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जब RAW चीफ़ ने देखी डॉ कलाम के रॉकेट की उड़ान!

R&AW चीफ़ RN काओ ने डॉ कलाम के बनाए रॉकेट को देखकर क्या कहा?

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BSF का होम मेड राकेट बनाने में डॉक्टर कलाम ने योगदान दिया और इसकी टेस्टिंग के रोज RN काओ भी मौजूद थे (तस्वीर: wikimedia commons)
मुशर्रफ को लेक्चर 

साल 2005 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ भारत आए. भारत दौरे के एक हिस्से में उनकी और तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की मुलाक़ात होनी थी. 
पीके नायर कलाम के सचिव थे. मुलाक़ात से एक दिन पहले नायर कलाम से मिले और उन्हें चेताया, 'सर मुशर्रफ़ ज़रूर कश्मीर का मुद्दा उठाएंगे."
कलाम ने नायर से कहा, "चिंता मत करो, मैं संभाल लूंगा". 

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अगले रोज़ मुशर्रफ़ और उनका क़ाफ़िला राष्ट्रपति भवन पहुंचा. कलाम ने उनका स्वागत किया और मेज़ पर उनके ठीक बग़ल में बैठ गए. नायर ये सब देख रहे थे. उन्हें डर लग रहा था कि मुशर्रफ़ किसी भी वक्त कश्मीर के बारे में कुछ कहेंगे. और तब न जाने कलाम उनको क्या जवाब देंगे. लेकिन ऐसा होता, उससे पहले ही कलाम ने बोलना शुरू कर दिया. और ग्रामीण विकास के एक कार्यक्रम पर मुशर्रफ़ को पूरे 26 मिनट तक लेक्चर देते रहे. लेक्चर ख़त्म हुआ इतने में मीटिंग का 30 मिनट का समय ख़त्म हो गया. मुशर्रफ़ धन्यवाद कहकर वापस लौटे गए. कश्मीर क्या, कलाम ने उन्हें कुछ भी कहने का मौक़ा नहीं दिया. नायर बताते हैं, उस रोज मैंने अपनी डायरी में लिखा, "वैज्ञानिक कूटनीतिक भी हो सकते हैं.''

कलाम का रॉकेट जब उड़ा नहीं  

 साल 1970 की बात है. ग्वालियर के पास टेकानपुर स्थित BSF अकादमी के परेड ग्राउंड में कुछ VIP लोग इकट्ठा हुए थे. एक मौक़ा ख़ास था. वहां मैदान पर दो रॉकेट लान्चर रखे हुए थे. जिनसे दो रॉकेट लांच किए जाने थे. ये इन रॉकेट की पहली टेस्टिंग थी. एक छोटे से समारोह के बाद काउंटडाउन शुरू हुआ. 10 से लेकर गिनती 1 तक पहुंची लेकिन रॉकेट उड़ाने के बजाय रॉकेट लान्चर से यूं धुआं निकलने लगा, मानो ब्रिगेडियर सूर्यदेव सिंह ने उसके फ्यूज़ कंडक्टर निकाल लिए हो. कोई गैंडा स्वामी इस बात पर चौंकता, उससे पहले ही रॉकेट में आग लग गई. पास में लगा दूसरा लांचर भी आग की जद में आया. और दोनों जलकर राख हो गए.

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साल 2005 में जनरल परवेज मुशर्रफ भारत आए थे (तस्वीर: Wikimedia Commons)

उशिनोर मजूमदार की पेंग्विन से प्रकाशित हुई किताब, इंडिया सीक्रेट वॉर: BSF एंड नाइन मंथ्स टू द बर्थ ऑफ बांग्लादेश,  में इस क़िस्से का ज़िक्र है. मजूमदार बताते हैं, जो रॉकेट लांच नहीं हो पाया, उसे बनाने में दो लोगों का बड़ा योगदान था, डॉक्टर APJ अब्दुल कलाम और डॉक्टर विक्रम साराभाई. साराभाई तब ISRO के हेड हुआ करते थे. और डॉक्टर कलाम भी रॉकेट इंजिनीयरिंग से जुड़े काम कर रहे थे. इसके अलावा दो और दिग्गजों का नाम इस रॉकेट से जुड़ा. इनमें से एक थे, KF रूस्तमजी. भारत के एकमात्र पुलिस अफ़सर, जिन्हें पद्म विभूषण के सम्मान से नवाजा गया. और दूसरे थे R&AW के संस्थापक RN काओ. काओ की एंट्री इस क़िस्से में बाद में होगी. पBSF एंड हले जानिए रुस्तम जी का इस कहानी में क्या रोल था.

