते ही भूख फिर जाग्रत होती और जाग्रत होने के साथ ही फिर तृप्त होती. वो भी खाने के साथ-साथ इस तरह गरदन हिला रहा था, जैसे खाने का मजा उसे आज ही आया हो.
आहिस्ता-आहिस्ता शाम घिरने लगी. बनजारी को पहली दफा महसूस हुआ कि सूरज का उजाला कितना बल देता है. सूरज डूबने के साथ ही उसका मन डूबने लगा. इस दोहरे अंधेरे में वह कैसे अपनी राह खोजेगी! जैसे ढोर-डांगर गोबर छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं, उसी तरह पति उसे छोड़कर चला गया. उलटे उसी की लानत-मलामत की. अभी तक उसकी जिन्दगी दूसरों के आसरे ही चली, पहले पिता, फिर पति, पर अब अपनी जिन्दगी वह खुद जीयेगी. इतने बरस तो वह अपनी बेजान लोथ इधर-उधर घसीट रही थी. जिन्दगी तो उसे आज ही मिली. इस बनमानुस के निमित्त, उसे एक नया सूरज गढ़ने का अचीता मौका हाथ लगा.
धीरे-धीरे अंधेरा घना होने लगा. उस सुनसान जंगल का एक-एक दरख्त गोया अदीठ अञ्जलि से समूचा उजाला पी रहा हो. और हरेक दरख्त के लिए जैसे अलग-अलग रात उतरी हो. यह रात ही दूसरी है. यह अंधियारा ही दूसरा है. ये तारे ही दूसरे हैं और इस बेढब नजारे को देखने वाली यह निगाह ही दूसरी है. यह कैसा जादू हुआ!
थोड़ी देर तो बनमानुस आंखें फाड़-फाड़कर जागता रहा, पर आखिर उसके रोम-रोम में घुली नींद उस पर हावी हो गयी. वो वहीं पसरकर खर्राटे भरने लगा. खर्राटों की आवाज से वह पहले जरा चौंकी, फिर वापस अपने में डूब गयी. जगने की ऐसी महत्ता उसने सपने में भी नहीं सोची थी. उसकी आंखें गोया आज ही खुली हों. अब तक उसने अंधियारे का सांवला रूप ही देखा था, पर आज वही घना अंधियारा उसकी आंखों के सामने जगमगाने लगा. कितना मोहक! कितना सुन्दर! सूरज का नंगा उजाला उसके बराबर खड़े होने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकता. या तो आज आंखों की ज्योति बदल गयी या अंधियारे का रूप बदल गया.
झिलमिलाता झीना सांवला जामा पहने घेर-घुमेर दरख्त अपनी-अपनी ठौर अविचल खड़े थे. चौतरफ छाये उस अथाह अंधियारे को बनजारी अपने अन्तस् में उतार रही थी कि सहसा आकाश की कोख फाड़कर गुलाल का एक पिण्ड बाहर आता दिखा. सांवले लिबास में हलका उजाला घुलने लगा. बात-की-बात में गुलाल के उस पिण्ड की रंगत सुनहरी हो गयी. इतने दिन यही कुदरत थी और ये ही आंखें थीं, पर कहीं कुछ नजर नहीं आता था. आज सहसा आंखों का जाला कटने से नजर की तासीर ही बदल गयी. आज उसका रोयां-रोयां मुगत था. आज वह अपने मन की महारानी थी. उसकी देह पर किसी का कोई अंकुश नहीं था. सामने सो रहे बनमानुस को उसके पांवों पर खड़ा करके ऐसा इनसान बनायेगी कि अच्छों-अच्छों को रश्क हो. कोख की सिरजना से भी यह आनन्द हजार गुना बढ़कर है. कुम्भकरण की छमाही नींद से भी इस खुमारी का सौदा नहीं किया जा सकता. न कोई भनक, न कोई आवाज. दसों दिशाओं में मौन छाया था. जैसे चांद के बहाने कुदरत ने अपने मुंह पर पट्टी बांध ली हो.
सहसा किसी पंछी की तेज कुरलाट गूंज उठी, जैसे अंधेरे का कलेजा चीरती हुई कटार रेंग रही हो. बनजारी के समूचे बदन में सिहरन दौड़ गयी. चौंककर ऊपर देखा. तारे भी उसकी तरह कांप रहे थे. बनमानुस के खर्राटे जारी थे. झुंझलाहट की बजाय उसे हिम्मत बंधी. इसके रहते उसे यमराज से भी डरने की जरूरत नहीं. वह तीखी कुरलाट मिटने पर झींगुरों की झनकार इस तरह झनक उठी मानो चांद का मन बहलाने की खातिर रैनादे झुनझुना बजा रही हो.
एक-एक तारे को अपनी नजर के अदीठ धागे में पिरोते-पिरोते आखिर रात ढलने लगी. अंधियारा फीका पड़ने लगा. पूरब में उजाले के हरकारे, चिड़ियों की चैचाट के बहाने जैसे घुंघरू बजा रहे हों. उनके पीछे उजाले की चादर लहराती हुई आगे बढ़ने लगी. देखते-देखते सभी तारे उजाले के सैलाब में डूब गये. पर भोर का तारा अकेला काफी देर तक डटा रहा. आखिर उसके पांव भी छूट गये और उस पर उजाला गालिब हो गया.
खर्राटों का तांता टूटा. बनमानुस हड़बड़ाकर उठ बैठा. बनजारी की ओर देखकर मुस्कराया. फिर छलांगें भरता फारिग होने के लिए जंगल में ओझल हो गया. किसी के पैरों की आहट पाकर बनजारी ने पीछे मुड़कर देखा. कांधे पर रचानी लटकाये एक आदमी आता दिखलायी पड़ा. शायद नाई हो. चन्दनिया रंग का साफा. अधेड़. बांस की नाईं पतला और लम्बा. कमर थोड़ी झुकी हुई. शरीर की तरह दांत भी पतले और लम्बे. पास आने पर उसने हाथ जोड़कर मुजरा किया.
