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देवेंद्र फडणवीस: सियासत का वो बाजीगर जो हर बार हारी बाजी पलटता है

कहानी उस नेता की जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2019 के विधानसभा चुनाव के दौरान दिए गए नारे 'दिल्ली में नरेंद्र…महाराष्ट्र में देवेंद्र' को 2024 में पूरी तरह से साकार कर दिया.

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देवेंद्र फडणवीस तीसरी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनेंगे

मेरा पानी उतरता देख, मेरे किनारे पर घर मत बसा लेना. मैं समंदर हूं, लौटकर वापस आऊंगा. साल 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा में देवेंद्र फडणवीस ये लाइन कही थी. जब जनादेश में उनकी पार्टी तो सबसे आगे थी, मगर गठबंधन के समीकरण के कारण उन्हें विपक्ष में बैठना पड़ा. शिवसेना ने बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस और NCP के साथ सरकार बना ली थी. महाराष्ट्र की सियासत के चाणक्य माने जाने वाले शरद पवार ने सियासी शतरंज की ऐसी बिसात बिछाई कि मुख्यमंत्री बनने जा रहे फडणवीस, नेता विपक्ष हो गए. 

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इस बात को पांच साल हो गए. इन पांच सालों में महाराष्ट्र की सियासत 360 डिग्री बदल चुकी है. देवेंद्र फडणवीस अब सियासी शतरंज के मंझे हुए खिलाड़ी हो चुके हैं. और हारी हुई बाजी को पलटने का हुनर सीख चुके हैं. इन सालों में उन्होंने ऐसी बिसात बिछाई. जिसमें फंसकर शिवसेना और NCP के दो फाड़ हो गए. और महाराष्ट्र के सारे सियासी दिग्गजों को पीछे छोड़ते हुए देवेंद्र फडणवीस सबसे बड़े क्षत्रप के तौर पर उभरे हैं. उन्होंने 2019 में कही अपनी लाइनों को सही साबित किया है. देवेंद्र फडणवीस वापस लौटे हैं. और पूरी ठसक और धज के साथ लौटे हैं.

लेकिन देवेंद्र फडणवीस का ये सफर इतना आसान भी नहीं रहा. साल 2019 से 2024 तक महाराष्ट्र की राजनीति में कई फेरबदल हुए. और फडणवीस उन बदलावों के केंद्र में रहे. मसलन शिवसेना और NCP में बगावत. और बीजेपी की सत्ता में वापसी. बावजूद इसके उनका डिमोशन होना. राज्य की कमान संभाल चुके फडणवीस को उपमुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा. फडणवीस इसके लिए तैयार नहीं थे. लेकिन प्रधानमंत्री का फोन आने के बाद पार्टी हित में उन्होंने एकनाथ शिंदे का डिप्टी होना स्वीकार किया.

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फिर आया लोकसभा चुनाव 2024. जिसमें बीजेपी दहाई के आंकड़े को भी छू नहीं पाई. इन परिणामों के बाद देवेंद्र फडणवीस के भविष्य पर अटकलबाजियां होने लगीं. उन्होंने खुद भी डिप्टी सीएम का पद छोड़ने की पेशकश की. उनके केंद्र सरकार की कैबिनट में शामिल होने से लेकर बीजेपी का अध्यक्ष बनाए जाने की खबरें आने लगीं. लेकिन कुछ नहीं बदला. शायद बड़े गेम की तैयारी बाकी थी. क्योंकि महज चार महीने दूर था विधानसभा चुनाव. और यहीं पर देवेंद्र फडणवीस ने बाजी पलट दी. उनके नेतृत्व में पार्टी को राज्य में अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी जीत मिली. और महायुति गठबंधन को बंपर सीटें मिलीं. 

इसके बाद बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के लिए फडणवीस की दावेदारी को नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया. हालांकि एकनाथ शिंदे ने शुरुआती एतराज जताया. सतारा के ‘कोप भवन’ में गए. लेकिन महाराष्ट्र की राजनीतिक फलक पर साफ-साफ लिखी इबारत से भला शिंदे भी कब तक आंख फेर सकते थे. उन्होंने फडणवीस का सीएम बनना स्वीकार किया. जिसके बाद 4 दिसंबर को आम सहमति से बीजेपी के विधायक दल ने फडणवीस को अपना सदर चुन लिया. देवेंद्र फडणवीस के अब तक के सियासी सफर की ओर चलने से पहले शिंदे की नाराजगी और फिर उनकी रजामंदी को डिकोड करने की कोशिश करते हैं.

