इज़रायल और ईरान एक फुल-स्केल वॉर के मुहाने पर खड़े हैं. इज़रायल को अमेरिका का खुला समर्थन है. अमेरिका उसकी कूटनीतिक ढाल बना हुआ है. उसके सभी हथियार कहीं न कहीं अमेरिका से जुड़े हुए हैं. ऐसा भी अंदेशा है कि इज़रायल के साथ अमेरिका भी ईरान पर बमबारी शुरू कर दे. लेकिन दूसरी तरफ़, ईरान अकेला है. बिलकुल अकेला. इस्लामी एकजुटता की बात करने वाले तुर्किए और पाकिस्तान जैसे देश भी बयान देने के अलावा और कुछ नहीं कर सके. खाड़ी के देश भी सिर्फ़ इज़रायली हमले की निंदा ही कर सके हैं. क्या इस्लामी उम्मत की बात सिर्फ़ एक ख़याल है? इस चुप्पी की वजह क्या है? इज़रायल के ख़िलाफ़ इस्लामी देश एकजुट क्यों नहीं हो सके?
जंग में ईरान को अकेला क्यों छोड़ देते हैं इस्लामिक देश? कहां चली जाती है 'उम्मत'?
साल 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति आई. रेज़ा शाह पहलवी की हुक़ूमत सत्ता से बेदख़ल हुई. अयोतल्लाह ख़ुमैनी सुप्रीम लीडर बने. कहा गया कि ये इंकलाब सिर्फ़ घर के लिए नहीं है. इस्लामी दुनिया को बदलने के लिए है. उसी दिन से ईरान धीरे-धीरे अकेला पड़ता गया. ख़ासकर सुन्नी बहुल अरब दुनिया से.

साल 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति आई. रेज़ा शाह पहलवी की हुक़ूमत सत्ता से बेदख़ल हुई. अयोतल्लाह ख़ुमैनी सुप्रीम लीडर बने. कहा गया कि ये इंकलाब सिर्फ़ घर के लिए नहीं है. इस्लामी दुनिया को बदलने के लिए है. उसी दिन से ईरान धीरे-धीरे अकेला पड़ता गया. ख़ासकर सुन्नी बहुल अरब दुनिया से.
लेकिन इसके पहले तस्वीर किसी और रंग से रंगी थी. साल 1938. सऊदी अरब की रेत में तेल का समंदर फूटा. इसके बाद अमरीका ने सऊदी से हाथ मिला लिया. अमरीका को तेल चाहिए था, और सऊदी को ताक़त. तेल दो, हम तुम्हारी हिफाज़त करेंगे. बीच-बीच में थोड़ी बहुत रंजिशों को छोड़ दें, तो ये सौदा अब तक चलता आ रहा है. इसकी बात कभी और करेंगे. फिलहाल, कहानी में उतरते हैं.
दूसरी तरफ था ईरान. रेज़ा शाह की हुक़ूमत थी. अमरीका के क़रीब हुआ करती थी. सऊदी अरब और ईरान, वेस्ट वशिया में अमेरिका के दो सबसे बड़े साथी थी. इसके बाद आया 1979. ईरान इस्लामिक रिपब्लिक बना. पूरी की पूरी ताक़त सुप्रीम लीडर के हाथ में गई. इसी दौर में शाह भी ईरान छोड़ कर भाग गए. ईरान में अमेरिका का कोई पिट्ठू नहीं बचा. अयातुल्लाह ख़ुमैनी ने अमेरिका को 'ग्रेट सेटन' कहा. और, इज़रायल को ‘लिटिल सेटन’.
यहां तक तस्वीर अलग थी. लेकिन खुमैनी की सोच "विलायत-ए-फ़क़ीह" पर आधारित थी. इसमें मजहबी उलेमा सबसे बड़े हुक्मरान होते हैं. जबकि सुन्नियों में ऐसा नहीं था. उनमें उलेमा सिर्फ मजहबी काम करते हैं. और, शासक कोई और होता है. ख़ुमैनी का एक और ख़याल था. वो इस्लामी क्रांति फैलाना चाहते थे. यानी ईरान से एक्सपोर्ट करना चाहते थे. वो बादशाहत को गैर इस्लामी मानते थे. इस ख़याल को खाड़ी की बादशाहत के लिए एक ख़तरे की तरह देखा गया.