किसी अजनबी पर नजर पड़ते ही बनमानुस ने जोर से हुंकार की और तेजी से छलांगें भरता आया. पर बनजारी के मना करते ही उसका सारा गुस्सा हवा हो गया. फिर उसने इशारे-इशारे में बाल कटाने और नहाने की बात समझायी. पहले तो सर हिलाकर उसने साफ मना कर दिया, पर जब बनजारी ने ज्यादा जोर दिया तो उसे मजबूरन मानना पड़ा.
अपने काम में उस्ताद होने के साथ-साथ नाई चालाक भी कम नहीं था. बिना कहे ही सारी बात समझ गया. बाकी सराजाम के अलावा धोती और गमछा भी वो अपने साथ लाया था. बनमानुस को फौरन पास के एक झरने पर ले गया. बनजारी ऊहापोह में खोयी गुमसुम बैठी रही. कितना वक्त बीता कि नहीं बीता, उसे कोई एहसास नहीं था.
मुस्कराता हुआ नाई धोती पहने बनमानुस की बांह थामे आता दिखायी पड़ा. एकाएक उसे अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ. आधा झुका हुआ, वो एड़ियों के बल बड़ी मुश्किल से एक-एक कदम चल पा रहा था. उसकी सारी रंगत बदल गयी थी. जैसे राख तले दबा अंगारा हवा लगने पर जगमगाने लगता है, उसी तरह उसका तांबई रंग दमक रहा था. बबूल के तने की तरह मजबूत और कसा हुआ बदन. बनजारी पर नजर पड़ते ही उसकी आंखें भर आयीं. वे आंसू उलाहने के थे, या दुख या प्यार के, न बनमानुस को इसका इल्म था और न बनजारी को. मुस्कराने की नाकाम चेष्टा में उसकी आंखें भी छलछला आईं. अनजाने ही उसने अपने मेहंदी रचे हाथों से बनमानुस की बांहें थाम लीं और उसकी आधी झुकी कमर को पूरा सीधा करने की तदबीर सोचने लगी. वो अदेर उसके दिल की बात समझ गया और एक ही झटके में तनकर सीधा खड़ा हो गया. फकत हाथ-भर ऊंचा होने पर भी बनजारी को ऐसा लगा, जैसे वो आकाश तक ऊपर उठ गया हो. उन दो तलवों के परस से धरती का सुहाग अमर हो गया. हवा के झोंकों से हिलते दरख्त उसे चंवर डुलाने लगे. सूरज तिरछा होकर उसकी छवि निहारने लगा. तीखी नाक. लम्बी गरदन. बड़ी-बड़ी आंखें. काली-स्याह घनी पलकें और भौंहें. धवल बत्तीसी. सीने पर बल खाती रोमावली. लम्बे हाथ. शेर की तरह पतली कमर.बनजारी उसका हाथ पकड़कर आगे बढ़ी तो उसके पांव बारी-बारी से ऊपर उठते-गिरते उसके पीछे चल पड़े. खुद धरती ऊपर-नीचे होकर उसके साथ-साथ चलने लगी, मानो वह उन पांवों का परस छोड़ना ही न चाहती हो. उस पवित्र परिक्रमा के गवाह थे, खुद सूरज, धरती और अनगिनत झाड़-झंखाड़.
कुछ देर बाद नाई ने जुहार करके जाने की इजाजत मांगी. उसने खुशी-खुशी अपने सुहाग की निशानी, मोतियों जड़ी रखड़ी उसे इनायत कर दी और उससे रसोई के तमाम सराजाम समेत, धोती-जोड़ा, अंगरखी और साफा लाने को कहा. फिर नाई के इतना सब्र कहां! आने-जाने और खरीद-फरोख्त के अलावा कहीं एक पल भी जाया नहीं किया. फकत रेवड़ के पुराने मालिक के पास खुद चलकर चिलम पीने गया. बनमानुस के बारे में इधर-उधर की बातें कीं. पीठ के दर्द से भी ज्यादा कलेजे का दर्द, गड़रिये को साल रहा था. उसकी नींद उड़ गयी थी. भेड़ों की में-में कानों में हरदम गूंजती रहती थी. पर अब किया भी क्या जा सकता था. लंगोटिया नाई कोई तिकड़म बिठाये तो शायद कुछ बात बने.
नाई बहुत जल्दी में था. उसे दिलासा देकर गठरी सर पर रखी और तेज कदमों से जंगल की ओर चल पड़ा. वहां पहुंचा तब दोनों रेवड़ चरा रहे थे. नाई से आंखें चार होने पर बनमानुस मन्द-मन्द मुस्कराया. प्यास न होने पर भी दोने में पानी लाया और एक ही सांस में पी गया. नाई उसके भोलेपन और नयी-नयी बातें सीखने की उमंग पर मुस्कराया. कहने लगा, ‘यह तो कुछ दिनों में हमें भी पीछे छोड़ देगा.’
वह अदेर थुथकी डालते बोली, ‘तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर. इसी आस पर तो मैं जी रही हूं. भगवान करे वो दिन जल्दी आये.’
जात का नाई और तिस पर चौबीस खेड़ों में बिरादरी का पंच! ठकुरसुहाती करते बोला, ‘आये क्या, वो दिन तो आ गया. अब तो नजर न लगने का टोना करवाने की फिक्र करो.’