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क्रेडिट - एक्स
शाह ने शिंदे को मनाया

चुनाव नतीजे आने के बाद से ही शिवसेना शिंदे गुट की ओर से दबाव की रणनीति अपनाई गई. उनके प्रवक्ताओं ने लगातार बयान दिए कि शिंदे के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया है. और उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए. कुछ ने तो बिहार मॉडल का भी हवाला दिया. हालांकि शिंदे खुद कुछ बोलने से बचते रहे. लेकिन ये उनकी रणनीति थी. गल्फ न्यूज वेबासइट पर पब्लिश किए गए स्वाति चतुर्वेदी की रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार गठन के लिए शिंदे जब अमित शाह से मिले तो उन्होंने इस पर आपत्ति जताई कि उनके लिए मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद डिप्टी सीएम का पद स्वीकार करना मुश्किल है. जिस पर अमित शाह ने पास बैठे देवेंद्र फडणवीस की ओर इशारा करते हुए कहा. एक उदाहरण आपके पास बैठे हैं. और फिर कहने को कुछ नहीं बचा. शिंदे शाह का इशारा समझ गए.

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ये तो देवेंद्र फडणवीस के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की कहानी थी. लेकिन एक कहावत है कि 'रोम एक दिन में नहीं बनता'. देवेंद्र फडणवीस का सियासी सफर के भी कई शेड्स हैं. जिसमें शूल भी हैं, और फूल भी. लेकिन साथ है कभी भी हार न मानने की एक जिद्द. इनके सफर की शुरुआत भी एक किस्से से करते हैं. जो उनके दोस्त और पत्रकार यदु जोशी ने बयां किया है.

इंदिरा गांधी के नाम से था स्कूल, इसलिए छोड़ दिया

साल 1975. देश में आपातकाल की घोषणा हो चुकी थी. आपातकाल की घोषणा के साथ विपक्षी नेताओं को सलाखों के पीछे डाला जाने लगा. इस दौरान महाराष्ट्र से भी कई नेताओं की गिरफ्तारी हुई. इनमें एक नेता थे गंगाधर राव. गंगाधर राव की गिरफ्तारी से उनके परिवार का एक सदस्य बेहद नाराज था. जिसकी उम्र उस वक्त महज पांच या छह साल की रही होगी. नाराजगी का आलम ये था कि उसने स्कूल जाने से मना कर दिया. क्योंकि स्कूल के नाम में इंदिरा शब्द आता था. जिन्होंने उसके पिता को जेल भेजा था. स्कूल का नाम था इंदिरा कॉन्वेंट स्कूल. और बच्चे का नाम था देवेंद्र गंगाधर राव फडणवीस. परिवार को देवेंद्र की जिद के आगे झुकना पड़ा. और उनका दाखिला सरस्वती विद्या मंदिर में कराया गया.

विरासत में मिली है राजनीति

देवेंद्र फडणवीस का जन्म 22 जुलाई 1970 को महाराष्ट्र के नागपुर में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ. उनके पिता गंगाधर राव RSS और जनसंघ से जुड़े हुए थे. वे इमरजेंसी में 2 साल जेल में बंद रहे. और बाद में नागपुर डिवीजन की ग्रेजुएट कॉन्स्टीट्यूएंसी से विधानपरिषद सदस्य (MLC) बने. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, फडणवीस का पैतृक गांव नागपुर से करीब 100 किमी दूर चंद्रपुर जिले में है. फडणवीस के परिवार की गिनती इलाके के संपन्न जमींदारों में की जाती थी. बाद में उनका परिवार नागपुर शिफ्ट कर गया. पिता गंगाधर राव के अलावा फडणवीस की चाची भी सियासत में सक्रिय थीं. उनकी चाची शोभा फडणवीस की गिनती जनसंघ के बड़े नेताओं में की जाती थी. महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में बीजेपी को मजबूती देने में फडणवीस परिवार का बड़ा योगदान रहा है. परिवार में जनसंघ और आरएसएस के नेताओं का आना-जाना लगा रहता था. जिसके चलते बालक देवेंद्र भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे. वे बचपन में ही आरएसएस से जुड़ गए. 

