
डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. ‘देहातनामा’ के जरिए. पेश है इसकी बाइसवीं किस्त:
डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. ‘देहातनामा’ के जरिए. पेश है इसकी बाइसवीं किस्त:
जब नगीचे चुनाव आवत है भात मांगौ पुलाव आवत है. हम तौ ऊ बीर हैं कि जब केऊ मुंह पै थूकै तौ ताव आवत है.
(मतलब- जब चुनाव नजदीक आता है, तब भात मांगने पर पुलाव तक दे दिया जाता है खाने को, लेकिन चुनाव के बाद हालात बदल जाते हैं. कुछ मांगने पर उल्टे हमारे मुंह पर वे ही नेता थूक देते हैं. हम ऐसे वीर हैं, जिनकी बहादुरी चेहरे पर थूक दिए जाने के बाद जगती है. तब हमें ताव आता है. लेकिन अफसोस कि अगले चुनाव का समय आने पर हम फिर उनके जाल में फंसे, भात की जगह पुलाव चांपते दिखते हैं. हमारा ताव ठंडा हो चुका होता है. शायद फिर थूके जाने के इंतिज़ार में.)
ये पंक्तियां हैं कवि रफीक शादानी की. बारहवीं दर्जा का पढ़ैया था, जब मैंने इन पंक्तियों को पहली बार सुना था. चाय की दुकान पर बैठे कुछ चहेड़ियों के झुंड से. इसमें कुछ ऐसा है कि बात भीतर चिपक गई थी. लिखने वाले के नाम से मैं वाकिफ नहीं हुआ, लेकिन पंक्तियों ने अपनी जगह पक्की कर ली. कुछ समय बाद उसी दुकान पर उन्हीं चहेड़ियों में से किसी ने उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां पढ़ीं. पंक्तियों के आखिरी में 'ओफ्फोह' आता था. उसे बोलने का उसका अंदाज़ ऐसा था कि एक अलग ही 'ह्यूमर' पैदा होता था-
चंद्रास्वामी, राव जी, सुखराम जी देश मा एतने पुजारी ओफ्फोह भाजपा बसपा मा साझा भै रहा भेड़िया बकरी मा यारी ओफ्फोह हर मोहकमा घूमिके देखा रफीक यहि कदर ईमानदारी ओफ्फोह...
आपको अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा कि किस समय की बात की जा रही है इस कविता में. वही समय, जब पगलाई पब्लिक गणेश जी को दूध पिला रही थी. चमत्कारी थे चंद्रास्वामी. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव जी के चंद्रास्वामी. पूरा राजनीतिक घटनाक्रम जैसे यहां दर्ज हो गया है. पूरी सियासी चालबाजी बेपर्दा होती दिखेगी. साथ ही, दौरे-हाज़िर की कमाल की सियासी समझ भी है यहां. अखबार खबर देते हैं, समझ नहीं देते. रफीक जैसे कवि खबर को समझ के साथ लोगों में फैला देते हैं. जनता के दिल की बात कहते हैं. इसीलिए चाय की दुकान के कुल्हड़ों तक को यह कविता गरम करती है. बिना कहीं छपे दिल में छप जाती है. रफीक शादानी के जीते-जी उनका कोई संग्रह नहीं छपा. मौखिक रूप में कविताएं, ऐसे ही, यहां से वहां जाती रहीं.
साथियो, आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि यह समझदार कवि पढ़ा-लिखा एकदम नहीं था. ज़िंदगी ने उसे पढ़ने का मौका ही नहीं दिया था. पैदा हुआ था रंगून में. 1934 में. वहां इसके वालिद इत्र का कारोबार करते थे. दूसरे विश्व-युद्ध के चलते रंगून की भगदड़ हुई. उसमें इनके पिता को रंगून छोड़कर अपनी पुरखही ज़मीन अयोध्या-फैजाबाद आना पड़ा. सारी कमाई रंगून में छोड़ चुके थे. गांव में उतनी ज़मीन-जायजाद नहीं थी वैसे भी, नहीं तो रंगून क्यों जाते भला! गरीबी-गरानी में दिन बीतने लगे. पढ़ने तो दूर, जीना ही मुहाल था. अपने इकलौते इंटरव्यू में पत्रकार के.पी. सिंह से रफीक शादानी अपने जीवन के बारे में बताते हैं-
"स्कूल जाने की उमर थी, तो होटलों में जूठे बर्तन धोने और ठेले लगाने से फुरसत नहीं थी. पेट की आग तो जैसे ही बने, बुझानी ही थी. स्कूल जाता तो कैसे जाता? पेट कैसे भरता लौटकर?"
