बॉलीवुड डायरेक्टर नितेश तिवारी याद हैं? अगर याद हैं तो आपकी याददाश्त सुपर है और नहीं याद तो बादाम खाया करो बाबू भाई. ‘दंगल’ तो याद होगी. आमिर खान वाली. उसके डायरेक्टर थे नितेश तिवारी. 'दंगल' आई थी 2016 में. इसके बाद से अखाड़े में नहीं उतरे थे नितेश. अब ‘छिछोरे’ फ़िल्म से दोबारा ताल ठोंकी है. फिल्म रिलीज़ हो चुकी है. सुशांत सिंह राजपूत और श्रद्धा कपूर लीड रोल में हैं. साथ में है ‘फुकरे’ का 'चूचा' यानी वरुण शर्मा. और प्रतीक बब्बर ‘भी’ हैं.
वो पांच वजहें जिनके लिए 'छिछोरे' देखी ही जानी चाहिए
देख लो भाई, पहली फ़ुर्सत में देख लो.


छिछोरे की टीम के साथ डायरेक्टर नितेश तिवारी
पहली बात, फ़िल्म मज़ेदार है. इतनी कि उसे मिस नहीं किया जाना चाहिए. आपका वीकेंड हंसी ख़ुशी बीतेगा, फ़िल्म इसकी गारंटी लेती है.
अब सुनिए वो पांच वजहें जिनके चलते आपको ‘छिछोरे’ पहली फ़ुर्सत में देख लेनी चाहिए.

बस मेक अप पे थोड़ा ध्यान और दिया होता तो बात ही और होती
# कहानी
आपने मुंह खुला रख देने वाली फ़िल्म आख़िरी बार कब देखी थी? ‘छिछोरे’ वही फ़िल्म है. न तो सुशांत और न ही श्रद्धा कपूर, इस फ़िल्म की सुपरस्टार है इसकी कहानी. जाबड़ कहानी. ‘अन्नी’ यानी सुशांत और ‘माया’ यानी श्रद्धा कपूर इंजीनयरिंग कॉलेज के ऑल इंडिया रैंकर हैं. जीनियस और सक्सेसफुल. लेकिन ये कहानी जीत के बारे में नहीं हार के बारे में है. अन्नी और माया का बेटा जब टॉप कॉलेज में एडमिशन न मिलने से हारा हुआ महसूस करता है और उसकी ये हार उसे अस्पताल के आईसीयू में पहुंचा देती है कहानी तब शुरू होती है.
अन्नी बताता है कि ‘लूज़र का टैग हम पहनते भी ख़ुद हैं, और उतारते भी ख़ुद हैं’. और फिर शुरू होते हैं अन्नी की कॉलेज लाइफ़ के किस्से.

हेल्दी ह्यूमर किसे कहा जाता है ये फ़िल्म देख कर समझ जाएंगे
# नॉस्टेल्जिया
बात-बात पे आपको अपने कॉलेज के यार, हॉस्टल का खाना, मस्ती और सीनियर्स याद आते हैं? उन यादों को आपके भीतर से निकालकर आपके होंठो पर रख देगी ‘छिछोरे’. और क्लाइमेक्स तक आप मुस्कुराते रहेंगे. भाई सा’ब हॉस्टल लाइफ़ को इतने क़रीब से और इतनी मारक स्टाइल में तो ‘थ्री इडियट्स’ भी नहीं पकड़ पाई थी. आपको फ़िल्म कहीं भी ‘फ़िल्मी हॉस्टल लाइफ़’ वाला फ़ील नहीं आने देती. और कहीं-कहीं पे तो फ़िल्म इतनी रियलिस्टिक हो जाती है कि लगता है आप सिनेमा के पर्दे के भीतर ही कहीं हैं.
एक सीन में अन्नी के सीनियर्स उसे गर्ल्स हॉस्टल से लड़कियों के कपड़े मांगकर लाने को कहते हैं. इनरवियर लाने का स्पेशल ऑर्डर. ‘अन्नी’ और उसका दोस्त ‘मम्मी’ कपड़े ला भी देते हैं. अन्नी का सीनियर ‘सेक्सा’ अंडरवियर को सूंघता है.
ये सीन इंटेंस है. होने को एक नई बहस भी शुरू हो सकती है लेकिन जिस मोड में और जिस ट्विस्ट के साथ इसे फ़िल्माया गया है वो बेहतरीन है.

कुत्ते की दुम बिल्कुल सीधी
# मैसेज
बहुत कम फ़िल्में ऐसी होती हैं जो दर्शकों से सीधे जुड़ती हैं. ‘छिछोरे’ उनमें से एक है. क़ामयाबी के लिए आपकी कोशिशों को एक ऐसी डेफिनेशन देती है फ़िल्म, जो आख़िर में आपको सिनेमा हॉल से ख़ाली हाथ नहीं जाने देती.
‘हारना’, ‘डिप्रेशन’, ‘मेंटल प्रेशर’ ये सब हमारी रूटीन लाइफ़ के ‘की-वर्ड्स’ होते हैं. लेकिन फ़िल्म प्रॉब्लम के बारे में कम, बहुत कम बात करती है. क्योंकि हम सबको पता है कि दिक्कत क्या है. सॉल्यूशन बताती है फ़िल्म. जीतने और हारने का कोई पैरामीटर नहीं होता. और ये फिल्म अपने मैसेज को इतनी सफ़ाई से डिलीवर करती है कि आपका मुंह खुला रह जाएगा.

इवन लूज़र्स कैन मेक अ विक्ट्री साइन
# कनेक्टिविटी
इमैजिन करिए कि आप सीरियल किलर पर बनी कोई फ़िल्म देख रहे हैं. और इंटरवल में आपको किसी तरह से ये पता चले कि आपके ठीक दाहिनी ओर बैठा आदमी ‘मर्डर’ या ‘अटेम्प्ट टू मर्डर’ में जेल से वापस आया है.
इंटरवल के बाद आपका फ़िल्म देखने का नज़रिया बदल जाएगा. ये होती है कनेक्टिविटी. ‘छिछोरे’ आपको शुरुआत के पंद्रह मिनट में ही ये बता देती है कि ‘अपने आस-पास देखो, ये इन्हीं लोगों की कहानी है, ये तुम्हारी अपनी कहानी है’.
# आख़िरी वजह
और पांचवी वजह है ‘अच्छा सिनेमा.’ आप सुनेंगे तो कहने वाला अगली बार और अच्छी कहानी कहेगा. और मन से कहेगा. ऐसे ही तो ज़िंदा रहती हैं अच्छी कहानियां, अच्छी फ़िल्में.
फ़िल्म रिव्यू: छिछोरे