देवेंद्र फडणवीस की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई नागपुर में ही हुई. सरस्वती विद्या मंदिर से स्कूली पढ़ाई के बाद उन्होंने धर्मपीठ जूनियर कॉलेज से 12वीं पास की. फिर नागपुर यूनिवर्सिटी से LLB की पढ़ाई की. लेकिन वकालत से ज्यादा उनका मन राजनीति में रमने लगा था. हालांकि साथ-साथ पढाई भी जारी रही. उन्होंने D.S.E. बर्लिन से Business Management में पोस्ट ग्रेजुएशन की. और प्रोजेक्ट मैनेजमेंट में डिप्लोमा किया.

1992 में चुनावी राजनीति में डेब्यू

साल 1992 में देवेंद्र फडणवीस ने सक्रिय राजनीति में इंट्री ली. ये वो दौर था जब बीजेपी और शिवसेना महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत कर रहे थे. फडणवीस ने नागपुर Municipal Corporation में काउंसिलर का चुनाव लड़ा. और महज 22 साल की उम्र में काउंसिलर बन गए. 5 साल तक काउंसिलर के तौर पर काम किया. फिर साल 1997 में वो नागपुर के मेयर चुने गए. तब उनकी उम्र मात्र 27 साल थी. और वे देश में अब तक चुने गए सबसे युवा मेयर में से एक हैं. फडणवीस 2 साल तक इस पद पर रहे.

1999 में पहली बार विधानसभा पहुंचे

फिर आए साल 1999 के विधानसभा चुनाव. राज्य में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन सत्ता पर काबिज थी. और शिवसेना का मुख्यमंत्री था. शिवसेना ने पहले मनोहर जोशी और फिर नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाया था. देवेंद्र फडणवीस सबसे युवा मेयर बन कर चुनाव के लिए दावेदारी ठोंक चुके थे. और पार्टी ने उनको निराश नहीं किया. उन्हें नागपुर वेस्ट विधानसभा से टिकट दिया गया. मेयर से इतर विधायकी का चुनाव 27 साल के देवेंद्र के लिए आसान नहीं था. ऐसे में उनको साथ मिला महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी पैठ जमा चुके नितिन गडकरी का. नितिन गडकरी ने उनको चुनाव जीतने में काफी मदद की. 

इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक देवेंद्र फडणवीस के पिता गंगाधर राव ने नितिन गडकरी को राजनीति में आगे बढ़ाया था. और गडकरी उनको अपना गुरु मानते थे. इसलिए उन्होंने देवेंद्र फडणवीस की मदद की. हालांकि गडकरी की मदद के बावजूद नागपुर पश्चिम सीट देवेंद्र फडणवीस के लिए आसान नहीं था. क्योंकि इस सीट पर दलित और पिछड़े वर्ग की बहुलता थी. और देवेंद्र ब्राह्मण समुदाय से आते हैं. 1985 में नितिन गडकरी भी इस सीट से भाग्य आजमा चुके थे. और 21,552 वोट से हारे थे. लेकिन देवेंद्र फडणवीस ने इस सीट के मिथ को तोड़ा. और 9087 वोटों से विजयी हुए.

इसके बाद देवेंद्र फडणवीस राजनीतिक सफलता की सीढ़ी चढ़ते गए. 1999 के बाद साल 2004, 2009, 2014, 2019, 2024 के सभी चुनावों में उन्होंने भारी अंतर से जीत हासिल की. 2009 में उनकी सीट बदली गई. नागपुर वेस्ट की जगह नागपुर साउथ वेस्ट से चुनाव लड़ाया गया. लेकिन नतीजों में कोई अंतर नहीं आया.

