हाल ही में भारत सरकार ने अरुणाचल प्रदेश में 12 हाइड्रोपावर प्लांट्स के लिए एक बिलियन डॉलर (करीब 8,351 करोड़ रुपये) के निवेश की घोषणा की. वित्त मंत्रालय से मंज़ूर इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का उद्देश्य है कि इलाक़े का एनर्जी इनफ़्रास्ट्रक्चर (Energy Infra) मज़बूत हो और आर्थिक विकास हो. ऐसी आशंका जताई जा रही है कि भविष्य में इस तरह के प्रोजेक्ट से गांव और कस्बे डूब सकते हैं. और इन प्रस्तावित प्रोजेक्ट्स का जिन गांवों पर असर पड़ेगा, वहां के रहने वाले जमकर विरोध कर रहे हैं.
अरुणाचल में हजारों करोड़ के पावर प्रोजेक्ट्स का विरोध क्यों हो रहा है?
Arunachal Pradesh में प्रस्तावित hydro-power projects का जिन गांवों पर असर पड़ेगा, वहां के रहने वाले जमकर विरोध कर रहे हैं. बांध-विरोधी प्रदर्शन राज्य भर में हो रहे हैं.

बांध-विरोधी प्रदर्शन राज्य भर में हो रहे हैं. सोमवार, 8 जुलाई को केंद्रीय ऊर्जा मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने राज्य का दौरा किया. दौरे से पहले राज्य के दो कार्यकर्ताओं को ‘एहतियातन’ हिरासत में लिया गया. ये कहकर कि वो सार्वजनिक व्यवस्था में ख़लल डाल सकते थे.
अरुणाचल का विकास या ख़तरा?सियांग ब्रह्मपुत्र की मुख्य सहायक नदी (tributary) है. शुरू होती है तिब्बत के कैलाश से. वहां इसे त्सांगपो नदी कहते हैं. फिर अरुणाचल प्रदेश में घुसते ही सियांग हो जाती है. आगे जाकर दो और नदियों - लोहित और दिबांग - से मिलकर बनती है, ब्रह्मपुत्र. जो बंगाल की खाड़ी में बह जाती है.
अरुणाचल में नदी तीरे अपर सियांग ज़िला है. वहीं पर 11,000 मेगावाट का हाइड्रो-पावर प्रोजेक्ट प्रस्तावित है.
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अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की एक रिपोर्ट के बकौल छापा है कि सियांग नदी बेसिन में अभी ही 29 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स हैं. इनकी कुल क्षमता 18,326 मेगावाट है. साल 2017 में केंद्र सरकार ने अपर सियांग प्रोजेक्ट का प्रस्ताव रखा. राष्ट्रीय जलविद्युत ऊर्जा निगम (NHPC) को इस प्रोजेक्ट का ज़िम्मा मिला. 300 मीटर ऊंचे बांध का ज़िम्मा, जो उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा बांध होगा.

मगर इन प्रोजेक्ट्स को लेकर स्थानीय इतने उत्सुक नहीं हैं, जितनी सरकार. सालों साल से अरुणाचल प्रदेश में बांध-विरोधी प्रदर्शन होते आए हैं. तीन बांध विरोधी संगठनों - सियांग स्वदेशी किसान मंच (SIFF), दिबांग प्रतिरोध और उत्तर पूर्व मानवाधिकार संगठन - ने हाल ही में प्रोजेक्ट्स के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव पर ज्ञापन दिया. इसमें कहा गया है कि अरुणाचल प्रदेश में पहले से ही कई बांध और नदियां हैं, जिन्होंने सालों से ऐसे प्रोजेक्ट्स का बोझ उठाया है.
कार्यकर्ताओं ने उन समुदायों के लिए भी बात रखी है, जो इन प्रोजेक्ट्स की वजह से विस्थापित होने को मजबूर होंगे. उनका कहना है कि अदी जनजाति के 300 से ज़्यादा गांव, उनकी पुश्तैनी ज़मीनें डूब जाएंगी. सियांग स्वदेशी किसान मंच के अध्यक्ष गेगोंग जीजोंग का कहना है,
“हम 2008-09 से बांध के खिलाफ़ विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे कई गांव-क़स्बे जलमग्न हो जाएंगे. एक लाख से ज़्यादा आदि जनजातियां भूमिहीन हो जाएंगी. हमें बांध की ज़रूरत नहीं है.”
इस साल की शुरुआत में अरुणाचल प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार करते हुए मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने लोगों को आश्वासन दिया था कि कोई भी प्रोजेक्ट लोगों की सहमति से ही आगे बढ़ेगा. खांडू के आश्वासन के बावजूद अधिकारियों ने अपनी गतिविधि जारी रखी. बल्की तेज़ ही कर दी. अपर सियांग ज़िला प्रशासन ने प्रोजेक्ट का आधार तैयार करने के लिए कई बैठकें भी बुलाईं. मक़सद कि ‘प्रोजेक्ट के फ़ायदों के बारे में जागरूकता फैले’.
अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट स्क्रॉल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, अपर सियांग के डिप्टी कमिश्नर हेज लैलांग ने विरोध प्रदर्शनों को बहुत हल्के में निकाल दिया. कहा,
“केवल कुछ लोग ही विरोध कर रहे हैं, और ऐसे लोग भी हैं जो समर्थन कर रहे हैं.”