बनजारी के चेहरे पर लालिमा दौड़ गयी. धीमी आवाज में कहने लगी, ‘यहां नजर लगाने वाला है ही कौन! दरख्त और भेड़ों की नजर तो लगने से रही!’
दोनों ने एक साथ ‘बनमानुस’ की ओर देखा. वो कुछ समझे बिना ही हंसने लगा सो काफी देर तक हंसता रहा. उस निरमल हंसी से उसकी सुन्दरता और बढ़ गयी.
दिन चुटकियों में लुढ़क रहे थे. जैसे नींद में इनसान का ज्ञान, समझ, यादें और होश-हवाश सो जाते हैं और जगते ही सारी चेतना लौट आती है, उसी तरह पांवों पर सीधे खड़े होते ही वो बनमानुस बनजारी के सिखाने से तुरत-फुरत यूं सीखने लगा, जैसे पूर्वजन्म की भूली बातें याद कर रहा हो. बनजारी को सिखाने में वक्त लगा, पर उसे सीखने में वक्त नहीं लगा. एक दफा बताने पर ही वो सलीके से धोती पहनना, साफा बांधना, अंगरखी के बटन लगाना, खाना-पीना, नहाना वगैरा सीख गया. रेवड़ चराने की कूवत तो उसमें ऐसी आयी कि अच्छे-अच्छे गड़रियों को मात करे. उसके सिखाये बिना आप-ही भेड़ों की में-में और ढर्र-ढर्र करना सीख गया और जब-तब जरूरत हो या न हो, दिन-भर में-में और ढर्र-ढर्र करता रहता, सो उसके मना करने पर भी बड़ी मुश्किल से चुप होता.
बार-बार रटाने के बावजूद भी चांद-सूरज के नाम उसके गले नहीं उतरे. हुज्जत करने लगता कि अनन्त उजाला छितराने वाले देव का इतना छोटा नाम! इसका नाम तो बहुत, बहुत बड़ा होना चाहिए और बोलते ही मुंह में आग की लपटें उठनी चाहिएं. सूरज को चांद और चांद को सूरज या तवा कहने से क्या फर्क पड़ता! कहां पहाड़ और कहां कंकड़! पर दोनों के अच्छर बराबर. आग का नाम लेने से अगर जबान न जले तो ये मुए नाम किस काम के?
वह चुपचाप ये दलीलें सुनती, पर उसे कोई जवाब नहीं सूझता. न तो ऐसे सवाल उसके मन में पैदा हुए और न किसी से सुने.
बनमानुस से चरवाहा बनते ही उसका सारा वजूद बदल गया. एक दिन बनजारी के मुंह से उसका नाम सुना तो मुंह बिगाड़कर बोला, ‘ऐसा रूखा और बेस्वाद! नहीं, नहीं. तुम्हारा नाम तो चांदनी से भी बढ़कर होना चाहिए. मुझे ऐसे उलटे-सीधे नाम मत रटाओ.’
पर दूसरे ही पल वो जोर से हंसा. सूरज की ओर इशारा करके कहा, ‘जब इसका नाम सूरज हो सकता है तो तुम्हारा नाम ‘लाखां’ ही सही. नाम-धाम में क्या धरा है! फिर भी यह मानना पड़ेगा कि तुम हो लाखों में एक.’
अपनी तारीफ सुन उसे शर्म के साथ-साथ घमण्ड भी हुआ. बात को आगे बढ़ाने की नीयत से कहा, ‘बोलना तो अभी पूरा आया ही नहीं और बातें बनाना पहले ही सीख गये! तुमने मेरे अलावा किसी औरत का नाम तक नहीं सुना और लाखों की बात करते हो?’
‘तुम-सा गुरु मिलने पर जो न सूझे, थोड़ा है.’
‘तो यह कसूर भी मेरा है?’
‘नहीं तो क्या इन भेड़ों का है?’
दोनों ठहाका मारकर इतने जोर से हंसे कि जंगल का पात-पात मगन हो गया.
उबटन और भेड़ों के दूध की मालिश से उसका बदन चमकने लगा. तलवे और हथेलियां वीर बहूटियों की नाईं मुलायम हो गयीं. बनजारी के हाथ के नये-नये पकवान खा-खाकर उसकी भूख ज्यादा चेतन होने लगी. जंगल का कण-कण बनजारी को खुशी में झूमता नजर आने लगा. उसकी साध इतनी जल्दी और इस तरह फलेगी, उसे ऐसी आस नहीं थी.
एक दिन चरवाहे ने झिझकते हुए पूछा, ‘फकत तुम सिखाओ वही सीखूं या मैं पूछूं वह भी बताओगी?’
‘जरूर पूछो. मुझे खुशी होगी. मैं खुद यह कहना चाहती थी.’
चरवाहे ने आंखें चुराते पूछा, ‘चुम्बन या चुम्मा किसे कहते हैं? तुमने अब तक मुझे इनके बारे में क्यूं नहीं बताया?’
बनजारी का सारा बदन सनसना गया. उसे यह नया गुरु कौन मिला? इतना जानने-समझने के बाद यह अकेले उस पर ही मुनहसर क्यूं रहेगा? लगा, जैसे बदन का जोड़-जोड़ खुल जायेगा. जी को कड़ा करके बोली, ‘अभी तो बहुत कुछ जानना है. इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं.’
पर वो बेहद बेताब था. एक पल भी न रुककर कहने लगा, ‘एक बात और पूछनी है. देखो, सच-सच बताना. उभरी हुई अंगिया में यह क्या छुपा रखा है?’
अबूझ चरवाहे के मुंह से यह सवाल सुनकर उसके होश उड़ गये. यह पट्टी किसने पढ़ाई? जवाब के बदले उलटा सवाल पूछा, ‘तुम्हें ये बातें किसने सिखायीं?’