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क्रेडिट - इंडिया टुडे
जब अटल जी ने बुलाया आइए मॉडल जी

साल 2006. देवेंद्र फडणवीस की विधायकी का दूसरा कार्यकाल. नागपुर में उनके पांच बड़े बड़े होर्डिंग्स लगे. अब आप कहेंगे कि नेता हैं तो होर्डिंग्स लगेंगे ही. लेकिन इसकी वजह कुछ और थी. फडणवीस इन होर्डिंग्स में जींस और चमकदार लाल शर्ट में नजर आ रहे थे. असल में उन्होंने एक गारमेंट ब्रांड के लिए फोटो शूट किया था. यानी विधायक जी मॉडल बन गए थे. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक देवेंद्र फडणवीस के फोटोग्राफर दोस्त विवेक रानाडे ने उन्हें इसके लिए राजी किया था. विवेक ने बताया कि फडणवीस ने यह काम मौज-मस्ती के लिए किया था. और इसके लिए उन्होंने कोई फीस नहीं ली थी. 

रिपोर्ट में देवेंद्र फडणवीस के करीबी मित्र शैलेश जोगलेकर के हवाले से बताया गया कि उनका यह मॉडलिंग कैंपेन काफी सफल रहा. और यह खबर उड़ती-उड़ती दिल्ली पहुंची. सीधे अटल बिहारी वाजपेयी के पास. वाजपेयी ने देवेंद्र फडणवीस को दिल्ली तलब किया. वाजपेयी ने उनका स्वागत करते हुए कहा- आइए, आइए मॉडलजी.

दो दिग्गजों की प्रतिद्वंदिता में फायदा हुआ

शैलेश बताते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी देवेंद्र फडणवीस से काफी खुश थे. लेकिन महाराष्ट्र के कुछ दिग्गजों की नजर में अब देवेंद्र फडणवीस खटकने लगे थे. क्योंकि वे बड़ी तेजी से राज्य की सियासत में खुद के पांव मजबूत कर रहे थे. भले ही गडकरी उनके मार्गदर्शक रहे. लेकिन सियासी बैठकियों में फडणवीस को उनका ही प्रतिद्वंद्वी माने जाने लगा. इस समय पार्टी की राज्य इकाई में दो गुट पहले से थे. नितिन गडकरी और गोपीनाथ मुंडे का खेमा. देवेंद्र फडणवीस की इंट्री ने इस लड़ाई को एक तीसरा कोण दे दिया था. धवल एस कुलकर्णी बताते हैं, 

 नागपुर बीजेपी में फडणवीस के घर को बंगला और गडकरी के घर को वाड़ा कहा जाता है. जो दो अलग-अलग ग्रुप हैं. साल 2008 में गडकरी और गोपीनाथ मुंडे की लड़ाई सार्वजनिक हो गई जब मुंडे ने अचानक पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. वजह थी मुंबई यूनिट के अध्यक्ष की नियुक्ति. मुंडे मधु चव्हाण को अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज थे. उस वक्त महाराष्ट्र बीजेपी की कमान गडकरी के पास थी. इस विवाद में देवेंद्र फडणवीस गोपीनाथ मुंडे के साथ थे. 

पार्टी हाईकमान ने उस समय तो दोनों के बीच सुलह करा दी. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई. इनके बीच कोल्ड वार चलता रहा. और इस दौरान देवेंद्र फडणवीस भी अपनी सियासत को धार देते रहे.  2010 में उन्हें बीजेपी का जनरल सेक्रेटरी बनाया गया. 

महाराष्ट्र बीजेपी की कमान संभाली

फिर आया साल 2013. महाराष्ट्र बीजेपी का नया अध्यक्ष चुना जाना था. नितिन गडकरी खेमा सुधीर मुंगंटीवार को अध्यक्ष बनाने के लिए बैटिंग कर रहा था. मुंगंटीवार गडकरी के करीबी माने जाते थे. इसके जवाब में गोपीनाथ मुंडे ने देवेंद्र फडणवीस का नाम आगे बढ़ाया. जिसे गडकरी भी मना नहीं कर सके. और इस तरह महाराष्ट्र के अध्यक्ष पद पर फडणवीस की ताजपोशी हो गई.