ये सब चल ही रहा था कि 1980 में सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला कर दिया. ईरान नया मुल्क था. अकेला पड़ चुका था. सद्दाम को लगा, यही मौक़ा है. उसने अरब दुनिया को जोड़ा. इसमें सद्दाम की मदद सऊदी ने की. पैसे दिए. जंग चली आठ साल. सद्दाम सुन्नी था. लेकिन इराक शिया देश था. शिया बहुल था. फिर भी ज़्यादातर शियाओं ने अपने मुल्क के साथ लड़ाई की. और, ईरान के ख़िलाफ़. ख़ुमैनी की शिया एकता की बात पर सबसे बड़ा सवाल वहीं उठा. इस जंग में ईरान को भारी नुक़सान हुआ. आख़िर में ख़ुमैनी ने सद्दाम से समझौता कर लिया.
इस जंग के बाद अगले सुप्रीम लीडर अली ख़ामेनेई ने क्रांति एक्सपोर्ट करने वाली बात पर ज़ोर देना कम कर दिया. लेकिन ख़ुमैनी के दौर में ही ईरान की फ़ॉरेन पॉलिसी सेट हो चुकी थी. ख़ुमैनी का नारा था, 'ना पूरब, ना पश्चिम'. यानी अमरीका भी नहीं, रूस भी नहीं. ईरान अकेला चलेगा. अपना रास्ता चुनेगा. ये बात सुनने में बड़ी क्रांतिकारी लगती है. लेकिन सच्चाई ये कि इससे ईरान अकेला पड़ गया. दोनों ब्लॉक्स से दूर हो गया. उधर अरब सरकारें अमरीका से डील कर रहीं थीं. हथियार ले रही थीं. सुरक्षा ले रही थीं.
इसी बीच ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम की बात उठने लगी. इज़रायल की ओर से खुलेआम ऐसे दावे सुनने को मिले जिसमें कहा गया कि ईरान परमाणु बम बना रहा है. अरब देश चौकन्ने हुए. उस इलाक़े में किसी के पास परमाणु बम नहीं था. 2002 में ईरान के नतांज़ न्यूक्लियर साइट का ख़ुलासा हुआ. इसके बाद शक़ का घेरा और बड़ा हो गया. ईरान पर पश्चिमी देशों की पाबंदियां लग गईं. और, खाड़ी के बाक़ी देश अमेरिका के क़रीब होते चले गए. जब 2018 में ट्रंप ने न्यूक्लियर डील तोड़ी, तब सऊदी अरब ने इस फ़ैसले का स्वागत किया. क्राउन प्रिंस ने कहा- “अगर ईरान को बम मिला, तो हम भी बनाएंगे.”
सऊदी और ईरान का झगड़ा कई दफ़ा प्रॉक्सी वॉर में भी तब्दील हुआ. कई इलाकाई झगड़े प्रॉक्सी वॉर बन गए. कुछ मिसालें देखिए.
पहला, लेबनॉन. ईरान में लेबनान ने हिज़्बुल्लाह को बचाया. उसको फंडिंग दी. अरब देशों ने इसे लेबनान की संप्रभुतामें दखल माना. सऊदी अरब ने इसे रोकने की कोशिश भी की. 2017 में सऊदी ने अपने समर्थक प्रधानमंत्री साद हरीरी को इस्तीफ़ा देने को मजबूर कर दिया. हरीरी वापस तो लौटे, लेकिन तनाव और गहरा गया.
दूसरा, इराक़. 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला किया. सद्दाम सुन्नी अरब नेता था. ईरान के लिए बड़े दुश्मन भी. ईरान ने इस हमले का विरोध नहीं किया था. जब अमेरिका ने हुसैन को फांसी दिलवाई, तब भी ईरान ने विरोध नहीं किया था. सद्दाम के पतन के बाद ईरान इराकी सियासत में दख़ल देने लगा. जहां एक वक़्त पर सुन्नी सियासत थी. वहां ईरान की पहुँच बढ़ गई. कई इराकी सियासी गुटों को ईरान से मदद मिलने लगी. ईरान का अहम मकसद सुन्नी हुकूमत को रोकना था. शिया मिलिशिया आज तक इराक़ में मौजूद हैं.
तीसरा, सीरिया. 2011 अरब स्प्रिंग आया. पूरे वेस्ट एशिया में विद्रोह उठने शुरू हुए. सीरिया, बहरीन, यमन, लगभग हर जगह लंबे समय से तख़्त पर तैनात ताक़तें डगमगाने लगी. सऊदी और ईरान, दोनों ने इन बिखरती सत्ताओं को मोहरा बना लिया. सीरिया में भी अरब स्प्रिंग पहुंचा तो ईरान ने बशर अल-असद का साथ दिया. सीरिया में सुन्नी बहुसंख्यक थे. और सत्ता में अलवी अल्पसंख्यक. उस वक़्त कई सुन्नी गुटों ने बशर अल-असद के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था. सऊदी ने सुन्नी गुटों को हथियार दिए. बहरीन में सऊदी ने शिया आंदोलन को कुचला. ईरान ने शियाओं का हिमायती रहा.
