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कहानी ज़ुबिन गर्ग की, जिनके लिए 15 लाख लोग सड़कों पर उतर आए!

ज़ुबिन को सिर्फ 'या अली' फेम कहना बेमानी होगा. वो एक सिंगर, एक्टर, डायरेक्टर, किक-बॉक्सर थे, और सबसे ज़रूरी वो असम के प्राउड लाल थे.

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ज़ुबिन ने बॉलीवुड वालों के ऐटिट्यूड से तंग आकर मुंबई छोड़ दिया था.

असम. साल 1826 में यहां ईस्ट इंडिया कंपनी घुसी. असम हमेशा से कई छोटी-छोटी जनजातियों का समूह रहा है. ब्रिटिश कंपनी ने ऐसे ही समूहों के राजवंश को हराया, और प्रदेश पर कब्ज़ा कर लिया. फिर साल 1874 में असम एक अलग प्रांत बना. जब भारत आज़ाद हुआ तो असम इसका हिस्सा बन गया. असम में लोगों को तीन श्रेणियों- जनजातीय, गैर-जनजातीय और अनूसूचित जाति में बांटा गया है. कहानी कुछ साल आगे बढ़ती है. साल 1979 में. राज्य में विद्रोह की शुरुआत होती है. मांग की जाती है कि असम को भारत से अलग किया जाए. ये मांग उठाने वाले कौन थे? इसका जवाब है, ULFA. यानी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ असम. उल्फा का कहना था कि असम हमेशा से एक राष्ट्रीय पहचान से जूझता रहा है, और वो पहचान इसे भारत का हिस्सा बनकर नहीं मिल सकती. इसलिए वो लोग असम को अलग देश बनाना चाहते थे. और उनका हथियार थी हिंसा. राज्य में किडनैपिंग हुई, बम धमाके हुए, लोगों की हत्याएं की गईं.

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इस तरह के विद्रोह की नींव सबसे पहले कला पर किए हमले से पड़ती है. उल्फा के सख्त निर्देश थे कि कोई भी असम का कलाकार हिन्दी या बांग्ला में नहीं गाएगा. अगर उन्हें परफॉर्म करना है तो सिर्फ असमी भाषा में ही करना होगा. वरना परिणाम अच्छे नहीं होंगे. बहुत लोगों को उनके आगे घुटने झुकाने पड़े. मगर एक आदमी था. दिल से बेखौफ और ज़बान से तीखा. नाम से ज़ुबिन. ज़ुबिन असमी के अलावा हिन्दी और बांग्ला में भी गाते. उन्हें उल्फा की तरफ से धमकियां मिलने लगीं. वो बात अलग है कि ज़ुबिन ने उन्हें घास तक नहीं डाली. उनका दो टूक जवाब था कि जो कर सकते हो, वो कर लो. जब इतने पर भी उल्फा वाले नहीं माने, तो ज़ुबिन ने अपने एक स्टेज शो के दौरान उन लोगों को मिडल फिंगर दिखा दी. ऐसे थे ज़ुबिन गर्ग. सिंगर, म्यूज़िक डायरेक्टर, एक्टर और डायरेक्टर. उनका एक और परिचय है – दिल से लेफ़्टिस्ट, चार्ली चैपलिन के भक्त, डॉन कोरलियोनी के शिष्य और एक प्राउड असमी.

19 सितंबर को सिंगापुर में स्विमिंग करने के दौरान डूबने से ज़ुबिन गर्ग की मौत हो गई. उनकी मृत्यु से पूरा असम सदमे में है. लोग अपनी ज़मीन के बेटे की आखिरी झलक पाने के लिए सड़क जाम कर रहे हैं. कोई उनकी फोटो के सामने रो रहा है. कोई सड़क पर बेसुध हो गया. असम सरकार ने जानकारी दी कि लोग ज़ुबिन के पार्थिव शरीर के दर्शन कर सकते हैं. उनके आखिरी दर्शन के लिए 15 लाख से ज़्यादा लोग जमा हो गए. ये ज़ुबिन का असर रहा. इसलिए उन्हें सिर्फ ‘या अली’ गाने वाले ज़ुबिन कहना बेमानी होगा. ज़ुबिन गर्ग की कहानी क्या थी, वो आदमी असम के लोगों के लिए देवता कैसे बना, ऐसे ही पहलुओं को करीब से जानते हैं.

