पति पत्नी और वो कैमरा की पांचवी किस्त आ गयी है. ये कहानी है आशीष और आराधना के एक छोटे से टूर की जब वो पहुंच जाते हैं चंदौली जिले के एक गाँव में. जहाँ धान उगाया जाता है. इस बार फोटुएं खींची हैं आराधना ने.

आराधना ने हमें वहां के लोगों से मुलाक़ात का अपना एक्सपीरियंस लिख भेजा है.
नैरेटर- आराधना सिंह.
फोटो- आशीष सिंह
जुलाई के आखिरी दिनों में आशीष ने घुमक्कड़ी का आइडिया दिया. दिेन के बारह बज रहे थे. उस समय सारे घाट बाढ़ में डूबे रहते हैं. आशीष का मन बाइकिंग का था तो एक दूसरे से बहुत डिस्कस करने के बाद हमने बनारस के पास हमने डिसाइड किया कि चन्दौली जिले के चकिया की और जाया जायेगा. ये पूर्वी उत्तर-प्रदेश का "धान का कटोरा" माना जाता है. मुझे तस्वीरें खींचने से ज़्यादा उनमें कैद कैरेक्टर्स को देखना. लेकिन आशीष ने अपना कैमरा मुझे पकड़ा दिया.

बुलेट से निकल पड़ने के बाद वहां पहुंचने पर मालूम पड़ा कि बनारस से केवल 30-35 किलोमीटर की दूरी पर ही इतनी अच्छी जगह है. खेतों में धान की बोआई चल रही थी. चारों तरफ़ हरियाली फ़ैली हुई थी. मकानों और इमारतों से घिरे रहने वालों के लिए तो अलग ही फ़ीलिंग होगी. गाँव की मजदूर औरतें मीठे लोकगीतों के साथ अपने काम में मशगूल थीं.

मुझे अचानक एक बड़े सवाल का जवाब मिल गया था. हम ज़िन्दगी को तलाशते हुए कितना भटकते हैं और ज़िन्दगी यहाँ खेतों में, मेहनती किसानों, इधर-उधर मँडराते बच्चों में और बोआई करती हर औरत के चेहरे पर खिलखिला रही थी. मैंने ढेरों बातें की उन सभी से. कैमरा मेरे हाथ में था. मुझे फ़ोटो खींचनी थीं. मैंने उनसे पूछा "यहाँ सूरज डूबता हुआ किस तरफ़ दिखाई देता है" सारी औरतें सोच में पड़ गईं. उनमें से एक औरत ने थोड़ी देर में कहा "का बहिनी ! हम्मन के एतना फ़ुरसत कहाँ कि सूरज के उगत देखीं, डूबत देंखीं" वो सारी की सारी खिलखिला कर हँसने लगीं. सच में मुझे मुझे वो खिलखिलाहट बहुत ताकतवर लगी. सारा ज्ञान, सारी समझ, सारी दार्शनिकता उस हंसी के सामने बेबस लगे.

मैं उनके गाने को अभी भी भूल नहीं पायी हूं-
जहिया से अइलीं पिया तोरी महलिया में,
राति दिन कइलीं टहलिया रे पियवा।।
करत रोपनियां मोरा गोड़वा पिरइले,
रुपिया के मुँहवा नाहीं देखलीं रे पियवा
दुनिया भर के तमाम गीतों की तरह इसका भी भाव यही है कि
प्रिय तुम मेरी मोहब्बत को समझो. मैनें उनकी कई तस्वीरें लीं. उनके चेहरे पर आने वाले एक्स्प्रेशन्स को कैमरे में कैद करना मुश्किल था और उससे सम्मोहित होना बहुत आसान. उन्होंने पूरे जोश के साथ हाथ हिलाते हुए "फिर अइहा बहिनी, बिटिया, भइया" कहते हमें विदा किया. हमें बहुत अच्छा लगा.

हम आगे बढ़े तो मुझे ठेले पर एक प्यारी लड़की दिखी. उसके बगल में उसका भाई गहरी नींद में सो रहा था. उनके पिताजी भी पास ही खड़े थे. मैंने उनसे उनकी फ़ोटो खींचने की परमिशन मांगी तो वो खुश हो गए. पर वो बच्ची वैसे ही चुप-चाप सी बैठी रही. एक फ़ोटो लेने के बाद मैंने उससे बात कर उसे हँसाने की खूब कोशिश की लेकिन उसकी वो वैसी ही उदास बैठी रही. उसे देखकर मेरे अन्दर की खुशी भी धीरे धीरे कम होती हुई लग रही थी. सच कहूं तो मैं थोड़ी डर सी गयी थी. भले ही मैं उसके गालो को सहला कर वह से चली आई हूं पर आज भी उसके बारे में सोचती हूं. मुझे उससे पूछने का मन होता है - "तुम खुश क्यूं नहीं हो?"

रात में घर आकर सोने से पहले मैं सोच रही थी कि घूमना बाहरी दुनिया को देखना भर नहीं है बल्कि दुनिया को आइना बना कर ख़ुद को निहारना है. और घूमते के दौरान मिलने वाले इंसानों के सहारे ख़ुद के बेहद क़रीब आ जाना है.