चौथा, यमन. 2015 में यमन में हूती विद्रोह भड़का. सऊदी ने यमन पर हमला किया. ईरान ने हूतियों को मिसाइल और ड्रोन दिए. यमन, ईरान और सऊदी के बीच प्रॉक्सी वॉर का मैदान बन गया.
अब इम्मेडिएट हिस्ट्री में आते हैं. साल 2020. अब्राहम समझौते हुआ. अब्राहम अकॉर्ड्स क्या है? सितंबर 2020 में ट्रम्प ने वाइट हाउस के आंगन में UAE, बहरीन और इज़रायल के बीच एक समझौता करवाया था. इस समझौते के तहत UAE और बहरीन ने इज़रायल को मान्यता दी थी. दोनों देशों ने इज़रायल के साथ व्यापारिक संबंध भी स्थापित किए. ये ट्रंप के ‘अरब-इज़रायल नॉर्मलाइज़ेशन पॉलिसी’ का एक हिस्सा था. वो चाहते थे कि मिडिल ईस्ट के देश इज़रायल को एक देश के रूप में मान्यता दें. इस लिस्ट में सऊदी अरब का नाम जोड़ने की भी कोशिश की गई थी. लेकिन वो इज़रायल से संबंध स्थापित करने के लिए राज़ी नहीं हुआ था.
एक्सपर्ट्स ऐसी उम्मीद जताते हैं कि ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में सऊदी को भी इस समझौते में शामिल करने की पूरी कोशिश करेंगे. अब्राहम समझौते का एक अहम पक्ष है. ईरान. चाहे UAE हो, बहरीन, या मोरक्को, सबको ईरान की बढ़ती ताकत का डर है. इसी डर ने इज़रायल को अरबों का सुरक्षा भागीदार बना दिया. इस गठबंधन को कुछ लोग "Israeli-Sunni Alliance" कहते हैं, जहां सुन्नी अरब मुल्क एक शिया ईरान के ख़िलाफ़ खड़े हैं.
इन चार देशों ने इजरायल को सिर्फ़ मान्यता नहीं दी. सिर्फ़ कूटनीतिक दोस्ती नहीं थी. आर्थिक, सामरिक और रणनीतिक गठबंधन भी यहीं से शुरू हुआ. व्यापार, निवेश, तकनीक और टूरिज़्म शुरू हुआ.
- 2019 में जहां इजरायल और इन देशों के बीच व्यापार 593 मिलियन डॉलर था.
- 2022 तक ये बढ़कर 3.47 बिलियन डॉलर हो गया.
- इनमें सबसे आगे था UAE.
- 2020 में इजरायल-यूएई के बीच व्यापार महज 58.8 मिलियन डॉलर था.
- 2021 में ये बढ़कर 384 मिलियन हुआ. 6 गुना इजाफा.
- 2024 में ये 3.24 बिलियन डॉलर तक जा पहुंचा. साफ है कि ग़ज़ा में जंग के बावजूद व्यापार नहीं रुका. इसके अलावा डिफ़ेंस के क्षेत्र में भी समझौते भी हुए हैं. साइबर सुरक्षा और फिनटेक क्षेत्र में भी साझेदारी गहराई.
- इजरायल की Cyberint कंपनी यूएई को इंटेलिजेंस सपोर्ट देती है. साफ़ सीधी बात ये कि बड़े स्तर पर आर्थिक गठजोड़ शुरू हुआ.
- अब बात करें बहरीन की. इसने सुरक्षा के नजरिए से इजरायल से हाथ मिलाया.
- 2020 से 2023 के बीच व्यापार 10 गुना बढ़ा.
- 2022 में बहरीन-इजरायल सुरक्षा समझौता हुआ. खाड़ी क्षेत्र में इज़रायल के साथ ऐसा पहला समझौता है.
- साझा इंटेलिजेंस, मिलिट्री कोऑपरेशन और इंडस्ट्रियल डिफेंस में काम हो रहा है.
- इसके अलावा बहरीन ने इजरायली कृषि उत्पादों का आयात भी शुरू किया है.
अब एक पूरा ओवरव्यू लीजिए.
2024 में इज़रायल का डिफेंस एक्सपोर्ट 14.8 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. अकेले अब्राहम समझौते वाले देशों ने $1.8 बिलियन के हथियार खरीदे. ये इज़रायली डिफेंस एक्सपोर्ट का 12 फीसद है. 2023 में यही आंकड़ा सिर्फ 3 फीसद था. इसमें एयर डिफेंस सिस्टम, मिसाइल और रॉकेट सबसे ज़्यादा बिके.
