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सारागढ़ी के 21 सिखों की कहानी, जो 10 हज़ार की अफ़ग़ान सेना से भिड़ गए थे

जिस कहानी पर अक्षय कुमार ने फिल्म बनाई है, उसे पढ़कर चमत्कृत रह जाएंगे.

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36वीं रेजीमेंट के सिपाहियों की एक तस्वीर
सारागढ़ी का संग्राम 
अविभाजित भारत का पश्चिमी विस्तार अफगानिस्तान की सरहद तक है. ख़ैबर-पख्तूनवा इलाके के पास भारत और अफगानिस्तान की सरहद. 'समाना' पहाड़ियों के बीच कोहट (अब पाकिस्तान में) कस्बे मे 40 मील दूर एक चोटी पर छोटी सी चौकी है. यह चौकी दो किलों के बीच है. एक तरफ लॉकहार्ट और दूसरी ओर गुलिस्तान. यह कहानी है उस चौकी को संभालने वाले 21 सिखों की. 10,000 अफगानियों से लड़ने वाले 21 सिखों की. जब 10,000 अफगानों से लड़ने के लिए कोई सहायक टुकड़ी नहीं भेजी गई, तब भी अपने कर्तव्य से न भागने वाले 21 सिखों की. यह कहानी है... सारागढ़ी के संग्राम की (Battle of Saragarhi).
अविभाजित भारत और अफगानिस्तान की सरहद का मानचित्र
अविभाजित भारत और अफगानिस्तान की सरहद का मानचित्र

द ग्रेट गेम

19वीं शताब्दी. ब्रिटेन और रूस के बीच मध्य एशिया को हथियाने की होड़ लगी थी. यही था 'द ग्रेट गेम'. इसी खेल के चलते दोनों साम्राज्य अफगानिस्तान पर कब्जा करने पर उतारू थे. 1881 से 1885 तक रूस तुर्किस्तान के रास्ते अफगानिस्तान की ओर बढ़ रहा था. 1885 में जब रूस अफगानिस्तान के नजदीक पहुंच गया, तब ब्रिटेन ने रूस के साथ एक समझौता किया. ब्रिटिश-इंडिया की सीमा तय करने के लिए. अफगानिस्तान के आमिर अब्दुर रहमान खान को साथ लेकर अफगानिस्तान और भारत के बीच की सरहद बनाने के लिए एक कमीशन बना. ड्यूरेंड कमीशन. आज भी पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा यही है. इसे ड्यूरेंड लाइन कहते हैं.
मध्य एशिया का मानचित्र
मध्य एशिया का मानचित्र

साल 1891. सीमा में ज्यादा से ज्यादा हिस्से को कब्जे में लेने के लिए ब्रिटेन ने 'फॉरवर्ड पॉलिसी' अपनाई. मतलब खुद आगे बढ़कर सरहद पर किले और चौकियां बनानी शुरू कर दीं. समाना की पहाड़ियों पर जनरल विलियम लॉकहार्ट ने दो बार चढ़ाई की. दो नए किले बने. लॉकहार्ट और गुलिस्तान. आस-पास कई छोटी चौकियां बनाई गईं. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण थी सारागढ़ी की चौकी.

धूप चमका कर बात करते थे सारागढ़ी के सिपाही

यूं तो 1835 में सैम्यु्अल मोर्स ने टेलीग्राफ का आविष्कार कर लिया था, पर इसके इस्तेमाल में एक परेशानी थी. लॉकहार्ट और गुलिस्तान किले के बीच टेलीग्राफ के तार बिछे थे. आस-पास के इलाके में पठान रहते थे. सरहद बनने से पठानी कबीले बंट रहे थे. इससे नाराज़ होकर कबीले के लोग इन तारों को काट देते थे. इससे दोनों किलों के बीच बातचीत का साधन बंद हो जाता था और दुश्मन के लिए हमला करना आसान हो जाता. इसलिए इन दोनों किलों के बीच सारागढ़ी की चौकी बनाई गई. चौकी ऊंचाई पर थी और दोनों किले यहां से नज़र आते थे. सारागढ़ी में तैनात सिपाहियों का एक विशेष काम था. दोनों किलों के बीच बातचीत में कड़ी बनने का. सारागढ़ी में सिपाही आईने से धूप चमका कर सिगनल देते थे और कोड में एक किले की बात दूसरे तक पहुंचाते थे. इस तरह से संदेश पहुंचाने को हीलियोग्राफी कहते हैं.