चरवाहे की जबान अभी तक झूठ बोलने की आदी नहीं हुई थी. उसने पूछते ही नाई का नाम बता दिया.
बनजारी की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. जो अन्देशा था, वही हुआ. दिन-ब-दिन बढ़ते ज्ञान के धनी इस चरवाहे को अब कैसे वश में रखे? काश! किसी जादू के जोर पर इसे मक्खी बनाकर रख पाती! गर अभी नहीं टोका तो तीर हाथ से छूट जायेगा. तेज आवाज में बोली, ‘इस नाई की सोहबत छोड़ दो, वरना बहुत बुरा होगा.’
वो मुस्कराकर कहने लगा, ‘तुम भी कैसी नादानी की बात कर रही हो! जानवर भी जब अकेला नहीं रह सकता तो भला आदमी कैसे रह सकता है? उसकी सारी करामात सोहबत से है. और बेचारा नाई हमारा क्या बिगाड़ सकता है! जहां तक बन पड़े, मेरी सेवा ही करता है. कभी आनाकानी नहीं करता. आजकल बड़े अदब से पेश आता है. और जब मैं तुम्हारे हाथों इस लायक बना हूं तो नयी-नयी बातें जानने दो. नये-नये स्वाद चखने दो. नयी-नयी जगह घूमने दो.’
बनजारी उसका मुंह ताकती रह गयी. वो तुरन्त उसकी हैरानी का कारण समझ गया. दुगने उत्साह से आगे कहने लगा, ‘तुम्हें बताते डर लगता है, पर आजकल मेरा मन मेरे बस में नहीं. जी चाहता है कि बवण्डर की तरह सारी दुनिया में घूमूं.’
उसे अपने दिल की धड़कन रुकती-सी महसूस हुई. अटकते-अटकते पूछा, ‘अकेले ही?’
‘क्यूं, अकेले क्यूं? तुम्हें कन्धे पर बिठाकर. अकेला तो अब मरना भी नहीं चाहता. तुम भी क्या सोचोगी कि कोई चेला मिला तो था.’
उसके जी-में-जी आया. मुस्कराते बोली, ‘तुम तो मेरे भी गुरु लगते हो!’
आगे उससे बोला नहीं गया. जैसे जबान तालू से चिपक गयी हो. न जबान उसके बस में थी और न दिलो-दिमाग. सोचने लगी कि अब और देर करने से अगर यह हाथ से निकल गया तो वह हाथ मलते ही रह जायेगी. अब तो रति का आनन्द ही इसे बांधकर रख सकता है. देर-सवेर यह होना तो है ही, फिर देरी की जोखिम उठाने से क्या फायदा!
उसके मन की उथल-पुथल चरवाहे से छिपी न रही. नाई के बार-बार उकसाने से वो पहले ही बड़ी मुश्किल से खुद पर काबू रख पाया था. आज चूक गये तो जाने फिर कब मौका मिले! आंखें चुराता बोला, ‘अब तक ये बातें तुमने छुपाई क्यूं?’
वह भला क्या जवाब देती! नजर नीची किये, पैर के अंगूठे से मिट्टी कुरेदते बोली, ‘हम औरतें बहुत-सी बातें अपनी जबान से नहीं कह सकतीं. काफी आगा-पीछा सोचना पड़ता है.’
वो हद तक पहुंचकर भी उसे हद नहीं समझना चाहता था. झट पूछा, ‘पर जानती तो हो?’
वह फड़कते होंठों से धीमी आवाज में बोली, ‘हां, जानती तो हूं.’
उसके अंग-अंग पर नशा छाने लगा. नाई ने उसे ऐसी ही घुट्टी पिलायी थी. उसके गालों पर हाथ फिराते कहने लगा, ‘जो बातें कह नहीं सकती, उन्हें जानना भी नहीं चाहिए.’
उसके सुन्दर चेहरे पर लाली की दोहरी पर्त छा गयी. होंठों-ही-होंठों में फुसफुसायी, ‘ये बातें आप ही आ जाती हैं, किसी से जानने की जरूरत नहीं पड़ती.’
इशारा एकदम स्पष्ट था. उसकी मन-चाही हुई. कई दिनों से वो इसी संजोग के इन्तजार में था. आज मौका मिल गया. वक्त पर बोने से ही मोती पैदा होते हैं. फिर, न कोई बात, न कोई चीत. न कोई होश, न कोई हवास. गोया आकाश से गिरे सूरज के दो टुकड़े आपस में गुंथे हों.
दुनिया की सिरजना के बाद, शायद पहली मर्तबा वक्त और हवा को जरा दम लेने का यह मांगलिक अवसर मिला था. दोनों एक-दूसरे के बन्धन में बंधे एक ठौर रुक गये थे. आखिर मुगत होने पर वक्त और हवा को बन्धन की महत्ता का इल्म हुआ. वह आंखें मूंदे हुए बोली, ‘लगता है, इस बीच कुछ भी अपने ठिकाने पर नहीं रहा. दरख्तों की जड़ें ढीली हो गयी होंगी. शायद सूरज और पहाड़ भी अपनी जगह पर नहीं रहे. बाहर जाकर कुदरत की खैरियत तो मालूम करो.’
वो अपने ही आनन्द में डूबा था. बनजारी की बात सुनकर भी नहीं सुनी. मीठा उलाहना देते कहने लगा, ‘तुम भी अच्छी गुरु मिलीं, बेकार बातें तो सारी सिखा दीं और सबसे पहले सिखाने वाली बात का कोई खयाल ही नहीं किया! फिर भी मैंने गुरु-दक्षिणा में कोई खामी तो नहीं रखी.’
