5 दिसंबर का दिन आते ही दिमाग में एक ही तस्वीर उभरती है. बॉर्डर फिल्म का वह सीन. सनी देयोल की भर्राई आवाज. रेगिस्तान की रात. हवा में उड़ती रेत. और दूर सीमा के उस पार से आती टैंकों की दहाड़. लगता है जैसे रेत के टीलों के पीछे कोई लोहे का तूफान उमड़ रहा हो. लेकिन उस तूफान के ठीक सामने खड़ा था एक छोटा सा पोस्ट. नाम लोंगेवाला. असली कहानी भी बिल्कुल इसी फिल्मी फ्रेम जैसी थी.
'बॉर्डर' वाली लड़ाई के दूसरे दिन की कहानी, जब 120 जवानों और एयरफोर्स ने उड़ा दिए थे पाकिस्तान के छक्के
Longewala Battle: 5 दिसंबर 1971 की सुबह जमीन पर भारतीय जवान थके हुए थे. दुश्मन को लग रहा था कि वह यह जंग आराम से जीत लेगा. लेकिन उस दिन भारतीय वायुसेना ने खेल पलट दिया.


1971 की उसी 5 दिसंबर की रात राजस्थान के लोंगेवाला में 23rd पंजाब रेजीमेंट के सिर्फ 120 जवान तैनात थे. कमान मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के हाथ में. वही चांदपुरी जिनकी जगह फिल्म में सनी देयोल चिल्लाते दिखते हैं. जबर्दस्त गुस्सा. बेमिसाल हिम्मत. लेकिन सिनेमा की स्क्रीन से कहीं ज्यादा पसीना और आग असली रेगिस्तान में बह रही थी.
रात ढलते ही अंधेरे में पाकिस्तानी टैंक गरजते हुए आगे बढ़े. ऐसा जैसे लोहे के दैत्य रेत को चीरते हुए पोस्ट को निगल लेने आए हों. मेजर चांदपुरी ने स्थिति बताई तो ऊपर से आदेश आया. पोस्ट खाली करो. पीछे हटो. लेकिन मेजर का जवाब वही था जो लोग आज भी याद करते हैं. पीछे हटना मतलब सीमा को सौंप देना. और ये उनके बस की बात नहीं थी. हथियार कम. गोला बारूद कम. जवान थोड़े. मगर हिम्मत बरसों की. और हौसला उस मिट्टी की कसम जिसने उन्हें सैनिक बनाया था.
रातभर गोलियां तड़तड़ाती रहीं. फायरिंग की गूंज से पूरा रेगिस्तान कांप रहा था. एक तरफ सिर्फ 120 भारतीय जवान. दूसरी तरफ तीन हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक. हालात ऐसे कि किसी और कहानी में तो अंत तय मान लिया जाता. लेकिन यहां कहानी पलटनी ही थी. क्योंकि यहां लड़ाई सरहद की थी. और सरहद छोड़कर भागना भारतीय सेना की किताब में लिखा ही नहीं.
सूरज उगा तो जवान थके हुए थे. दुश्मन को लगा कि बस जीत सामने है. तभी आसमान से एक आवाज आई जिसने पूरी तस्वीर बदल दी. भारतीय वायुसेना के हंटर जेट्स. रेगिस्तान में ऐसा लगा जैसे किसी ने अचानक महाबली को अखाड़े में उतार दिया हो. ऊंचाई से आते उन जेट्स ने पाकिस्तानी टैंकों पर पहला वार किया और पूरा मोर्चा हिल गया.
उधर इसी वक्त एक और मोर्चे पर IAF के जेट्स सकेसर की पहाड़ी पर पहुंचे जहां पाकिस्तान का सबसे बड़ा और अहम रडार लगा था. वही रडार जिसकी आंखों से दुश्मन आसमान को पढ़ता था. जेट्स ने एक सटीक वार किया और रडार चुप. दुश्मन आसमान में अंधा. और भारतीय वायुसेना को खुली आजादी.
इसके बाद हंटर जेट्स ने ड्रिघ रोड और कराची तक ऐसा हमला बोला कि पाकिस्तान के हथियारों के बड़े-बड़े गोदाम, स्टोरेज और हैंगर आग में घिर गए. उधर जमीन पर टैंक धू-धू कर जल रहे थे. इधर आसमान में पाकिस्तानी फौज की आंख और कान बंद हो चुके थे.
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आजतक की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय वायुसेना की 122 स्क्वॉड्रन के HAL HF-24 मारूत और हॉकर हंटर उड़ानें विंग कमांडर एमएस बावा, आरए कोसाजी, सुरेश और शेरविन तुली के नेतृत्व में चल रही थीं. हमला इतना सटीक था कि पाकिस्तानी सेना टूटकर बिखरने लगी.
तीन दिन तक रेगिस्तान में आग बरसती रही. भारत के सिर्फ दो जवान शहीद हुए. लेकिन पाकिस्तान के दो सौ से ज्यादा सैनिक ढेर हो गए. उनके चालीस-पैंतालीस टैंकों में से 36 टैंक कचरे की तरह बर्बाद पड़े मिले. पांच सौ से ज्यादा बख्तरबंद गाड़ियां नष्ट हो गईं या फिर उनमें बैठे सैनिक डर के मारे उन्हें छोड़कर भाग निकले.
रेगिस्तान ने जैसे राहत की लंबी सांस ली. जैसलमेर बच गया. देश का माथा ऊंचा हो गया. बॉर्डर फिल्म में जो जुनून दिखाई देता है, असली लोंगेवाला उससे कई गुना ज्यादा रोमांचक, ज्यादा वीरता से भरा और ज्यादा दिल दहला देने वाला था.
5 दिसंबर सिर्फ तारीख नहीं. यह उस रात की धड़कन है जब 120 भारतीय जवानों ने इतिहास को नया मोड़ दिया.
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