1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया, सीमा की सुरक्षा के लिए एक विशेष सीमा सुरक्षा बल की ज़रूरत महसूस हुई. इस काम की ज़िम्मेदारी KF रूस्तमजी को दी गई. कुल 25 बटालियन को मिलाकर गठन हुआ सीमा सुरक्षा बल यानी BSF का. गठन तो हो गया, BSF के लिए बजट में अलग से फंड भी दे दिया गया. लेकिन एक चीज़ जो रुस्तमजी चाहते थे, वो उन्हें सरकार से नहीं मिली. रूस्तमजी BSF के लिए बाहर से रेडियो उपकरण और हथियार आयात करना चाहते थे. लेकिन चूंकि फ़ॉरेन एक्स्चेंज का क्रंच था, सरकार ने कुछ भी आयात करने की इजाज़त नहीं दी. तब रूस्तमजी ने तय किया कि ये सभी चीज़ें वो BSF में ही तैयार करवाएंगे.

BSF में एक टेक्निकल विंग की शुरुआत हुई. सबसे पहले यहां एक इंडिया मेड रेडियो बनाया गया. इस काम में भारत में स्पेस टेक्नोलॉजी के पुरोधा विक्रम साराभाई ने मदद की. ये काम तो आसानी से हो गया. लेकिन असली दिक़्क़त थी हथियारों की. रुस्तम जी को ख़ास तौर से बम और रॉकेट की ज़रूरत थी. BSF के पास आर्टीलरी के नाम पर 2 इंच यानी 51 mm और 3 इंच यानी 81 mm कैलिबर के मोर्टार बम थे. दिक़्क़त ये थी कि ये दोनों वर्ल्ड वॉर टू के जमाने के हथियार थे.

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सीमा सुरक्षा बल 1 दिसम्बर 1965 को अस्तित्व में आया और श्री के एफ रूस्तमजी,आईपी इसके पहले प्रमुख और संस्थापक थे (तस्वीर: wikimedia commons)

भारतीय फ़ौज के पास 3 इंच का एक उन्नत क़िस्म का मोर्टार था. लेकिन BSF को उसकी डिलीवरी नहीं होती थी. रुस्तमजी चाहते थे उनके पास अपना खुद का स्टॉक हो. इसलिए ग्वालियर के पास टेकानपुर में एक अकादमी बनाई गई. और वहां बम और मोर्टार बनाने का काम शुरू हुआ. इसके बाद बारी आई हेवी आर्टीलरी यानी रॉकेट की. इसके लिए CRPF के एक डिप्टी कमांडेंट GP भटनागर को लाया गया. भटनागर इससे पहले इंडियन आर्मी में सेवा दे चुके थे. और वहां उन्होंने आर्टीलरी ऑफ़िसर की ज़िम्मेदारी संभाली थी.

साल 1969 में रुस्तमजी ने भटनागर को त्रिवेंद्रम स्पेस रिसर्च सेंटर भेजा था. यहां भटनागर डॉक्टर विक्रम साराभाई से मिले और उनसे वेपन डेवेलपमेंट के लिए मदद मांगी. साराभाई तैयार हो गए. मजूमदार अपनी किताब में लिखते हैं, डॉक्टर साराभाई और डॉक्टर कलाम ने BSF का पहला राकेट बनाने में महतवपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने BSF अकादमी के टेकनिशियन और इंजीनियरों को BITS मेसरा और पिलानी में रॉकेट साइंस की पढ़ाई करने भेजा. शुरुआती रॉकेट एलुमिनम के बने थे और उनमें एक सॉलिड प्रोपेलेंट इस्तेमाल होता था. मजूमदार आगे लिखते हैं,

“इन रॉकेट की शुरुआती टेस्टिंग टेकानपुर की BSF अकादमी के परेड ग्राउंड में होती थी. ताकि अगर रॉकेट अपनी दिशा से भटके भी तो पास स्थित झील में गिरे.”

जब रॉकेट की ठीक ठाक टेस्टिंग हो गई. एक रोज़ परीक्षण के लिए सभी VIP लोगों को बुलाया गया. BSF के डायरेक्टर जनरल, रुस्तमजी भी मौजूद थे. और उनके साथ एक और ख़ास गेस्ट भी वहां मौजूद था. RN काओ. काव के डर की वजह से तो नहीं कह सकते, लेकिन हुआ यही कि रॉकेटों ने उस रोज़ उड़ने से इंक़ार कर दिया. रॉकेट बनाने की ज़िम्मेदारी सम्भाल रहे, GP भटनागर भी वहीं खड़े थे. रॉकेट की असफलता देखकर उन्हें बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई. टेस्टिंग के बाद एक आफ़्टर पार्टी रखी हुई थी. भटनागर उसमें भी शामिल नहीं हुए और सीधे घर को चले गए. रुस्तमजी को जब अहसास हुआ कि भटनागर वहां नहीं हैं, उन्होंने एक अफ़सर को उनके घर भेजा और वापस पार्टी में ले आए. भटनागर आते ही जाम पर जाम चढ़ाने लगे. दोपहर में मिली असफलता को शराब के नशे में डुबाने की कोशिश कर रहे भटनागर को अहसास हुआ. उनके पीछे दो लोग खड़े हैं. इतने में एक तरफ़ से आकर RN काव उनकी बग़ल में बैठ गए, और दूसरी तरह रुस्तमजी आकर बैठ गए. रुस्तमजी ने पूछा, “भटनागर, क्या कर रहे हो?” 'सॉरी सर, रॉकेट फेल हो गए', भटनागर ने जवाब दिया.