2014 में पहली बार मुख्यमंत्री बने

साल 2014 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हुए. पार्टी की कमान तब देवेंद्र फडणवीस के हाथ में थी. बीजेपी के लिए चुनौती बड़ी थी, क्योंकि सहयोगी शिवसेना अलग हो चुकी थी. पार्टी अकेले चुनाव में उतरी थी. लेकिन इसके बावजूद राज्य की 288 सीटों में से बीजेपी के पाले में 122 सीटें आईं. जबकि 2009 में पार्टी को केवल 46 सीट मिली थी. इस जीत के बाद पार्टी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया. इस समय फडणवीस की उम्र मात्र 44 साल थी. वो शरद पवार के बाद राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने.

इंडिया टुडे से बातचीत में हिमांशु शेखर ने बताया, 

 देवेंद्र फडणवीस बाल स्वंयसेवक रहे हैं. और संघ उन्हें एक ऐसे नेता के तौर पर देखता है जो उनकी विचारधारा को मजबूती से बढ़ाता है. बात करें मोदी शाह के साथ रिश्तों की तो ये 2014 के बाद खूब गाढ़ा हुआ. जब देवेंद्र को सीएम बनाया गया उस वक्त उनके नाम को लेकर ज्यादा चर्चा नहीं थी. लेकिन मोदी-शाह फडणवीस को विश्वस्त के तौर पर देखते हैं. दूसरी बात ये है कि नितिन गडकरी को बैलैंस करने के लिए उन्हे महाराष्ट्र में एक मजबूत नेता चाहिए था. इस लिहाज से भी फडणवीस बेहतर विकल्प थे.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कई सीनियर नेताओं को साइडलाइन करते हुए देवेंद्र फडणवीस पर भरोसा जताया था. इसके पक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं. अपने समकक्ष या सीनियर प्रतिद्वंद्वी नेताओं के मुकाबले उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं था. उनकी छवि साफ सुथरी थी. फडणवीस विदर्भ रीजन से आते थे. जहां किसानों की आत्महत्या सुर्खियां बनती हैं. फडणवीस ने इसको चुनावी मुद्दा बनाया. उन्होंने एक नैरेटिव बनाया कि कांग्रेस- NCP की सरकार सिंचाई विभाग में घोटाले करती है. जिसकी वजह से किसानों को पानी नहीं मिल पाता. उनकी फसल खराब होती है. और वो आत्महत्या को मजबूर होते हैं. साथ ही फडणवीस अलग विदर्भ स्टेट की मांग भी उठा रहे थे. इस वजह से उनका शिवसेना के साथ तकरार भी हुआ. एक बार तो उन्होंने शिवसेना नेताओं को विदर्भ छोड़ने की सलाह दे दी थी. हालांकि बाद में उन्होंने अलग विदर्भ राज्य के मुद्दे पर अपने तेवर नरम किए.

एक-एक कर प्रतिद्वंद्वी किनारे होते गए

देवेंद्र फडणवीस ने अपने राजनीतिक करियर में विपक्ष को मात देने के साथ-साथ पार्टी के भीतर भी कई शीर्ष नेताओं को किनारे लगा दिया जो उनके लिए मुश्किल खड़ी कर सकते थे. इनमें एकनाथ खड़से, पंकजा मुंडे, विनोद तावड़े और चंद्रकांत पाटिल सरीखे नाम शामिल हैं.

विनोद तावड़े महाराष्ट्र में बड़े मराठा नेता हैं. इस नाते मुख्यमंत्री पद पर उनका दावा भी रहा है. एकनाथ खड़से वरिष्ठ हैं. और 2009 से 2014 तक विधानसभा में विपक्ष के नेता थे. इसलिए मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पाले थे. वहीं पंकजा मुंडे गोपीनाथ मुंडे की वारिस होने की वजह से खुद को दावेदार मानती थीं.

बीबीसी मराठी के संपादक आशीष दीक्षित बताते हैं, 

अपने प्रतिद्वंद्वियों को देवेंद्र फडणवीस ने पिछले 7-8 सालों में राजनीतिक तौर पर एक-एक कर कमजोर कर दिया. कोई पार्टी छोड़कर चला गया, कोई केंद्र की राजनीति में चला गया. तो कोई चुनाव हार गया. और ऐसा करते हुए देवेंद्र फडणवीस अपना रास्ता बनाते गए.