बांध क्यों बुरे? और, इलाक़े को इससे क्या नुक़सान है? इसके लिए हमने बात की डॉ भूपेन्द्र नाथ गोस्वामी से, जो दक्षिण एशिया के सबसे प्रसिद्ध मौसम वैज्ञानिकों में से एक हैं और भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक रह चुके हैं. उन्होंने हमें बताया,
"हमारे देश में बांध प्रबंधन (Dam Management) का बहुत खस्ताहाल है. जब बांध अपने चरम पहुंच जाता है और आप एकदम आख़िरी समय का इंतज़ार करें, तो बड़ा प्रवाह हो सकता है. हमें चाहिए कि मौसम विभाग के अनुमान के अनुरूप हम प्लैनिंग करें. अगर पानी का प्रवाह बढ़ने वाला है, बारिश होने वाली है, तो इसको ठीक से ट्रैक करना चाहिए.
इसीलिए अलग-अलग एजेंसियों में संवाद होना चाहिए. कभी ऐसे भी होता है कि भूटान से पानी छोड़ा और निचले असम में बाढ़ आ गई."
बांध का पर्यावरण पर जितना असर पड़ता है, उतना ही सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर भी. ख़ासतौर पर पूर्वोत्तर भारत में. पर्यावरण के नज़रिए से नदियों का प्रवाह बदलता है, पानी के पारिस्थितिकी तंत्र (Ecology) पर असर पड़ता है. तलछट और कटाव होता है. इससे बाढ़ का जोखिम बढ़ जाता है. सामाजिक रूप से देखें तो इससे जनता को विस्थापित होना पड़ता है. जो पारंपरिक रोज़ी-रोटी चली आ रही, वो बाधित होती है. स्वदेशी जनजातियों की ज़मीनें ख़तरे में आ जाती हैं. वहीं, आर्थिक रूप से बांध हाइड्रोपावर बनाने में कारगर हैं और सिंचाई के काम आते हैं. इससे क्षेत्रीय उत्पादकता बढ़ती है.
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पूर्वोत्तर में एक और खेल है. यहां का भूगोल. डॉ गोस्वामी ने दी लल्लनटॉप को बताया,
“असम और इस क्षेत्र का भूगोल बहुत संवेदनशील है. इसके दो बड़े कारण हैं. असम की मिट्टी. अलुवियल सॉयल है. बहुत हल्की होती है. इसमें कटाव का ख़तरा बहुत रहता है. दूसरी बात है सेसमिकली सेंसटिव ज़ोन. असम दो सेस्मिक प्लेट्स के ऊपर है. माने भूकंप का ख़तरा रहता है.”
मौजूदा समय में हाइड्रो-पावर वैश्विक बिजली उत्पादन में सालाना 2,700 TWh (टेरावाट-घंटे) का योगदान देता है. 66 देशों में कम से कम 50 फ़ीसदी और 24 देशों में 90 फ़ीसदी बिजली पानी से आ रही है. जोखिम और भारी लागत के बावजूद भारत हाइड्रो-पावर के प्रति प्रतिबद्ध बना हुआ है.
फ़र्स्टपोस्ट ने अपनी रिपोर्ट में एक सरकारी रिपोर्ट का हवाला दिया है. इसके मुताबिक़, आज की तारीख़ में भारत 15 गीगावाट की कुल क्षमता वाले हाइड्रो प्रोजेक्ट्स बना रहा है. अनुमान है कि 2031-32 तक देश की जलविद्युत क्षमता 42 गीगावाट से बढ़कर 67 गीगावाट हो जाएगी.
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