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# एक रात में 36 गाने गा दिए

म्यूज़िशियन ज़ुबिन मेहता के नाम पर ज़ुबिन का नाम पड़ा. गुवाहाटी प्लस में पढ़ने को मिलता है कि ज़ुबिन के पेरेंट्स के दिल में कला के प्रति एक कोना हमेशा से था. उनके पिता मोहिनी मोहन बोरठाकुर एक मैजिस्ट्रेट और कवि रहे. हालांकि उन्होंने अपने नाम से अपना काम नहीं छापा. अपने लिए एक पेन नेम चुना, कपिल ठाकुर. ज़ुबिन की मां इली बोरठाकुर एक सिंगर और डांसर थीं. वो ही ज़ुबिन की पहली गुरु बनीं. मां ने शुरू में ही अपने बेटे के सुर भांप लिए. उन्हें संगीत सिखाना शुरू कर दिया. ज़ुबिन ने कभी भी गायकी में फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं ली. हालांकि उन्होंने बचपन में करीब 11 सालों तक तबला और असमी लोक संगीत सिखा.

फिर आया साल 1992. इस साल एक यूथ फेस्टिवल में सोलो परफॉरमेंस के लिए ज़ुबिन ने गोल्ड मेडल जीता. लेकिन पिक्चर अभी बाकी थी. इसी साल उन्होंने अपना डेब्यू असमी एलबम ‘अनामिका’ भी रिलीज़ किया. इस एलबम ने उन्हें अपने करियर का पहला मेजर ब्रेकथ्रू दिलवाया. इसके बाद ज़ुबिन ने लाइन से एलबम उतारे और सभी को खूब पसंद किया गया. हिन्दी ऑडियंस भले ही ज़ुबिन को चुनिंदा गानों से जानती हो. लेकिन उन्होंने अपने करियर में 37000 से ज़्यादा गाने गाए थे. दिनभर सोने वाले ज़ुबिन रात को ही काम करते. और इतना काम करते कि एक ही रात में 16 गाने रिकॉर्ड कर डाले.

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# ‘या अली’ और बॉलीवुड की कहानी

साल 1995 में ज़ुबिन अपनी सीमाओं की रेखाएं खींचना चाहते थे. सिर्फ असम या बांग्ला में नहीं गाना चाहते थे. इसी सोच के साथ मुंबई आ गए. हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में काम शुरू किया. यहां उन्होंने अपना पहला हिन्दी एलबम ‘चांदनी रात’ रचा. ज़ुबिन ने अगले कई सालों तक हिन्दी सिनेमा में काम किया. वो बात अलग है कि उन्हें ‘गैंगस्टर’ फिल्म के गाने ‘या अली’ और ‘प्यार के साइड इफेक्ट्स’ के गाने ‘जाने क्या चाहे मन बावरा रे’ से सबसे ज़्यादा पहचान मिली. उन्हें इस बात का मलाल भी रहा कि ‘कांटे’ फिल्म का गाना ‘जाने क्या होगा रामा रे’ सुनने पर लोगों को उनका नाम ध्यान क्यों नहीं आता, जबकि मेकर्स ने उन्हें प्रॉपर क्रेडिट भी दिया था.

हिन्दी सिनेमा में अपने करियर के पीक पर ज़ुबिन मुंबई छोड़ने का फैसला करते हैं. वो वापस असम जाते हैं. एक इंटरव्यू में जब उनसे ऐसा करने की वजह पूछी गई तो उनका जवाब था, ‘एक राजा को अपने राज्य में ही रहना चाहिए’. अपनी बात बढ़ाते हुए ज़ुबिन ने कहा कि उन्हें बॉलीवुड वालों का ऐटिट्यूड पसंद नहीं आया. इसलिए उन्होंने असम लौटना ही बेहतर समझा.