जीवनभर ठेला लगाता रहा यह कवि. अनपढ़ होकर पढ़े-लिखों की बखिया उधेड़ता रहा. 2010 में अपने इंतकाल तक. जैसे अपने समय में कबीर थे, कुछ वैसा ही. इनका दुनिया देखने का नज़रिया एकदम साफ था कि अच्छा इंसान बिना पढ़े-लिखे भी हुआ जा सकता है. अपने अनपढ़ होने पर सवाल किया गया, तो इन्होंने जो जवाब दिया, वह पढ़ा जाए-
के.पी. सिंह: आपको कभी अपने कवि के अनपढ़ होने का अफसोस हुआ? रफीक शादानी: हुआ भी तो पढ़ों-लिखों के करतब देखकर जाता रहा. समझ में आ गया कि पढ़े-लिखों के कारण ही आज-कल देश के शहरों में बारूद का मौसम है और मेरे जैसे अनपढ़ों के कारण ही गांवों में अमरूद का मौसम है. वैसे भी मेरा अनपढ़ कवि इतना नादान नहीं कि इतना भी न समझे कि कोई कवि अपनी शिक्षा या साक्षरता से नहीं, तेवर और संवेदना से बड़ा होता है.
कहना न होगा कि अनपढ़ता कहीं भी अच्छी कविता लिखने में बाधा नहीं बनी. मुशायरों में लोगों की फरमाइश का तांता लगा रहता. कविताएं दूर-दूर तक, देश-विदेश तक गईं. सोशल मीडिया के यू-ट्यूब पर देखिए, तो मकबूलियत का अंदाजा लगाया जा सकता है. जब तक जीता रहा यह कवि, अपनी गांव की भाषा, मादरी ज़बान, अवधी में सरकारों की ऐसी-तैसी करता रहा-
हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई आपस मा सब भाई-भाई तबहूं दंगा नगरी-नगरी धत्त तेरी ऐसी की तैसी
भयौ मनिस्टर भरौ तिजोरी घूमौ नैनीताल मसूरी अइसन करिहौ दूर गरीबी धत्त तेरी ऐसी की तैसी
सुविधाभोगी लेखकों को इस कवि से सीखना चाहिए. कलम-बेंचू पत्रकारों-लेखकों की इस दुनिया में कलम से न लिखने वाले इस कवि ने कलम के साथ अधिक न्याय किया है. कबीर जैसे, कलम गही नहिं हाथ, फिर भी. यह लेखक की ईमानदारी और हिम्मत थी, जिसने साफ कहा कि मैं बाग से भले चला जाऊं, लेकिन उल्लू को कबूतर नहीं कहूंगा, नेता को देवता नहीं कहूंगा, पुलिस को फरिश्ता नहीं कहूंगा, गोबर को हलुआ मैं नहीं कह सकता-
हमका ई गवारा है बगिया से चला जाई उल्लू का मुल कबूतर हमसे न कहा जाई.
नेता का कही देउता अउर पुलिस का फरिस्ता गोबर का यारों हेलुवा हमसे न कहा जाई.
गांवों की मेहनत और संसाधन शहरों को चमकाते हैं. जो गांव को प्यार करता है, वह इस चीज़ को अच्छे से समझता है. नेता गांव से वोट लेकर शहर का मज़ा भोगने जाते हैं. गांव के हिस्से क्या आता है! पाखंडी छांव में रहते हैं, ग्रामीण धूम में जलते हैं. जलपान नेता करते हैं, भुगतान ये बेचारे. किसानों का दुर्भाग्य तो देखिए, गल्ला-गेहूं तो दिल्ली रख लेती है, भूसा गांव के हिस्से आता है-
पाखंडी रहैं छांव मा घामे मा जरी हम? जलपान करैं नेता भुगतान करी हम!
भारत के किसानन कै दुरभाग तनी देखौ गोहूं का धरै दिल्ली भूसा का धरी हम!
