‘बेंच हंटिंग’ क्या होता है जानते हैं? सुप्रीम कोर्ट के जजों ने इस शब्द को उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया है, जो किसी पीठ का फैसला बदलवाने के लिए बार-बार याचिकाएं डालते रहते हैं. खासतौर पर तब जब पहला फैसला देने वाले जज रिटायर हो जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ के सामने हत्या के एक आरोपी का केस आया था. उस पर जस्टिस अभय एस. ओका के नेतृत्व वाली पीठ ने फैसला दे दिया था. अब जस्टिस ओका रिटायर हो गए हैं. ऐसे में उसी व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पुनर्विचार याचिका डालकर फैसले में संशोधन की अपील की है. इसी पर दोनों जजों ने उसे खूब सुना दिया और कहा कि साफतौर पर ये ‘बेंच हंटिंग’ का मामला है.
सुप्रीम कोर्ट 'बेंच हंटिंग' से परेशान, अपने ही फैसले बदलने पर सख्त बात कह दी
सुप्रीम कोर्ट ने 'बेंच हंटिंग' के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए कहा कि ऐसी कोशिशें संविधान के आर्टिकल 141 की मूल भावना को कमजोर करती हैं. कोर्ट ने बेंच हंटिंग उन मामलों को कहा, जिसमें अपीलकर्ता फैसलों में संशोधन कराने के लिए बार-बार अपील दायर करते हैं.
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लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, दोनों जजों की खंडपीठ ने अपीलकर्ता का आवेदन खारिज करते हुए कहा कि पहले के किसी फैसले को उलट देने का मतलब ये नहीं है कि इंसाफ बेहतर तरीके से किया गया है. इस तरह की छूट देना संविधान के आर्टिकल- 141 की उस भावना को खत्म कर देगा, जिसका मकसद सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को अंतिमता (Finality) देना है.
संविधान का सेक्शन 141 कहता है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से घोषित कोई भी कानून देश के सभी अदालतों पर बाध्यकारी होगा. यानी किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले को देश की सभी अदालतों में कानून के एक सिद्धांत के रूप में समझा जाएगा.
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा,
इधर कुछ समय से हमने बड़े दुख के साथ देखा है कि इस कोर्ट के फैसलों में एक नई प्रवृत्ति बढ़ रही है. जजों की ओर से दिए गए फैसलों को, चाहे वो जज अभी पद पर हों या रिटायर हो गए हों और चाहे फैसला कितना भी पुराना हो, बाद में आने वाली बेंचें या खासतौर पर बनाई गई बेंचें (Special Benches) बदल देती हैं. यह आमतौर पर तब होता है जब कोई पक्षकार पुराने फैसले से नाखुश होकर ऐसी बेंच बनवाने की मांग करता है.
जजों ने यह भी कहा कि जिन मामलों पर पहले ही फैसला हो चुका है यानी वो जो res integra (अभी तक जिसका फैसला बाकी है) नहीं हैं तो उन्हें फिर से खोलने से कानूनी व्याख्या में गड़बड़ी हो सकती है. इससे सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक व्याख्या की स्थिरता खत्म हो जाएगी और संविधान के आर्टिकल 141 की मूल भावना कमजोर पड़ेगी.
कोर्ट ने उदाहरण दिया कि वनशक्ति मामला, दिल्ली पटाखा बैन, तमिलनाडु राज्यपाल मामला और भूषण स्टील दिवालियापन केस सभी में मामले को पुनर्विचार के लिए खोला गया.
क्या था मामला?दरअसल, अपीलकर्ता हत्या के मामले में आरोपी था. उसे जस्टिस ओका की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस शर्त पर जमानत दे दी थी कि वह कोलकाता छोड़कर नहीं जाएगा. जमानत की शर्तों में ढील देने की उसकी एक अन्य याचिका खारिज हो गई थी. मई 2025 में जस्टिस अभय एस ओका रिटायर हो गए. इसके बाद अपीलकर्ता ने जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ के सामने फिर से आवेदन दायर किया. इस पर कोर्ट ने आपत्ति जताई और इसे बेंच हंटिंग का मामला बता दिया.
पीठ ने आवेदन खारिज करते हुए कहा कि अगर जमानत की शर्तों में ढील दी जाती है तो यह न केवल जमानत देने के आदेश का उल्लंघन होगा बल्कि ये संदेश भी जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट अपने ही फैसलों की Finality (अंतिमता) को लेकर गंभीर नहीं है.
वीडियो: समय रैना के केस पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया?














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