# वो एक्टर जिसने नैशनल अवॉर्ड जीता

साल 2000 में ‘तुमी मुर मथु मुर’ नाम की एक असमी फिल्म रिलीज़ हुई. इस फिल्म में पहली बार ज़ुबिन डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठे. वो फिल्म में एक्टिंग भी कर रहे थे. ज़ुबिन इससे पहले म्यूज़िक वीडियोज़ में एक्टिंग कर रहे थे. लेकिन ये पहला मौका था जब वो फुल फ्लेज्ड फिल्म कर रहे थे. उसके बाद उन्होंने ‘मोन जाई’ नाम की फिल्म थी. ये चार बेरोजगार लड़कों पर केंद्रित कहानी थी जिसे नैशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. ज़ुबिन ने अपने एक्टिंग करियर में अलग-अलग रोल किए. म्यूज़िक से इतर ज़ुबिन मार्शल आर्ट्स में भी ट्रेन्ड थे. वो किक-बॉक्सिंग किया करते थे. ये कला अपनी फिल्मों में भी लाए. अपनी फिल्मों में जहां भी एक्शन या स्टंट की गुंजाइश होती तो ज़ुबिन खुद ही उसे परफॉर्म करते.

# असम अपने ‘ज़ुबिन दा’ को इतना क्यों चाहता है?

अपने ज़ुबिन दा को याद करने के लिए लोगों ने पूरा राज्य बंद करवा दिया. लाखों का हुजूम रोता-बिलखता सड़कों पर उतर आया. मूल रूप से हिन्दी पट्टी में रचे-बसे आदमी के ज़ेहन में ख्याल आ सकता है कि इस दिन में कलाकार पहले भी हुए, फिर ज़ुबिन में ऐसा क्या खास था. एक लाइन में इसका जवाब ये है कि ज़ुबिन हर सेंस में उस मिट्टी के लाल थे. जोरहाट में पैदा हुए ज़ुबिन काम उम्र में ही गुवाहाटी आ गए थे. उनके साथ बस दो ही अमानत थीं – एक साइकिल और एक उनका कीबोर्ड. इस कहानी को असम में किसी लोककथा की तरह सुनाया जाता है, कि कैसे साइकिल पर सवार उस लड़के ने पूरे देश में अपना नाम रोशन किया.

हालांकि ज़ुबिन को सिर्फ इसी कारण से वहां इतना प्यार नहीं मिलता. उन्हें जितना अपनी मिट्टी से मिला, वो हमेशा उसके आभारी रहे. जितना मिला, उससे कई ज़्यादा लौटाने की कोशिश की. वहां के कलाकारों और खिलाड़ियों की आर्थिक और हर संभव मदद की. जब असम बाढ़ से लड़ रहा था, तब ज़ुबिन ज़मीन पर उतरकर लोगों के बीच आए. मोर्चा संभाला और मदद पहुंचाई. खुद फुटबॉल मैच खेले ताकि चैरिटी से आने वाले पैसे से लोगों का भला हो सके. जब राज्य में एंटी CAA प्रोटेस्ट हुए, तब ज़ुबिन उसकी सबसे मुखर आवाज़ में से एक बने. अपनी प्रिविलेज की मदद से लोगों की बात को बड़े स्टेज तक लेकर गए. कोविड पैंडेमिक में जब व्यवस्था लचर हो रही थी, तब उन्होंने अपने घर के दरवाज़े खोल दिए. अपनी दो मंजिला घर को पूरी तरह से कोविड केयर सेंटर में तब्दील कर दिया. आज असम ज़ुबिन के ऐसे ही योगदानों को याद कर रहा है. वो याद कर रहा है उनके गाने ‘मायाबिनी’ को. नम आंखों के साथ उसे गुनगुना रहा है.

साल 2019 में दिए एक इंटरव्यू में ज़ुबिन ने कहा था कि मेरी एक फैंटसी है. कि जब मैं मरूं, तो पूरा असम ये गाना गाए. इस गाने में किरदार बता रहा है कि वो इतने लंबे वक्त से तूफ़ानों में घिरा रहा, कि अंधकार उसका साथी हो गया है. आज ज़ुबिन नहीं हैं. मगर ये गाना है. उनकी कला है. उनका काम है. बतौर आर्टिस्ट, बतौर इंसान उनकी एक रिच लेगसी है. जो समय के अंतिम पहर तक रहेगी. हमारी ओर से उस महान कलाकार को श्रद्धांजलि.      

वीडियो: 'या अली' फेम सिंगर जुबिन गर्ग की स्विमिंग करते हुए मौत हुई

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