ऐसा नहीं है कि रफीक ने सिर्फ सियासी दुनिया के पाखंड के खिलाफ लिखा. पाखंड जहां भी दिखा, उसके खिलाफ उनकी कविता पेश हुई. अजीब फितरत है अपने समाज की कि यहां जो ताकत में आता है, मौका पाता है, वह नरक जोतने से बाज नहीं आता. बड़े-बड़े नेता ही नहीं, गांव का प्रधान भी कम नहीं-
खूब किहेउ मनमानी सरऊ तबै गई परधानी सरऊ अब तौ खिचरी नीक न लागय खात रहेउ बिरयानी सरऊ
अवध में गंगा-जमनी तहज़ीब को आतंकवाद ने बहुत धक्का पहुंचाया. समाज में फाट पैदा हो गई. उन दिनों विवादित-स्थल अयोध्या में एक आतंकी घटना हुई थी. आतंकवादी वहां गोला-बारूद लेकर उत्पात करने आए थे. रफीक गंगा-जमनी तहजीब के सच्चे नुमाइंदे की तरह आतंकवादियों को ललकारते हुए अपने फैज़ाबाद पर भरोसा दिखाते हैं-
नोट की गड्डी पाइ गए तो तन डोला मन डोला राम लला पर फैंके आए कुछ लोगै हथगोला उनहीं के हाथे मा दगिगा हुइगे उड़नखटोला और... बड़े बहादुर बनत हौ बेटा आइ के देखौ फैजाबाद!
अयोध्या के इस मंदिर-मस्ज़िद विवाद पर भाजपा की राजनीतिक चालबाजी का भांडाफोड़ करती हुई उनकी एक कविता है, जो मंचों पर खूब सुनी जाती थी. वैसी कविता शायद किसी दूसरे इतने पापुलर कवि ने नहीं लिखी है. जनता को समझने के लिए रफीक कहते हैं कि ये मंदिर बनवा देंगे, तो क्या कहकर चंदा मांगेंगे? जोशी और सिंघल तो बेरोजगार हो जाएंगे. सच तो यह है कि मंदिर-मस्ज़िद न बने न बिगड़े और सोनचिरैया (भारत और यहां की जनता) ऐसे ही फंसी रहे, यही बढ़िया, क्योंकि इससे सरकारी कुर्सी तो बची रहेगी-
का कहिके चंदा मंगिहैं जनता से छल-बल का करिहैं जब राम कय मंदिर बनि जाए तब जोसी सिंघल का करिहैं मंदिरर-मस्ज़िद बनै न बिगड़ै सोन चिरइया फंसी रहै भाड़ मा जाय देस कै जनता आपन कुर्सी बची रहै...
आज बड़े-बड़े बैंक-चोर आसानी से देश से बाहर पहुंचकर वहां से यहां को आंखें दिखा रहे हैं. ठेंगा दिखा रहे हैं. सरकार और देशभक्ति के 'होलसेलर्स' को सांप सूंघ गया है. देश के असली बंटाधारी ये ही हैं. इनकी खबर लेने के बजाय किसानों, मज़दूरों, मजबूरों, गरीबों से नोट जमा करवाकर अर्थव्यवस्था पटरी पर लाई जा रही है. ठीक इसी दशा पर रफीक ने बहुत पहले लिखा था:
देस का कौनौ खतरा नाहीं छोटे-छोटे चोरन से देसवा का नुकसान बहुत हय बड़े कमीसन खोरन से...
एक बार पद्मश्री बेकल उत्साही के साथ बैठा था. उनके एक कविता-संग्रह के बैक ब्लर्ब पर लिखा है: "भासा ऐसी जन मन बिन पुस्तक के बांचैं / आलोचक बिन सूझबूझ के जेहिक जांचैं." रफीक शादानी की बात चल रही थी, तो उन्होंने बताया कि ये दो पंक्तियां रफीक शादानी की कविता के लिए ही लिखी गई हैं. वह न पढ़ा होकर भी पढ़े-लिखे कवियों से लाख गुना बेहतर था. क्या भाषा है उसकी और क्या कहने का अंदाज! बेशक रफीक की कविता पानी की तरह बहने वाली कविता है. बिना रुकावट के. बिना बनावट-गिरी के. सरल और सहज लेकिन धारदार. वही जो बहते पानी का स्वभाव है. कबीर ने कहा है, 'भाखा बहता नीर'!