बतौर मुख्यमंत्री चुनौतियों से कैसे निपटे?

इस कार्यकाल में बतौर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के सामने सबसे बड़ी चुनौती मराठा आंदोलन का रहा. मराठाओं के लिए शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण को लेकर पूरे राज्य में प्रदर्शन हुए. 2018 में यह प्रदर्शन हिंसक हो गया. एक प्रदर्शनकारी ने नदी में कूदकर जान दे दी. जिसके बाद राज्य में चक्का जाम किया गया. सार्वजनिक संपत्तियों को भी नुकसान पहुंचा. महाराष्ट्र की राजनीति में मराठाओं को नाराज करने का जोखिम कोई भी सरकार नहीं ले सकती थी. इसलिए फडणवीस ने इससे डील करने की जिम्मेदारी ली. उन्होंने प्रदर्शन खत्म करवाने के लिए मराठा रिजर्वेशन बिल पास कराया. जिसके तहत मराठाओं के लिए 16 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई. यह आरक्षण (SEBC) यानि कि Social and Educationally Backward Class कैटेगरी के तहत दिया गया. हालांकि कोर्ट में ये मामला टिक नहीं पाया. सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में इस पर रोक लगा दी. 

महाराष्ट्र का विदर्भ और मराठवाड़ा का इलाका पानी संकट से जूझता है. आए दिन यहां किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं. इसके अलावा फसल के लिए लिया गया कर्ज भी बड़ी समस्या बनता जा रहा था. 2017 में यहां किसानों ने प्रोटेस्ट के तौर पर अपनी फसल को सड़क पर फेंकना शुरू कर दिया. इसकी वजह से पूरे राज्य में फल, सब्जी और दूध के दाम बढ़ने लगे. लेकिन इसे भी देवेंद्र फडणवीस ने कुशलतापूर्वक संभाला. उन्होंने 34 लाख किसानों के 30 हजार करोड़ के कर्जे माफ किए. 

महाराष्ट्र निकाय चुनाव

देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में बीजेपी महाराष्ट्र में लगातार मजबूत हो रही थी. 2014 के चुनाव परिणामों के कुछ दिन बाद बीजेपी और शिवसेना साथ आ गए थे. लेकिन 2017 में BMC का चुनाव दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं. इन चुनावों में भी बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन किया. और शिवसेना से ज्यादा सीटें जीतीं. लेकिन मेयर का पद शिवसेना को गया. इसके पीछे देवेंद्र फडणवीस का दिमाग था. क्योंकि आगे 2019 के चुनाव थे. और फडणवीस चाहते थे कि विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां एक साथ लड़े.

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क्रेडिट - इंडिया टुडे
2019 में सत्ता ‘हाथ को आई मुंह न लगी’

2019 के चुनाव में बीजेपी और शिवसेना साथ-साथ चुनाव लड़े. हालांकि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व अकेले चुनाव लड़ना चाहता था. लेकिन फडणवीस ने शिवसेना के साथ लड़ने के लिए उन्हें तैयार किया. चुनाव हुआ. और बीजेपी एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. पार्टी को 105 सीट आएं. और शिवसेना के खाते में 63 सीट. लेकिन इसके बाद दोनों पार्टियों के बीच सीएम की कुर्सी को लेकर तकरार हो गया. शिवसेना ने दावा किया कि दोनों पार्टियों के बीच मुख्यमंत्री पद के लिए ढाई-ढाई साल के फॉर्मूले पर बात हुई थी. लेकिन देवेंद्र फडणवीस ने इसे सिरे से खारिज किया. वहीं उद्दव ठाकरे जिद्द पर अड़े रहे कि मातोश्री में अमित शाह ने उनसे ये वादा किया था. 