जैसे बनजारी की आंखों को वाणी मिल गयी हो. बोली, ‘बस, इसी से पिण्ड छुड़ाना चाहते हो! अभी तो कई खामियां हैं.’
थोड़ी देर बाद जब दोनों झोंपड़ी से बाहर आये तो उन्हें कुदरत की सारी रंगत बदली-बदली नजर आयी. उनके आनन्द की ताल पर समूची वन-पाती झूम रही थी. चौतरफ हरियाली और निखर आयी थी. पच्छिम की गोद में सूरज ने दिल खोलकर गुलाल उछाला था. अपने-अपने घोंसलों में लौटते परिन्दों की टिवटिव का मिठास भी आज न्यारा था.
सहसा चरवाहे के कलेजे में हूक-सी उठी. टिच-टिच करते पछतावे के सुर में बोला, ‘तुम्हारे प्यार में भेड़ों को तो भूल ही गया. वे भी क्या सोचेंगी कि एक की खातिर हजार की जिम्मेदारी में चूक पड़ गयी! अभी आता हूं.’
जैसे वह पीछे अपने आपसे डरती हो. घबरायी हुई कहने लगी, ‘मैं भी साथ चलती हूं.’
‘तुम बेकार क्यूं तकलीफ उठाती हो! इतने रेवड़ के लिए तो मैं अकेला ही बहुत हूं.’
वह उसका पीछा करते कहने लगी, ‘मैं तो तुम्हारी छाया हूं. आठों पहर तुम्हारे साथ रहूंगी.’
पिछले कुछ दिनों से एक सवाल चरवाहे के मन में घुमड़ रहा था, पर पूछने का मौका नहीं मिला. सवाल होंठों तक आकर फिर दुबक जाता. अभी बनजारी के ये बोल सुनकर वो सवाल आप ही उछलकर बाहर आ गया. उसकी आंखों में नजर गड़ाकर बोला, ‘तुम पहले जिसकी छाया थी, उसका साथ कैसे छूटा? मुझे तो फकत उस दिन चोटी पकड़ने की धुंधली-धुंधली याद है.’

उसके दिल पर जैसे शेर ने पंजा मारा हो. पानी की लकीर की तरह उसके जेहन से अतीत की सारी यादें मिट गयी थीं, या अनजाने में उसने खुद मिटा दी थीं, पर वास्तव में मिटी कहां! मिटने का भरम था, जो चरवाहे के पूछते ही तोप के गोले की मानिन्द उछलकर सामने आ गिरा. और अगले ही पल कुदरत की सारी रंगत बिगड़ गयी. उसे लगा, जैसे पत्ता-पत्ता उसे मुंह चिढ़ा रहा हो. चीखते परिन्दे जैसे उसे दुत्कार रहे हों. कई दफा वह खुद यह बताते-बताते रह गयी थी. पर अभी पूछने की ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी? शब्दों के बदले जैसे मवाद रिस रहा हो, इस तरह बोली, ‘तुम्हारे मुंह से यह सवाल न सुनती तो अच्छा था! पर अब तो....’
वो बीच में ही हड़बड़ाते बोला, ‘तुम्हारी मरजी न हो तो जाने दो. मैंने तो बस यूं ही पूछ लिया.’
वह एक गहरी आह भरकर बोली, ‘यूं ही पूछते तो खुशी-खुशी बताती.’
तुरन्त कोई बात नहीं सूझी तो चरवाहा ढर्र-ढर्र करने के उपरान्त कहने लगा, ‘तुम इस तरह गुस्सा करोगी तो तुम्हारी कोई बात नहीं सुनूंगा.’
बनजारी का जी ठिकाने आ गया था. बोली, ‘और कुछ न सुनो तो तुम्हारी मरजी, पर यह बात तो सुननी ही पड़ेगी.’
फिर उसने ब्योरेवार सारा किस्सा तफसील से सुनाया और ना-ना करते हुए भी चरवाहे ने कान लगाकर सब कुछ सुना.
सचमुच, उसके लिए ही पति-पत्नी में इतनी रगड़ हुई. अगर बनजारा अपनी घरवाली को छोड़कर नहीं जाता तो वही बनमानुस की जिन्दगी! चितारते ही रोम-रोम झनझना उठा. फिर भी संजीदगी से बोला, ‘यह तो कुबड़े वाली लात काम आयी. बनजारे के गुस्से से मेरी जिन्दगी बदल गयी. उसका यह एहसान सात जनम भी भुलाया नहीं जा सकता.’
उसे यह भी सुनना था! जैसे दिल पर नश्तर लगा हो. बमुश्किल पूछा, ‘और मैं...मेरा किया-धरा तुम्हारी नजर में कुछ भी नहीं?’
वो पछतावे के सुर में कहने लगा, ‘तुम्हारी तो बात ही अलग है. तुम्हारा एहसान तो शब्दों में दरसाया ही नहीं जा सकता. पर बनजारा गम खा लेता तो मेरा क्या हाल होता? उसका कर्ज न चुकाऊं तब तक मुझे चैन नहीं मिलेगा. अब तो बस कुछ ही दिनों की बात है. तुम देखती जाओ.’
उसका वहम आखिर सामने आया. भरे गले से कहने लगी, ‘मुझे अब कुछ नहीं देखना. यह जंगल, ये भेड़ें, ये दरख्त, ये पहाड़ियां और ये झरने मेरे लिए स्वर्ग से बढ़कर हैं. मैं सुख के आखिरी सोपान तक पहुंच चुकी हूं.’
‘पर मेरा सुख तो अभी बहुत दूर है. तुम क्या यहीं रोकना चाहती हो? यह नहीं हो सकता. मैं तो चांद-सूरज पर भी राज करना चाहता हूं. यह हवा, यह धूप और ये चांदनी रातें मेरी खिदमत में रहेंगी. इस नाई ने ही मुझे सारा राज बताया. इसको अपना खास दीवान बनाऊंगा. इसकी मेहरबानी से तुम मेरी रानी बनोगी.’