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RN काओ R&AW के पहले प्रमुख और संस्थापक थे (तस्वीर: wikimedia Commons)

इतने में दूसरी तरफ बैठे काओ ने भटनागर से एक अजीब सा सवाल पूछा. काव बोले, ‘ये बताओ खुसरो ने तुम्हें पैसे कितने दिए है’. खुसरो, रुस्तमजी का फ़र्स्ट नेम था, और काओ उन्हें इसी नाम से बुलाते थे. बहरहाल सवाल सुनकर, भटनागर ने जवाब दिया, "सर, कुछ लाख रुपए लगे होंगे". इस पर काव ने एक और सवाल पूछते हुए कहा, "क्या तुम्हें पता है, अपोलो मिशन पर कितना खर्च हुआ है". काओ अमेरिकी स्पेस प्रोग्राम की बात कर रहे थे. 

इस सवाल का जवाब देते हुए भटनागर बोले, करोड़ों में हुआ होगा. लेकिन क्यों? तब काओ ने भटनागर को समझाते हुए बताया, “तुमने इसका एक प्रतिशत भी खर्च नहीं किया है. जब अपोलो मिशन फेल हो सकता है (अपोलो 13 भयानक रूप से फेल हुआ था). तो क्या तुम फेल नहीं हो सकते. इतने VIP लोगों के सामने तुम्हें टेस्ट किया. यही बड़ी बात है. अपने काम में लगे रहो, ज़रूर सफल होगे".

काओ के कहे का ऐसा असर हुआ कि GP भटनागर दुबारा काम में लग गए. डॉक्टर कलाम से मदद लेकर उन्होंने बेहतर डिज़ाइन बनाया. और जल्द ही BSF के पहले रॉकेट का परीक्षण करने में सफल हो गए. साल 1970 में पोखरण में इस रॉकेट का फ़ाइनल टेस्ट किया गया. और तब इसकी क्षमता इतनी हो गई थी कि ये 20 किलोमीटर तक हमला कर सकता था. इन रॉकेटों की बदौलत 1971 के युद्ध में BSF ने बड़ा योगदान दिया. और खुद GP भटनागर ने डेरा बाबा नानक की लड़ाई में हिस्सा लिया. सिर्फ़ 6 साल पुरानी BSF ने 1971 की बैटल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारत की जीत में एक अहम कारक रहा.

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अटल बिहारी वाजपेयी कलाम को अपनी कैबिनेट में शामिल करना चाहते थे लेकिन कलाम ने इंकार कर दिया (तस्वीर: getty)
अटल और कलाम की पहली मुलाक़ात 

1996 में PV नरसिम्हा राव की PM ऑफ़िस से रुखसती हुई, उन्होंने आने वाले प्रधानमंत्री को एक पर्चा पकड़ाया. जिसमें लिखा था, "कलाम से मिलिए". कौन कलाम. अटल किसी कलाम को नहीं जानते थे. फिर उन्हें पता चला, DRDO के हेड, डॉक्टर APJ अब्दुल कलाम की बात हो रही है, उन्होंने कलाम को मिलने के लिए बुलाया. इस बात का ज़िक्र वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने एक लिट्रेचर फ़ेस्टिवल में किया था. शौरी बताते हैं, 

“वाजपेयी ने कलाम को नरसिम्हा राव के दिए पर्चे के बारे में बताया. तब कलाम ने उन्हें बताया कि ये न्यूक्लियर परीक्षण के बारे में हैं. उन्होंने वाजपेयी को बताया कि राव न्यूक्लियर टेस्ट के लिए पूरी तरह तैयार थे, लेकिन फिर ऐन मौक़े पर वो अमेरिकी प्रेशर के आगे झुक गए. इस पर अटल ने कलाम से पूछा, हम कितने दिन में टेस्ट कर सकते हैं. कलाम ने जवाब दिया, एक महीना.” 

वाजपेयी ने कलाम से तैयारी शुरू करने को कहा. लेकिन उससे पहले ही वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिर गई. इसके बाद मार्च 1998 में वाजपेयी दुबारा सत्ता में आए. और दो महीने के अंदर-अंदर भारत ने परमाणु परीक्षण कर डाला

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