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तालिबान में परदे के पीछे क्या पॉलिटिक्स हो रही है कि सरकार नहीं बन पा रही?

किस तरह की गुटबंदी की खबरें आ रही हैं?

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तालिबान को अफगानिस्तान पर काबिज़ हुए 20 दिन से ज्यादा हो गए हैं लेकिन अब तक वहां कोई सरकार नहीं बन पाई. इसके पीछे मतभेदों की खबरें आ रही हैं. तस्वीर में लेफ्ट साइड में दोहा में मीटिंग के लिए जाते तालिबान के प्रतिनिधि और राइट साइड में काबुल में तैनात एक तालिबान लड़ाका. (फोटो-पीटीआई)
15 अगस्त 2021 को तालिबान (Taliban) ने काबुल पर कब्जा किया. 2 दिन बाद प्रेस कॉन्प्रेंस करके उसने वादा किया कि पहले की तरह किसी पर जुल्म नहीं ढाएंगे. तालिबान ने कहा कि अमेरिका के साथ हुए दोहा समझौते का पालन किया जाएगा. जल्दी ही देश के बाकी गुटों के साथ मिलकर एक मिली-जुली सरकार बनाएंगे. आज 6 सितंबर है. यानी 22 दिन होने के बाद भी अफगानिस्तान में कोई सरकार नहीं है. पहले कहा गया कि मुल्ला अब्दुल गनी बरादर सरकार के मुखिया होंगे. फिर खबर आई कि हैबतुल्लाह अखुंदजादा सुप्रीम नेता होंगे. हालांकि बाकियों में किसके पास कौन सी जिम्मेदारी होगी, इसकी तस्वीर साफ नहीं हो पाई. सवाल उठता है कि तालिबान की सरकार आखिर क्यों नहीं बन पा रही. आइए जानते हैं. दोहा गुट और हक्कानी गुट आमने-सामने दरअसल, तालिबान के लड़ाके एक झंडे के नीचे लड़े जरूर, लेकिन इस लड़ाई में शामिल सभी गुटों के अपने-अपने अजेंडे रहे. तालिबान का एक कट्टर गुट इस्लाम का झंडा लेकर आगे बढ़ना चाहता है तो दूसरा अमेरिका के साथ हुए समझौते को लेकर चलना चाहता हैं. ऐसे में तालिबान के भीतर भी खींचतान की खबरें दुनियाभर के मीडिया में आ रही हैं.
अमेरिका ने कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के जिस गुट से मुलाकात की थी, उसमें और हार्ड लाइनर हक्कानी गुट में टकराव की खबरें आ रही हैं. बताया गया है कि हक्कानी गुट ने हैबतुल्लाह अखुंदजादा को सुप्रीम लीडर मानने से इंकार कर दिया है. इनमें सबसे बड़ा टकराव अफगानिस्तान की पुरानी सरकारों से बातचीत को लेकर है.
तालिबान ने कुछ दिन पहले अमेरिका से किए वादे के अनुसार अफगानिस्तान के पूर्व प्रेसिडेंट हामिद करजई और दो बार के प्रेसिडेंट उम्मीदवार अब्दुल्ला अब्दुल्ला से बातचीत की थी. लेकिन कट्टर हक्कानी गुट, इन्हें सरकार में शामिल करने के खिलाफ है. ऐसी खबरें भी आई हैं कि हक्कानी गुट और मुल्ला बरादर के बीच इसे लेकर तीखी बहस भी हुई है. ईरान के पत्रकार तजुदैन सोरौश ने भी तालिबान के गुटों में दरार की बात कही है.
कई जानकारों का कहना है कि असल में हक्कानी गुट अफगानिस्तान में पाकिस्तान का मोहरा है. आज से नहीं, बल्कि तब से जब 1979 में रूस अफगानिस्तान छोड़कर गया था. हक्कानी नेटवर्क का गठन पूर्व मुजाहिद्दीन कमांडर जलालुद्दीन हक्कानी ने किया था.
1980 के दशक में जलालुद्दीन ने अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA की ट्रेनिंग और फंडिंग से इसे शुरू किया था. CIA ने उस वक्त अफगानिस्तान पर काबिज सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने के लिए इस तरह कई लड़ाकों की मदद की. उस दौर में जलालुद्दीन एंटी-सोवियत जिहाद के हीरोज में शामिल था.
अफगानिस्तान में सोवियत सरकार के पतन तक जलालुद्दीन ने ओसामा बिन लादेन सहित कई विदेशी जिहादियों के साथ अच्छे रिश्ते बना लिए थे. 2001 में जब 9/11 का हमला हुआ तो हक्कानी ने दिखाने के लिए अमेरिका का साथ दिया, लेकिन भीतर खाने में ओसामा बिन लादेन की मदद की.