उसकी आंखों के सामने धुन्ध छाने लगी, जैसे उसकी दीठ धीरे-धीरे जवाब दे रही हो. चरवाहे को झंझोड़ते बोली, ‘नहीं, नहीं. अब हमें कुछ नहीं चाहिए. जंगल के इस सुख के आगे बेचारी सल्तनत की क्या बिसात?’
उसे दिलासा देते चरवाहा कहने लगा, ‘इसी डर से मैंने तुम्हें यह भेद बताया नहीं. अब मेरा हौसला कोई बन्दिश नहीं मानेगा. फिर रेवड़ के मालिक उस गड़रिये और तुम में फर्क ही क्या! उसने अपनी गरज के लिए मुझे चौपाया बनाये रखा. इनसानी चाल-चलन को नजदीक ही नहीं आने दिया. और अब तुम इतना सिखाने के बाद यहीं बांधना चाहती हो. ऐसा कभी नहीं होगा. इस जंगल के दायरे में मेरी बुलन्दी कैद नहीं रह सकती. सच, अब यह मेरे भी बस में नहीं. अब आगे बढ़ने से रोकती हो तो पहले उस गड़रिये की तरह इनसानी रहन-सहन से दूर रखना था.’
उसकी जबान जैसे कट गयी हो. उसने बोलने की भरसक चेष्टा की, पर कोई बोल नहीं फूटा. चरवाहे के कन्धे पर सर रखे फकत जार-जार रोती रही.
सहसा भीड़ का शोरगुल, रथों की खड़खड़ाहट और घोड़ों की हिनहिनाट सुनायी पड़ी. चौंककर इधर-उधर देखा. गांव के रास्ते पर टिमटिमाती मशालें रफ्ता-रफ्ता नजदीक आती दिखायी दीं. चरवाहे ने उसके आंसू पोंछते कहा, ‘पट्ठा नाई लाव-लश्कर के साथ आ गया लगता है! वाकई, है तो जबान का पक्का. तुम्हें मेरी कसम, अब रोकर अपसगुन मत करो. कल ही चांदनी चौहदस की मांगलिक साइत में मेरा राजतिलक होगा.’
खुली आंखों के उस मूर्त सपने के सामने उसका क्या बस चलता! जबरन सब्र किया. देखते-देखते मशालों की चकाचौंध पास आकर ठहर गयी. रथों के रुकते ही कई आदमी नीचे उतरे. रेवड़ का मालिक और नाई दोहरे होकर ‘खम्माघणी-खम्माघणी’ करते आगे बढ़े. हिलते सर पर बूढ़े राजा का मुकुट भी हिल रहा था. बदहवास-सा होकर उसने चरवाहे को बांहों में भर लिया. थरथराती आवाज में रुंधे गले से कहने लगा, ‘मेरे लाड़ले राजकुमार, तेरी तलाश में हमने कितनी बार जंगल की खाक छानी. पर होनी तो अपने वक्त पर ही होती है. आंखें होते हुए भी हम अन्धे बन गये. तुझे बीस-पच्चीस बार अपनी नजरों से देखकर भी हम वापस चले गये. उस चौपाये बनमानुस के रूप में तुझे कैसे पहचानते? भला हो इस नाई का, जिसने हमें सच्ची बात बतायी. मैं सुनते ही समझ गया कि यह बिलकुल सच है.’
फिर वो रेवड़ के मालिक की ओर मुखातिब हुआ. कहा, ‘पर तूने हमारे साथ किस जनम का बदला लिया! बार-बार पूछने पर भी तूने मना करने की गुस्ताखी की!’
वो राजा के पांव पकड़कर गिड़गिड़ाया, ‘बहुत बड़ा पाप हुआ, अन्नदाता. इसके लिए मौत की सजा भी कम है.’
पर अगले ही पल राजा का गुस्सा हिरन हो गया. उसे दुलारते कहने लगा, ‘तू डर मत. अब मेरे हाथों कभी यह अन्याय नहीं होगा. जो भी हो, तूने राजकुमार को जिन्दा तो रखा. वरना आज की रात यह सोने का सूरज कैसे उगता! अब बेधड़क होकर, जो तेरी इच्छा हो, मांग. तेरा एहसान अपने सर पर नहीं रखना चाहता.’
वो राजा के चरणों में लोटते बोला, ‘रेवड़ के बिना, मैं जिन्दा भी मरे समान हूं. गरीब-परवर, मेरा रेवड़ मुझे वापस मिल जाय, बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिए.’
राजा मुस्कराकर कहने लगा, ‘तू भी मूर्खों का सरताज है. रेवड़ तो तेरा ही है. राजकुमार ने जितना चराया, वो ही बहुत है. ले, यह नवलखा हार तुझे इनायत किया.’
बनजारी आक-बाक सारा माजरा देख रही थी. अविश्वास करे भी तो कैसे! और विश्वास करे जैसी उसमें हिम्मत ही कहां थी! बैठे-बिठाये यह कैसी आफत आयी!
राजव्यास ने हाथ जोड़कर अरदास की, ‘अन्नदाता, यहां से विदाई का यही सबसे अच्छा महूरत है. एक पल की भी देरी होने....’
‘देरी किस बात की! ऐसा महूरत कैसे टाला जा सकता है!’ राजा ने टोकते हुए कहा.
फिर नाई के कैसी कोताही! तुरत-फुरत छागल का मुंह खोला. राजकुमार और बनजारी के चरण पखारते कहने लगा, ‘जंगल की रज जंगल में ही रहे तो अच्छा. अब आप रथ में बिराजने की मेहर करें.’
