पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले के एक बयान ने बड़ी बहस छेड़ दी. इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने संविधान की प्रस्तावना को लेकर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़े गए. अब इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए.
'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्षता' पर अपनी राय बनाने से पहले इस विश्लेषण जरूर पढ़ लें
RSS और BJP के कई नेताओं ने संविधान से Socialism और Secularism शब्दों को हटाने की मांग की है. जानकार इस पर क्या राय रखते हैं, जानिए.

उनके इस बयान को भाजपा नेता और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा सहित कई अन्य नेताओं का भी साथ मिला. कांग्रेस ने इस बयान का विरोध किया है. उन्होंने कहा है कि भाजपा इस मांग के जरिए संविधान बदलने की कोशिश कर रही है.
इस मामले पर ‘दी लल्लनटॉप’ के ‘नेतानगरी’ कार्यक्रम में विस्तृत चर्चा हुई. वरिष्ठ पत्रकार और 'द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज कॉन्स्टिट्यूशन' किताब के लेखक राम बहादुर राय इस मामले पर कहते हैं कि अधिकतर लोग इमरजेंसी को स्वीकार नहीं करते हैं. इसलिए इमरजेंसी के दौरान संविधान में जो संशोधन किए गए थे, उनके बारे में विचार किया जाना चाहिए. उन्होंने आगे कहा,
'यूरोपीय या मार्क्सवादी अर्थ से अलग हैं ये शब्द'संविधान के प्रस्तावना में जो दो शब्द 'सोशलिज्म’ और ‘सेकुलरिज्म’ जोड़े गए थे, उन्हें अस्वीकार किया जाना चाहिए. संविधान सभा में डॉक्टर आंबेडकर ने इन शब्दों को संविधान में जोड़ने का विरोध किया था. क्योंकि ये एक राजनीतिक विचारधारा के प्रतीक थे, न कि देश के संविधान के मूल सिद्धांत के. इमरजेंसी के दौरान, इंदिरा गांधी ने राजनीतिक हित साधने के लिए इन शब्दों को संविधान में जोड़ा था, और अब ये शब्द अप्रासंगिक हो गए हैं.
इमरजेंसी के बाद आई जनता पार्टी ने इन संशोधनों को आंशिक रूप से स्वीकार किया था. पार्टी में अंदरूनी धड़ेबाजी और संघर्ष था.
फाउंडिंग वाइस चांसलर ऑफ नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ओडिशा और फिल वक्त पटना स्थित चाणक्य लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा इस मामले पर अलग विचार रखते है. वो कहते हैं,
भारतीय संविधान का ‘सोशलिज्म’ और ‘सेकुलरिज्म’ यूरोपीय या मार्क्सवादी विचारधाराओं से अलग है. भारतीय समाज में धर्म और स्टेट के संबंध अलग है और हमारा सेकुलरिज्म धर्मनिरपेक्षता से अलग है. भारत का सोशलिज्म भी ऐसा है जिसमें स्टेट के पास संसाधनों का पूर्ण नियंत्रण नहीं है, बल्कि ये गरीबों और वंचितों के लिए न्याय सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखता है.
संविधान में ‘सोशलिज्म’ और ‘सेकुलरिज्म’ शब्दों को इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक उद्देश्यों के तहत जोड़ा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि भारतीय संविधान में इन शब्दों का मतलब यूरोपीय या मार्क्सवादी विचारधारा से अलग है.
फैजान मुस्तफा ने ये भी कहा कि संविधान की प्रस्तावना का कानूनी महत्व सीमित है. जब संविधान का कोई दो कानून का आपस में टकराव होता है तभी प्रस्तावना देखी जाती है. या फिर उन मामलों में प्रस्तावना का महत्व होता है जिसके बारे में संविधान में स्पष्ट नहीं लिखा गया है.

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'बिना विमर्श के समाज में बदलाव नहीं हो सकता'इलाहाबाद में झूंसी स्थित गोविंद वल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टट्यूट के डायरेक्टर बद्री नारायण इस पर कहते हैं,
शक्ति के खिलाफ संघर्ष, इतिहास की गलतियों को स्मृति में लाने का प्रयास होता है. ये मेमोरी और विमर्श की प्रक्रिया, नई पीढ़ी को जागरूक करने का एक तरीका है. इमरजेंसी के दौरान जो संवैधानिक बदलाव हुए थे, उन्हें आजादी से पहले और बाद के स्कॉलर्स द्वारा याद किया जा रहा है और इन बदलावों पर बहस हो रही है.
ये शब्द इमरजेंसी के दौरान जोड़े गए थे, लेकिन उनका अर्थ बदल गया. संविधान का 42वां संशोधन इन शब्दों का महत्व बढ़ाने का प्रयास था, लेकिन उस बदलाव को समझने की आवश्यकता है.
उन्होंने कहा कि विमर्श के बिना समाज में बदलाव नहीं हो सकता और लेकिन अक्सर राजनीतिक कारणों से लोग विमर्श से बचते हैं.
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