उद्दव ठाकरे की जिद्द के चलते राज्य में राजनीतिक संकट पैदा हो गया. और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया. और इस बीच शरद पवार की पहल से कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी के बीच सरकार बनाने को लेकर लगभग सहमति बन चुकी थी. इधर फडणवीस भी सरकार में आने के लिए अपने दांव चल रहे थे. और उनके मोहरे बने अजित पवार. 23 नवंबर 2019 की सुबह 7 बजे देवेंद्र फडणवीस ने गवर्नर हाउस में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. साथ में अजित पवार ने डिप्टी सीएम की शपथ ली. पहले तो फडणवीस के इस दांव को मास्टरस्ट्रोक बताया गया लेकिन महाराष्ट्र की राजनीतिक शह-मात के पुराने खिलाड़ी शरद पवार ने 80 घंटे के भीतर बाजी पलट दी. अजित पवार की घर वापसी हो गई. देवेंद्र फडणवीस को इस्तीफा देना पड़ा. और उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनाए गए. फडणवीस के लिए यह बड़ा सेटबैक था. इसे उनके राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी हार के तौर पर देखा गया.

हारी हुई बाजी को जीत में बदला

इस पूरे घटनाक्रम ने देवेंद्र फडणवीस की इमेज को काफी डेंट किया. 3 दिन के लिए मुख्यमंत्री बनना उनके लिए एक झटके जैसा था. लेकिन फडणवीस ने इसके बाद की परिस्थितियों को सहजता से संभाल लिया. नेता प्रतिपक्ष के तौर पर उनके तीखे और सटीक सवाल जहां विधानसभा में उद्धव सरकार को परेशान करते रहे. दूसरी तरफ उन्होंने शिवसेना के अंतर्कलह पर बारीक नजर बनाए रखी. और उन्हें इसकी आहट भी सुनाई देने लगी. क्योंकि उद्धव मंत्रिमंडल और शिवसेना में आदित्य ठाकरे के बढ़ते दखल के चलते उनके कई पुराने साथी नाराज चल रहे थे जिसमें सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का भी नाम शुमार है. फडणवीस ने शिंदे से नजदीकियां बढ़ानी शुरू की. लेकिन इस बार वो कोई जल्दीबाजी नहीं करना चाहते थे. और जब तक शिवसेना में दो फाड़ की स्क्रिप्ट फाइनल न हो जाए. वो सीन में नहीं आना चाहते थे.

 जीतेंद्र दीक्षित अपनी किताब सबसे बड़ी बगावत में लिखते हैं,  

2019 में भी फडणवीस ने शिंदे को एप्रोच किया था. लेकिन तब शिंदे ने पार्टी के खिलाफ जाने से मना कर दिया था. लेकिन फडणवीस ने हार नहीं मानी. और वे लगातार शिंदे के संपर्क में रहे. फडणवीस जब भी शिंदे के सामने आते. उनको खूब इज्जत बरतते. पर्सनल स्पेस और सार्वजनिक दोनों जगहों पर . 2022 में प्रधानमंत्री मोदी ने पुणे मेट्रो रेल प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया. शिंदे बतौर नगर विकास मंत्री कार्यक्रम में शामिल हुए. वे दोनों नेताओं के पीछे चल रहे थे. और फडणवीस बार-बार उनका हाथ पकड़ कर अपने बराबर में ला रहे थे.

शिवसेना में दो फाड़ के सूत्रधार

20 जून 2022. शिवसेना के लगभग दो दर्जन विधायक मुंबई और आसपास के जिलों से मुंबई अहमदाबाद हाइवे पकड़कर गुजरात की सीमा में दाखिल हो रहे थे. जैसे ही वो तलासरी बॉर्डर पार करते हैं. गुजरात की पुलिस इन विधायकों को एस्कॉर्ट करने लगती है. विधायकों को पुलिस एस्कॉर्ट मिलना आम बात है. लेकिन इस घेरा को वे विधायक भी चाह कर नहीं तोड़ सकते थे. लगभग तीन घंटे की सफर पूरा करके ये विधायक सूरत के 7 स्टार होटल ला मीरिडियन पहुंचते हैं. 