कैप्टन से हारेगा वो सेना में भर्ती 

1887 में भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा को सुरक्षित करने के लिए बंगाल इंफेंट्री में खासतौर पर रेजीमेंट तैयार की गई. 36वीं सिख रेजीमेंट. समाना में इसी रेजीमेंट को भेजा गया. कर्नल जिम कुक और कैप्टन हैनरी होम्स ने यह रेजीमेंट तैयार की. कैप्टन हैनरी इंडियन आर्मी के सबसे ताकतवर व्यक्ति माने जाते थे. जब वे लुधियाना आए तो उन्होंने वहां के युवाओं को एक चैलेंज दिया. कुश्ती लड़ने का. शर्त ये थी कि जो कैप्टन से हारेगा उसे सेना में काम करना पड़ेगा. इस तरह से नया तरीका अपना कर कैप्टन ने बहुत से युवाओं को सेना में भर्ती किया और रेजीमेंट को उसकी पूरी क्षमता तक लाए. पूरे 912 जवान. 8 टुकड़ियों में बंटे हुए. इन जवानों को अलग अलग चौकियों में बांट दिया गया. जैसे लॉकहार्ट किले में 168, गुलिस्तान में 175 और सारागढ़ी की चौकी पर 21.

सीमा बनने से अफगानी कबीले विद्रोह पर उतर आए

अगस्त 1897. ड्यूरेंड कमीशन सरहद बनाने के काम में लगा था. इससे नाराज पठानों ने विद्रोह करने की ठान ली. इनमें तिराह के आफ्रीदी लोग सबसे आगे थे. साथ में पड़ोस के ओराक्ज़ई कबीले को भी मिला लिया. 'हद्दा का मुल्ला' इन विद्रोहियों का सरदार था. उसने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी.
अफगानिस्तानी कबीलों की एक तस्वीर
अफगानिस्तानी कबीलों की एक तस्वीर

21 लड़ाके भिड़ गए 10 हजार की सेना से

12 सितंबर 1897. सुबह 9 बजे, किलों के बीच की कड़ी को तोड़ने के लिए पठानों ने सारागढ़ी पर हमला कर दिया. 10 से 12 हजार अफगानी पठानों की सेना सारागढ़ी के सामने खड़ी थी. और सारागढ़ी में थे 21. हर एक सिख के सामने 700 अफगान थे. लॉकहार्ट किले से भी यह सेना नजर आ रही थी. सिखों ने 60 अफगानों को मार गिराया. कुछ उस बीहड़ इलाके की चट्टानों के पीछे छुप गए और कुछ जमीन में बने गड्ढों में. पर दो अफगान छुपकर चौकी की दीवार तक पहुंच गए. ये दोनों अफगानी गुलिस्तान किले से मेजर दे वू को तो दिख रहे थे पर दीवार के एक दम करीब होने की वजह से सारागढ़ी के अंदर ल़ड़ रहे सिखों की नज़रों से बचे हुए थे. मेजर ने सिखों को अलर्ट करने के लिए आईना चमकाना शुरु किया पर सिग्नल रूम में बस एक ही आदमी था. गुरूमुख सिंह. बाकी जवान लड़ रहे थे. हीलियोग्राफी के लिए कम से कम तीन आदमियों की जरूरत होती है. एक आईना चमकाकर संदेश भेजने के लिए, एक सामने से आते संदेश को पढ़ने के लिए और तीसरा संदेश लिखने के लिए. गुरूमुख सिंह सारागढ़ी में हो रहे युद्ध की कहानी हीलियोग्राफ से बयां कर रहे थे. इसलिए वो मेजर का संदेश नहीं देख पाए. उन दो अफगानियों ने सूखी झंकाड़ियों में आग भी लगा दी थी. अगर गुरूमुख संदेश पढ़ना भी चाहते तो धुआं इतना था कि पढ़ नहीं पाते.
36वीं रेजीमेंट के सिपाहियों की एक तस्वी
36वीं रेजीमेंट के सिपाहियों की एक तस्वीर