राजकुमार होंठों-ही-होंठों में बोला, ‘यूं क्या लल्लो-चप्पो कर रहा है! दीवान के ओहदे की कुछ तो लाज रख.’
नाईपन की सूझ-बूझ से ही यह ओहदा हाथ लगा, यह मरकर भी भुलाया नहीं जा सकता. सुर में चाशनी घोलते जवाब दिया, ‘जूतियों को पांवों में जगह मिल जाय, यही बहुत है.’
बातें करने की फुरसत किसे थी! फौरन रथ वापस मुड़ गये. बनजारी का दुःस्वप्न घोड़ों की टापों के साथ आगे बढ़ने लगा. राम जाने, यह रथ कभी रुकेगा भी कि नहीं? राजा अपना कांपता हाथ बनजारी के सर पर फिराते कहने लगा, ‘बेटी, तेरा एहसान मुंह से दरसाना बेहयाई होगी, फिर भी बिना कहे रहा नहीं जाता. दुःख फकत इसी बात का है कि आज का यह दिन देखने के लिए रानी जिन्दा नहीं है. मेरी अक्ल पर जाने कैसे पत्थर पड़ गया, जो मैंने ऐसी पतिव्रता रानी पर शक किया! वो दरबारियों की चाल थी और मैं उसमें फंस गया. रानी, राजकुमार को जनम देते ही फन्दे से झूल गयी. दीवान को सूली पर चढ़वाकर और उसके पाप को इसी जंगल में सियार की खोह के आगे फिंकवाकर ही मैंने दम लिया. पर सातवें दिन साजिश का पता लगने पर मैं बहुत पछताया, लेकिन फिर क्या होता! राजकुमार की तलाश में जंगल का पत्ता-पत्ता छान मारा, पर जब तक दिनमान ठीक नहीं थे, कुछ पता नहीं चला. आखिर नाई से सारी बात सुनकर हमारा भटकना बन्द हुआ. राजदाई की बतायी जगह पर लहसुन का बड़ा निशान भी मिल गया. अन्धे को भी दिखता है कि राजकुमार की शक्ल मुझसे कितनी मिलती है! तेरे हाथों आखिर राजकुमार का भाग जागा. तू न होती तो रानी के पेट से जनम लेकर भी यह जंगल में बनमानुस की जिन्दगी बिताता. आज मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरी हुई. कल ही राजतिलक के बाद मैं काशी चला जाऊंगा. जब तक जिन्दा हूं, भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि दिन दूना, रात चौगुना तुम्हारा राज बढ़े. दूधों नहाओ, पूतों फलो.’
बनजारी ने अपने मन की उथल-पुथल को अपने तईं रखा और राजा के चरणों में शीश नवाया. राजा का दिल भर आया. अटकते-अटकते बमुश्किल बोला गया, ‘मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है. फिर तू क्यूं सर नवा रही है! यह काम तो मेरा है.’
और बेहद ताज्जुब कि राजा उसके चरणों में वाकई मुकुट समेत शीश नवाने लगा, पर बनजारी ने अदेर उसे बांहों में भर लिया. दोनों की आंखों से हृदय के बोल झर-झर बहने लगे.
राजकुमार अपने ही सपनों में डूबा था. दीन-दुनिया से एकदम बेखबर. जमीन और आकाश के बीच न समाये जितनी खुशी उसके दिल में लहरा रही थी. कहां बनमानुस, कहां चरवाहा और कहां देश का मालिक! समूची दुनिया को अगर अपनी सल्तनत में शामिल न किया तो फिर लानत है ऐसी हुकूमत पर. जब तक हवा, समन्दर और उजाले तक उसके राज की स्याही न गिरे, वो चैन से नहीं बैठेगा. सिंहासन और मुकुट का स्वाद चखे बिना ही उसके सपने सूरज और चांद तक उड़ान भरने लगे.
सारा शहर राजकुंवर की अगवानी में पलक-पांवड़े बिछाये था. शहर में दाखिल होते ही एक-सौ-एक तोपों की सलामी दी गयी. हजार आरतियां उतारी गयीं. बधावों ने आकाश सर पर उठा लिया. अनगिनत पण्डित मांगलिक महूरत निकालने के लिए पञ्चांगों को फड़फड़ाने लगे.
इत्र-फुलेल के गुनगुने पानी से नहलाने के बाद दासियों का जत्था राजकुंवर के इर्द-गिर्द मंडरा रहा था. एक-से-एक बढ़कर सुन्दर दासियां. फकत दो आंखों से किस-किस का रूप पीता. उसकी अक्ल और आंखें दोनों चौंधिया गयीं. आखिर जोशियों की ताकीद पर कल का चरवाहा जब सिंहासन पर बैठा तो उसे ऐसा लगा जैसे वो जुग-जुगान्तर से धरती पर राज करता आ रहा है.
सारे दरबारी, सामन्त, ठाकुर, दासियां और नौकर-चाकर खुशी में बौराये से इधर-उधर चक्कर काट रहे थे और उनके देखते-देखते रेवड़ का मालिक समूची सल्तनत का मालिक बन गया और कल की बनजारिन उसकी महारानी. नये राजा के फरमान से नाई को खास दीवान का ओहदा मिला. राजकुंवर की जिन्दगी बचाने वाले गड़रिये को सात गांव की जागीर मिली. हाथी-सिरोपाव का खिताब मिलने की खुशी में लक्खी बनजारे ने एक-हजार-एक मोहरें राजा-रानी के चरणों में भेंट कीं.
