पिंक फिल्म आई. आई तो लोगों में बात होने लगी. फेमिनिस्म पर. औरत की रजामंदी पर. औरत के भी इंसान होने पर.
No सिर्फ एक शब्द नहीं होता. पूरा वाक्य होता है. लोग समझने की कोशिश कर रहे हैं. बेहतरीन फिल्म है पिंक. लेकिन उससे भी ज्यादा, एक बेहद ज़रूरी फिल्म है पिंक. ये आर्टिकल DailyO के लिए
प्रेरणा कॉल मिश्र ने लिखा है इंग्लिश में. हम आपको ये आर्टिकल हिंदी में ट्रांसलेट करके
द लल्लनटॉप पर पढ़वा रहे हैं.
इस फिल्म का इंटरवल कुछ अलग था. आज पॉपकॉर्न खाने की कोई डिमांड नहीं की गई थी. कोला और कैंडी के लिए भी कोई जिद नहीं थी.
मेरी 11 साल की बेटी मेरी तरफ मुड़ी. मैंने देखा उसकी आंखों में पानी की बूंदें चमक रही थीं.
'मॉम, शायद मुझे समझ आ रहा है कि आप की बात का क्या मतलब था' थोड़ा झिझकते हुए वो आगे बोली, '
कई बार अनजाने में ही चीज़ें हाथ से निकल जाती हैं. कोई जानबूझकर कुछ करता नहीं, लेकिन शायद ऐसा हो जाता है, है ना?'
हम लोग पिंक देख रहे थे. अभी फिल्म आधी ही हुई थी. और मुझे अभी से लग रहा था कि मेरे बगल में बैठी मेरी बेटी थोड़ी सी बड़ी हो गई है. और शायद ऐसा बिलकुल सही समय हो रहा था.
पिछले कुछ दिनों से मेरी बिटिया और मेरे बीच थोड़ी खटपट चल रही थी. वो अपनी किसी दोस्त के घर एक दिन रुकने के लिए जाना चाहती थी. ये कोई प्रॉब्लम नहीं थी. प्रॉब्लम ये थी कि उसकी इस दोस्त से मैं कभी मिली नहीं थी. ना ही मैं उसके पेरेंट्स को जानती थी. ये दोस्त मेरी बेटी से दो साल सीनियर थी. बढ़ते हुए बच्चे की परवरिश करने की थोड़ी सी भी समझ जिसके पास हो, उसके लिए ये सब नॉर्मल से कोसों दूर था.

मैं जो भी कह रही थी मेरी बेटी सुनने को ही तैयार नहीं थी. और शायद ये मेरी ही वजह से हुआ था. अपनी बेटी को मैंने हमेशा हिम्मती बनाया था. उसको लोगों पर भरोसा करना और खूब प्यार करना सिखाया था. और अभी तक मुझे कभी भी अपनी बच्ची को इससे उल्टा कुछ भी सिखाने की ज़रुरत नहीं पड़ी थी.
पर अब ज़रूरत पड़ रही है. मेरी बेटी अब एक स्मार्ट और समझदार टीनएजर लड़की बन रही है. अब ये मेरी ही ज़िम्मेदारी है कि मैं उसको दुनिया के दोगलेपन और स्याह सच्चाई से परिचित करवा दूं. किसी भी मां के लिए ये शायद सबसे मुश्किल काम होता है. अपने दुलारे और मासूम से बच्चे को ये सिखाना कि वो अजनबियों से डरे. लोगों की नीयत पर शक करे. जाने-अनजाने लोगों के फ्रेंडली व्यवहार को भी हर बार नापे-तौले. ये शायद खुद के लिए एक हार जैसा है.
पर शायद पैरेंट होने पर ये ज़रूरी भी हो जाता है कि आप थोड़े स्ट्रिक्ट रहें. बच्चे की सेफ्टी और उसकी आने वाली ज़िन्दगी के लिए ये सबसे ज़रूरी होता है. मैं घंटों उससे बात करती रही. उसको समझाती रही कि मैं उसको अनजान लोगों से भरे घर में क्यों जाने नहीं देना चाहती. लेकिन मेरी खुद की ट्रेनिंग मेरे रास्ते में आ रही थी. मैं अपनी बेटी से वो सब कुछ भूल जाने को कह रही थी जो अभी तक उसने सीखा था. और उम्मीद कर रही थी कि वो एक शक्की इंसान बन जाए. और ये अच्छी बात थी कि मेरी बेटी बहुत डटकर इस बात का विरोध कर रही थी. सिनेमा हॉल की लाइटें फिर से हल्की हो गईं. हम फिर से फिल्म की कहानी का हिस्सा बन गए. लड़कियों के लिए रूलबुक की बातें होने लगीं और हम बहुत सारी सच्चाइयों के साथ घर लौटे.