लॉकहार्ट किले से लेफ्टिनेंट कर्नल हॉटन ने भी अपने 168 में से कुछ सिपाहियों के साथ मदद करनी चाही पर अफगान सेना इतनी थी कि किला बचाने के लिए उन्हें पीछे हटना पड़ा. सिख अभी भी लड़ रहे थे.
3 बजे. लड़ते लड़ते 6 घंटे हो चुके थे. दुश्मन ने चौकी की दीवार को तोड़ लिया. दीवार के बाहर अफगानों की लाशों का ढेर लगा था. उस ढेर पर चढ़कर बाकी के अफगान आगे बढ़े. अंदर भी जानें जा चुकी थीं. बचे हुए सिखों में थे चौकी के मुखिया इशार सिंह्. इशार सिंह ने जब दुश्मन को इतने करीब देखा तो बंदूक फेक कर हाथों से लड़े. कई अफगानों को बस हाथों से ही मार गिराया. अंदर से एक सिपाही गार्डरूम से गोलियां बरसाता रहा. अफगानों ने कमरे में आग लगाई और सिपाही को जला दिया. जलता हुआ सिख अपनी आखरी सांस तक लड़ा. अपने साथ कुछ और अफगानियों को भी आग की लपट में ले लिया. अब गुरूमुख सिंह ने भी हीलियोग्राफ बंद कर दिया. आखरी सिगनल में कहा - "अब मैं भी लड़ने जा रहा हूं."
अफगानों को 21 सिखों ने 6 घंटों तक रोके रखा. इससे किलों को सहायक सेना बुलाने के लिए समय मिल गया. जब सेना आई और सारागढ़ी के खंडहर हो चुकी चौकी को देखा, तो वहां लाशों का ढेर लगा था. 21 लड़ाकों ने 180 से ज्यादा अफगानों को मार गिराया था.
सारागढ़ी की खंडहर हो चुकी चौकी
सारागढ़ी की खंडहर हो चुकी चौकी

जिस हीलियोग्राफ को बचाने लड़े थे उसकी वजह से ही पहचाने गए

गुरूमुख सिंह ने हीलियोग्राफ से जो कहानी सुनाई, उसे ही टेलीग्राफ से लंदन भेजा गया. दुनिया भर के अखबारों में खबर छपी. कमांडर इन चीफ ने भी सारागढ़ी के 21 सिखों की बहादुरी को सलामी दी. अंग्रेजों ने उनके सम्मान में 2 गुरूद्वारे बनवाए. एक अमृतसर में और एक फिरोजपुर में. 12 सितंबर को इस संग्राम की याद में 36वीं रेजीमेंट में छुट्टी दी जाती है. सारागढ़ी के युद्ध को यूनाइटेड किंगडम में भी याद किया जाता है. 2017 में इस युद्ध की 120वीं वर्षगांठ को प्रथम विश्व युद्ध के सिख मेमोरियल में मनाया गया.
कैप्टन जय सिंह ने 2013 में सारागढ़ी पर एक किताब लिखी 'द फॉर्गोटन बैटल'. अब 2019 में सारागढ़ी पर एक फिल्म भी बन रही है. केसरी. फिल्म में अक्षय कुमार हैं. इसे 21 मार्च को रिलीज़ किया जाएगा.


शिवाजी महज़ हिंदुओं के नहीं, मुसलमानों के भी राजा थे

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