2018 में जलालुद्दीन हक्कानी की मौत के बाद उसके बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी ने गुट को संभाला. सिराजुद्दीन पूरी तरह से पाकिस्तान के प्रभाव में है. पाकिस्तान इस बात पर जोर डाल रहा है कि नई सरकार में हक्कानी गुट को रक्षा, संस्कृति और विदेश विभाग जैसे ताकतवर पद दिए जाएं. इससे वो अफगानिस्तान में अपनी मजबूत उपस्थिति बनाए रखने के साथ उसके भारत के पाले में जाने की कोशिशों को रोक सकेगा.
सिराजुद्दीन हक्कानी पर अमेरिकी एजेंसी एफबीआई ने 50 लाख डॉलर का इनाम रखा है. अमेरिकी एडमिरल और 2007 से 2011 के बीच अमेरिका के चेयरमैन ऑफ जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ रहे माइक मुलेन ने सिराजुद्दीन को पाकिस्तान का 'असल हाथ' कहा था. यूनाइटेड नेशंस ने जून 2021 में तालिबान लड़ाकों को लेकर जो रिपोर्ट दी थी, उसमें हक्कानी गुट को ही सबसे खतरनाक बताया गया था.
जलालुद्दीन हक्कानी का दूसरा बेटा अनस हक्कानी और भाई खलील हक्कानी भी तालिबान का हिस्सा हैं. अनस हक्कानी भी अमेरिका की मोस्ट वांटेड सूची में शामिल है.
Anas Jalaluddin Haqqani
जलालुद्दीन हक़्क़ानी (बाएं) और उसका बेटा अनस हक़्क़ानी (दाएं).
पाकिस्तान की टेरर पॉलिटिक्स इधर, तालिबान सरकार के भीतर कलह की खबरें आईं तो उधर से पाकिस्तान बीच-बचाव करने के लिए आगे आ गया. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के चीफ लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हमीद 5 सितंबर को काबुल पहुंच गए. कहा जा रहा है कि वो नई अफगान सरकार में हक्कानी ग्रुप के लिए बैटिंग करने पहुंचे हैं. पाकिस्तान को लेकर साउथ एशिया मामलों कि एक्सपर्ट क्रिस्टीना फेयर ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में बताया,
"पाकिस्तान कभी नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में शांति बहाल हो. वो बस सीमित स्तर पर अव्यवस्था फैलाए रखना चाहता है. दूसरी तरफ जो अफगान शरणार्थी पाकिस्तान पहुंच रहे हैं उनकी मदद के नाम पर वो दुनिया भर की संस्थाओं से पैसे भी ले रहा है. पाकिस्तान ये इंप्रेशन देना चाहता है कि वो आग बुझाना चाहता है, लेकिन सचाई ये है कि वो खुद आग लगाने वाला है. 1990 के दशक से ही पाकिस्तान तालिबान को समर्थन देता रहा है."
पाकिस्तान के इस खेल में एक और मोहरा है. उसका नाम है गुलबुद्दीन हिकमतयार. 70 के दशक में हिकमतयार काबुल यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था. वहीं उसने एक कट्टर इस्लामिक गुट बनाया. उस जमाने में ही वेस्टर्न ड्रेसेज पहनने वाली महिलाओं पर तेजाब फेंकने के कई केस सामने आए. इसमें हिकमतयार और उसके गुट का नाम सामने आया था. जब अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ जिहाद का ऐलान हुआ तो हिकमतयार भी उसमें शामिल हो गया.
अमेरिकी हथियारों के साथ मुजाहिदीन बन कर लड़ा हिकमतयार अफगानिस्तान में बड़ा प्रभावशाली नेता साबित हुआ. 90 के दशक में वो दो बार अफगानिस्तान का प्रधानमंत्री रहा. ऐसे में जब पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी के मुखिया अफगानिस्तान पहुंचे तो सबसे पहले गुलबुद्दीन हिकतमयार से मिलने गए. हिकमतयार ने 2001 से 2021 तक अमेरिका की अफगानिस्तान में मौजूदगी को रूस की अफगानिस्तान में मौजूदगी जैसा ही बताया है.
अफगानिस्तान में नई सरकार बनने में देरी असल में अमेरिकाी और पाकिस्तानी पॉलिटिक्स की गोटी फिट न हो पाने से जुड़ी है. एक तरफ तालिबान सबको लेकर साथ चलने, मानवाधिकारों का आदर करने और महिलाओं को अधिकार देने की बात कर रहा है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान कट्टर हक्कानी गुट को सरकार में अजस्ट करने की कोशिश में लगा है. जानकारों का कहना है कि ये नाजु़क बैलेंस जैसे ही बनेगा तालिबान की सरकार बन जाएगी. ऐसा न होने पर अफगानिस्तान पर फिर से एक गृह युद्ध का खतरा मंडरा सकता है.

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