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पुलिस और वकीलों से उठक-बैठक करवाने वाले जज की बर्खास्तगी पर MP हाई कोर्ट का बड़ा फैसला

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने पूर्व सिविल जज कौस्तुभ खेड़ा को हटाने के फैसले को सही ठहराया. उन पर आरोप था कि उन्होंने वकीलों और पुलिस अधिकारियों को अदालत में अवमानना के मामलों में कान पकड़ने और उठक-बैठक करने की सजा दी थी.

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मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने जज की बर्खास्तगी बरकरार रखी है (India Today)

मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने वकीलों और पुलिस अधिकारियों से उठक-बैठक करवाने वाले पूर्व सिविल जज की बर्खास्तगी को बरकरार रखा है. पूर्व जज पर आरोप है कि वे कोर्ट की अवमानना करने पर वकीलों और पुलिस अधिकारियों को कान पकड़ने और उठक-बैठक करने को कहते थे. उनके खिलाफ कुल 7 शिकायतें थीं. हालांकि हाई कोर्ट ने परफॉर्मेंस के आधार पर उनकी बर्खास्तगी को कायम रखा है. 

कौस्तुभ खेड़ा का कहना था कि उनके खिलाफ शिकायतों की जांच किए बिना उन्हें बर्खास्त किया गया है. उनकी इस दलील पर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति विवेक जैन की खंडपीठ ने कहा, 

प्रोबेशन पीरियड के दौरान सिविल जज को शिकायतों की सजा के तौर पर नहीं बल्कि उनके खराब प्रदर्शन के कारण बर्खास्त किया गया था.

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, कौस्तुभ खेड़ा को साल 2019 में जूडिशियल अफसर नियुक्त किया गया था. वह प्रोबेशन पीरियड पर थे, तभी उन पर इतने सारे आरोप लगे कि 2024 में उन्हें नौकरी से हटा दिया गया. खेड़ा ने अपने हटाए जाने को हाई कोर्ट में चुनौती दी. उन्होंने बताया कि उनके खिलाफ 7 शिकायतें दर्ज की गई थीं. इनमें वकीलों के साथ दुर्व्यवहार, पुलिस-वकीलों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करना, बिना अनुमति मुख्यालय छोड़ना, अपने चपरासी पर जुर्माना लगाना और कोर्ट स्टाफ के साथ दुर्व्यवहार जैसे आरोप शामिल थे. 

खेड़ा पर ये आरोप भी था कि वह वकीलों और पुलिस वालों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करते थे और उन्हें माफी मांगने के लिए कान पकड़कर उठक-बैठक करवाते थे. शिकायत में यह भी कहा गया कि वे अपने डायस से उतरकर कोर्ट स्टाफ का पीछा करते थे.

इन आरोपों पर अपने बचाव में खेड़ा ने कहा कि उन्होंने अवमानना की कार्यवाही शुरू की थी, लेकिन बाद में आरोपियों के माफी मांगने के बाद इसे बंद कर दिया था. खेड़ा ने सफाई देते हुए कहा कि वह कोर्ट के बेहतर कामकाज के लिए अपने स्टाफ पर सख्ती करते थे. खेड़ा ने दावा किया कि शिकायतों की जांच किए बिना उनके खिलाफ कार्रवाई की गई है.

हाई कोर्ट के वकील ने इसके जवाब में कहा कि खेड़ा को हटाने का आदेश बदनामी वाला आदेश नहीं था. उन पर कदाचार के आरोप नहीं थे इसलिए इसमें जांच की जरूरत नहीं थी. चूंकि खेड़ा प्रोबेशन पर थे, ऐसे में उनके खिलाफ शिकायतें उनके मूल्यांकन का आधार बन सकती थीं.

वकील की दलील पर हाई कोर्ट ने कहा कि यह सक्षम प्राधिकारी का अधिकार है कि वह शिकायतों के आधार पर ये निष्कर्ष निकाले कि अधिकारी संबंधित पद के लिए उपयुक्त है या नहीं. अगर वह इस मूल्यांकन में बर्खास्तगी का फैसला लेता है तो वह सजा के तौर पर नहीं माना जा सकता. 

कोर्ट ने कहा,

प्रोबेशन में परफॉर्मेंस के आधार पर योग्यता का आकलन करना और सजा देना दो अलग-अलग चीजें हैं. इस मामले में ये साफ है कि खेड़ा को सजा नहीं दी गई थी. न ही हटाने का आदेश ही सजा देने वाला आदेश था.

कोर्ट ने कहा, मध्यप्रदेश ज्यूडिशियल सर्विस रूल्स- 1994 के नियम 11(c) के तहत हाई कोर्ट को प्रोबेशन पर ज्यूडिशियल अफसर की सेवाएं अनुपयुक्तता के आधार पर समाप्त करने का अधिकार है.

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