मैं उस संवेदनशीलता की मुरीद हो गई हूं, जिससे इस फिल्म में फेमिनिज्म पर बात की गई है. बिना किसी स्टीरियोटाइप या ब्रा जलाने वाले मुद्दे पर बेवजह जोर दिए. ये फिल्म इतनी बारीकी से वो सच्चाई दिखाती है जो आप देखना चाहते हैं. आईने में आपकी अपनी ही सूरत दिखती है. बिलकुल सही लाइट, सही एंगल में.
देखने वाले जिसको
दीपक सहगल की सटायर की रूलबुक मान रहे हैं, मैं उस रूलबुक को
'औरत की सेफ्टी के लिए ज़रूरी' मैन्युअल मानती हूं.

ये रूलबुक क्यों ज़रूरी है.
1. क्योंकि ये मैन्युअल है औरतों की जिम्मेदारियों और उनके अधिकारों के लिए. 2. क्योंकि अगर आप मानती हैं 'ना का मतलब ना' है और 'हां का मतलब हां'. तो आपकी हर उस चॉइस की ज़िम्मेदारी आपको लेनी होगी जिसके लिए आपने हां खुद कहा है. 3. क्योंकि ये मैन्युअल औरतों के लिए एक सावधानी है. जो कहती है 'अपनी प्लेट में वही परोसो जो खा सकती हो'. यानी जिस जगह पर, जिस माहौल में या जिस मौके पर अपनी सेफ्टी का ध्यान रख सकती हो. उसी के लिए हां कहो. क्योंकि तुम्हारे भीतर का फेमिनिस्म तुमको सही सलामत घर नहीं पहुंचा देगा. इससे फर्क नहीं पड़ेगा कि तुम दिमाग में कितना सेफ फील करती हो बल्कि ज़रूरी चीज़ ये होगी कि तुम असल में कितनी सेफ हो. (फिल्म में गुंडे अपनी कार में मीनल को जबरदस्ती उठा ले गए थे और हमारा सिस्टम उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया.)
इसीलिए एक आज़ाद और सेल्फ-डिपेंडेंट औरत के तौर पर अपने दुश्मनों को बहुत एहतियात से चुनों. ज़रूरी नहीं है कि तुम्हारे पड़ोस में दीपक सेहगल जैसा कोई कोई वकील रहता हो.
अब एक मुद्दे की बात. बात ये कि औरत और आदमियों के दिमाग की बेसिक वायरिंग ही अलग-अलग है. जब कोई कहता है कि
'मर्द तो मर्द ही रहेंगे'. पता नहीं लोग बुरा क्यों मान जाते हैं. ज़ाहिर सी बात है.
आदमी आदमी ही रहेंगे, जैसे औरतें औरतें ही रहेंगी. शायद ही कभी ऐसा होता होगा जब औरतों ने गैंग बना कर किसी आदमी का रेप किया हो. औरतें आदमी को अट्रैक्ट कर सकती है. उकसा सकती है लेकिन शायद ही कभी किसी आदमी को मोलेस्ट करें. कितनी बार आपने ये सुना होगा कि किसी आदमी ने no कहा और उसका चेहरा एसिड से जला दिया गया हो. या किसी औरत ने गुस्से से किसी आदमी को सड़क के बीचों-बीच 22 बार चाकू से गोद दिया हो.
सच्चाई यही है कि आदमियों के दिमाग की वायरिंग ऐसी है कि वो औरतों से ज्यादा बुरे काम कर सकते हैं. पिंक की कहानी से मेरी बेटी रिलेट कर पाई. ये फिल्म मेरी बेटी से वो बातें कर पाई जो बातें करने के लिए मैं बहुत दिनों से कोशिश कर रही थी. और ये बातें मेरी बेटी एक बार फिल्म देखकर ही समझ गई.
मेरी बेटी के लिए कोई बंधन नहीं है. लेकिन ये ज़रूरी है कि वो अपनी चॉइस की ज़िम्मेदारी लेना सीख जाए. मेरी बेटी चूंकि आज के वक़्त की लड़की है. मुझे उम्मीद है कि वो अपने कामों की ज़िम्मेदारी लेगी और हमारे 'लड़कों को सेफ' रखेगी.