टूरिज़्म भी बढ़ा है. हालांकि फिलहाल, ये एकतरफ़ा है.
- अगस्त 2021 तक 2.5 लाख इज़रायली UAE जा चुके थे.
- मगर उसी दौरान UAE, बहरीन, मोरक्को, सूडान से सिर्फ 5,200 पर्यटक इज़रायल गए. इसकी वजह है वीज़ा दिक्कतें, पुराने अविश्वास और सुरक्षा चिंताएं.
- फिर भी इज़रायल, बहरीन और UAE मिलकर अब एशियाई टूरिस्ट्स को संयुक्त टूर पैकेज ऑफर कर रहे हैं.
इन देशों ने इज़रायल से जो व्यापारिक रिश्ता बना लिया है, अब उसे तोड़ना आसान नहीं. अरब देशों को जो टेक्नोलॉजी, निवेश, और तकनीक चाहिए, वो इज़रायल के पास है. जो समझौते हो चुके हैं, उनमें अरबों डॉलर दांव पर लगे हैं.
हमने एक्सपर्ट से भी पूछा कि आखिर ये देश संकट के समय मुस्लिम राष्ट्र होते हुए भी ईरान के साथ क्यों नहीं आते. यूनिवर्सिटी ऑफ़ डेलावेयर, अमेरिका के प्रोफेस मुक्तदर खान से हमने पूछा,
सवाल 1: मुस्लिम देश पाकिस्तान का साथ क्यों नहीं देते?
“क्योंकि अमेरिका बहुत ताक़तवर है. और इन मुस्लिम देशों का पहला मक़सद है अपनी हुकूमत बचाना, न कि किसी और का साथ देना. खाड़ी के ज़्यादातर देश, जैसे सऊदी अरब और यूएई, अमेरिका के डिफेंस और इकोनॉमिक प्रोटेक्शन पर टिके हुए हैं. सऊदी अरब तो मुस्लिम दुनिया की अगुआई का दावा करता है, लेकिन उसकी रीढ़ अमेरिका के दम पर खड़ी है. ये सारे मुल्क अमेरिका के हितों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते. और अगर पाकिस्तान की लड़ाई अमेरिका या उसके सहयोगी देश से नहीं है, तब भी अमेरिका जिस तरफ़ है, उस तरफ़ ये खाड़ी मुल्क खड़े रहते हैं. क्योंकि इनकी असली चिंता रेजीम कंटीन्युटी है, न कि मजहबी एकता. इन देशों ने कभी OIC को एक सैनिक ताक़त में नहीं बदला. OIC के 57 देशों में 80 लाख सैनिक हैं, जितनी इज़राइल की पूरी आबादी है. लेकिन न कभी बाहरी दुश्मन के खिलाफ एकजुट हुए, न आतंरिक आतंकवाद के खिलाफ. 9/11 के बाद भी सबने अमेरिका को लड़ने दिया, जबकि अल-कायदा इनका भी दुश्मन था.”
सवाल 2: पाकिस्तान और तुर्किए जैसे देश उम्मत की बात तो करते हैं, लेकिन ऐसे मौकों पर सामने क्यों नहीं आते?
“क्योंकि उम्मत का नारा देना आसान है, मैदान में उतरना मुश्किल. उम्मत सिर्फ नारा है. अमल नहीं. मुसलमान उम्मत की बात करते हैं, लेकिन असल उम्मत तो यूरोप वाले बना चुके हैं. यूरोपीय यूनियन ही असल उम्मत है, बिना वीज़ा, साझा इकोनॉमी, साझा हित. पाकिस्तान और ईरान ने तो कुछ महीनों पहले एक-दूसरे की सरज़मीन पर बम गिराए थे. पाकिस्तान शुरू से वेस्ट का साथी रहा है. तुर्किए NATO का मेंबर है. और ईरान 1979 से वेस्ट-विरोधी. पहले ये तीनों, ईरान, पाकिस्तान, और तुर्किए मिलकर मुस्लिम दुनिया की सबसे बड़ी और लड़ाकू सेनाएं थे. लेकिन वेस्टर्न दखल और भू-राजनीतिक एजेंडों ने इस त्रिकोण को तोड़ दिया. आज तुर्किए और पाकिस्तान खुद अमेरिकी पॉलिसी से बंधे हैं. वो उम्मत की बात ज़रूर करते हैं, लेकिन उनकी विदेश नीति वाशिंगटन से होकर गुजरती है. इसलिए न तो वो ईरान के लिए खुलकर बोल सकते हैं, न ही खड़े हो सकते हैं.”
वीडियो: दुनियादारी: ईरान का साथ क्यों नहीं देते इस्लामी देश?