21 जून को बीजेपी सूत्रों के हवाले से खबर ब्रेक हुई कि शिवसेना के करीब 30 विधायक सूरत के होटल में बैठे हुए हैं. और इनकी रहनुमाई कर रहे हैं. एकनाथ शिंदे. 23 जून को शिंदे ने अपने साथ 42 विधायकों के साथ तस्वीर जारी की. एकनाथ शिंदे शिवसेना के 42 विधायकों को अपने साथ ले आए. फिर भी फडणवीस फूंक फूंक कर अपना दांव चल रहे थे. जब वे आश्वस्त हो गए कि शिंदे के पास अब दलबदल कानून से बचने के लिए पर्याप्त विधायकों का समर्थन हासिल है. तो उन्होंने राज्यपाल से मिलकर शपथग्रहण की तारीख तय कराई.

जब डिप्टी बने देवेंद्र फडणवीस

सब लोगों को उम्मीद थी कि शिवसेना में बगावत के सूत्रधार देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे. लेकिन उनके साथ खेल हो गया. बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व को इस बात का इल्म था कि अगर फडणवीस को सीएम बनाया तो वोटरों की सहानुभूति उद्धव ठाकरे को मिलेगी. इसलिए एकनाथ शिंदे का नाम मुख्यमंत्री के लिए आगे किया गया. क्योंकि वो मराठा समुदाय से आते हैं. और देवेंद्र फडणवीस को डिप्टी सीएम बनाने का डिसीजन लिया गया.

देवेंद्र फडणवीस इसके लिए कतई तैयार नहीं थे. लल्लनटॉप को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि उन्होंने सरकार से बाहर रहकर पार्टी के लिए काम करने का निर्णय किया था. लेकिन गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फोन आने के बाद वो डिप्टी सीएम बनने के लिए तैयार हुए.

2024 में फिर से झटका लगा

महाराष्ट्र में सरकार के मुखिया भले ही एकनाथ शिंदे थे. लेकिन महायुति गठबंधन और बीजेपी का चेहरा देवेंद्र फडणवीस ही थे. पार्टी उनके नेतृत्व में ही लोकसभा चुनाव में गई. लेकिन इस चुनाव के परिणाम बीजेपी के लिए निराशाजनक रहे. भाजपा दहाई का अंक भी पार नहीं कर सकी. पार्टी को सिर्फ 9 सीटों पर जीत मिली. महायुति गठबंधन इस चुनाव में बुरी तरह से फेल रहा. और इस हार का ठीकरा फूटा देवेंद्र फडणवीस पर. फडणवीस ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए डिप्टी सीएम पद से इस्तीफा देने की पेशकश की. लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें पद पर बने रहने को कहा.

विधानसभा चुनाव में फिर से बाजी पलट दी

2024 में महाविकास अघाड़ी के शानदार प्रदर्शन के बाद से विधानसभा चुनाव में उनके हौसले बुलंद थे. राजनीतिक पंडित भी महाराष्ट्र में कमोबेश लोकसभा चुनाव जैसे नतीजों का ही अनुमान लगा रहे थे. इस बीच देवेंद्र फडणवीस अपने मिशन में जुटे रहे. उन्होंने ताबड़तोड़ रैलियां कीं. अपनी रणनीति में थोड़ा बदलाव किया. और इन चुनावों में आरएसएस के साथ मिलकर हिंदुत्व को मुद्दा बनाया. एक्सपर्ट्स बताते हैं कि मनोज जरांगे पाटिल के मराठा आंदोलन की काट में लक्ष्मण हाके का आंदोलन शुरू कराया गया. जिसका असर भी चुनाव में दिखा. गैर- मराठा ओबीसी लामबंद हए. 

देवेंद्र फडणवीस के इन प्रयासों का असर दिखा. और इन चुनावों में बीजेपी को अकेले दम पर 132 सीट आई. बहुमत से बस 13 सीट दूर. यानी अब बीजेपी की सहयोगियों पर निर्भरता कम हो गई. अगर एकनाथ शिंदे छिटक जाए तो अजित पवार के साथ भी आसानी से सरकार बन जाएगी. यानी प्रधानमंत्री मोदी का 2019 के विधानसभा चुनाव के दौरान दिया नारा पांच साल बाद अब साकार हो रहा है. दिल्ली में नरेंद्र…महाराष्ट्र में देवेंद्र.

वीडियो: नेतानगरी: शरद पवार और देवेंद्र फडणवीस की दुश्मनी के पीछे की कहानी पता लग गई!

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