अपने वचन के मुताबिक नये राजा का पिता पांच पण्डितों के साथ पैदल ही काशी की ओर चल पड़ा. राजसिंहासन का नया राजा और नया दीवान, दोनों के दिल में नयी-नयी तदबीरें कुलबुलाने लगीं. किस कमजोर रियासत पर चढ़ाई करनी और उसे कैसे जीतना? रानी ने एकाध बार हिम्मत करके राजा को समझाने की चेष्टा भी की. कहा कि लालसा का कहीं अन्त नहीं. फिर बेकार सल्तनत की सीमा बढ़ाने से क्या फायदा! बढ़ती अफरा-तफरी और हाय-हाय के आगे आराम से सांस लेना भी नसीब नहीं होता.
पर राजा के हौसले बुलन्दियों पर थे. वो रानी की बक-बक पर कान ही नहीं देता. अपने नये मद में वो पूरी तरह सराबोर था. रानी अपने पेट की आसा में उलझी थी. दसवें महीने उसकी गोद हरी होगी. दोनों की आंखों में अलग-अलग सपने पल रहे थे. राजा की आंखों में बढ़ती सल्तनत के साथ-साथ नये-नये सुख और नये-नये भोग के सपने और रानी की आंखों में गोद फलने के साथ-साथ नये जीव के सपने. कैसे पाले-पोसेगी? कैसी परवरिश करेगी और उसे क्या सीख देगी? वह रात-दिन इसी पसोपेश में रहती कि उस बनमानुस की जिन्दगी बेहतर थी, कि जंगल के चरवाहे की जिन्दगी बेहतर थी, कि भोग-विलास के सिंहासन पर राजा की यह जिन्दगी बेहतर है?
बेशुमार टहलुए राजा की सेवा में एक पांव पर खड़े रहते थे. फकत राजा के हुक्म की देर और अनगिनत दासियां उसकी खिदमत में हाजिर. चहुं ओर ‘खम्माघणी-खम्माघणी’ और जी-हजूरी की होड़. भेंट और नजराने. पत्थर के बुत का सर भी फिर जाता, फिर वो हाड़-मांस का जीता-जागता पुतला क्यूं किसी के वश में रहता! चढ़ती जवानी, बढ़ता हौसला, सिंहासन का मद और मुकुट का अहंकार! तिस पर दरबारियों का दन्द-फन्द. छल-कपट. गड़रिया-ठाकुर, लक्खी बनजारा और नये दीवान जैसे मुसाहिबों की सीख-सलाह. चौबारे के दारू की मनुहार-दर-मनुहार. मन बहलाने के लिए नित नयी अछत कुंवारी दासियां. रंगरलियों का नित नया जायका. कभी कच्ची कली, कभी फटता जोबन! दिन ढलने पर राजा के मद का सूरज उगता और सवेरे डूबता.
रानी भीतर-ही-भीतर कुढ़ती. भीतर-ही-भीतर सुलगती. पर उसकी पीड़ा समझने वाला समूची रियासत में कोई नहीं था.
एक दिन नशे में चूर राजा को रानी सामने आती दिखी तो वो लड़खड़ाते सुर में बोला, ‘इस उभरे पेट पर नजर पड़ते ही मुझे उबकाई आती है, यह जानते हुए भी तूने मेरे सामने आने की गुस्ताखी की? तेरी इतनी मजाल!’
उसने कोई जवाब नहीं दिया. अंगारे उगलना चाहती थी, पर खून का घूंट पीकर रह गयी. मुड़कर वापस जाने लगी कि डगमगाते राजा ने उसका हाथ पकड़कर कहा, ‘एक नाचीज बनजारिन का राजा के आगे इतना गुमान! भुरता न बनवा दूं तो मेरा नाम नहीं. तू सोचती होगी कि मुझे इस लायक बनाकर तूने मुझ पर भारी एहसान किया है! मैं बनमानुस की जिन्दगी में ज्यादा खुश था. तेरे ही फेर में पड़कर, मैं अभी तक भटक रहा हूं. राम जाने, इसका कब और कहां अन्त होगा! पर तू किस खयाल में है. तेरी हेकड़ी मिटाना तो मेरे बायें हाथ का खेल है.’
ऐसी गलीज बात का वह क्या जवाब दे? झटके से हाथ छुड़ाकर वो चुपचाप वहां से चली गयी. और राजा आंय-बांय बड़बड़ाता रंगमहल में घुस गया. फूलों की सेज पर नयी कली का रूप निरखते ही उसका गुस्सा ठण्डा पड़ गया.
पर रानी की आंख एक पल के लिए भी नहीं लगी. सूनी-सूनी आंखों से वह सारी रात काले-भंवर अंधियारे को पीती रही. चुंदरी के एक झपाटे में उसने घी का दीवट गुल कर दिया था. जरा-सी कोशिश से वो चौपाया बनमानुस उसके देखते-देखते यहां तक पहुंचा, पर अब लाख जतन करके भी इसे लौटाया नहीं जा सकता. क्या समझ का सिरमौर यह इनसान अपने दो पैरों के बल पर हमेशा कुपथ पर ही चलेगा? अपने हाथों की गयी भूल सपने में भी सुधारी नहीं जा सकती? न इसके पिरासचित्त का कोई उपाय है और न आखिरी पीढ़ी तक इस भूल के दण्ड से कोई निस्तार? सूनी आंखों की तरह बनजारिन का सर भी बिलकुल सूना हो गया. तब से अभी तक वह जच्चारानी उस बन्द रंगमहल में प्रसव-पीड़ा से पल-पल टसक रही है. और जब तक उसकी कोख का सपना बाहर नहीं आयेगा, तब तक उसके हृदय में ऐंठती वह दोहरी उलझन नहीं सुलझेगी!
'पेट में अमर आस लिये, अभी तक ब्रह्माण्ड में निर्वसना घूम रही है लाछी'