डॉक्टर्स क्या कहते हैं
डॉक्टर अशोक पनगड़िया न्यूरोलॉजिस्ट हैं. राजस्थान हेल्थ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर रह चुके हैं. इनके काम के लिए भारत सरकार इन्हें पद्मश्री से नवाज़ चुकी है. इंडिया टुडे से बातचीत में इन्होंने इम्यूनिटी के बारे में बताया. इनके अनुसार,
बड़ी वजह ये है कि भारत में तुलनात्मक रूप से लोगों की इम्यूनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता) ज़्यादा है. सिर्फ इस वायरस को लेकर नहीं, बल्कि दूसरे इन्फेक्शन को लेकर भी. क्योंकि भारत में लोग पूरे साल किसी न किसी वायरस या इंफेक्शन से घिरे ही रहते हैं. इससे शरीर में एंटी बॉडीज बनने लग जाते हैं, जो हमारी इम्यूनिटी को बढ़ाते हैं. ये भले ही दूसरे इन्फेक्शन या वायरस के लिए बनी हों, लेकिन ये आपकी सुरक्षा कर सकती हैं.आम इन्फेक्शन्स के लिए ये बात समझ में आती है. अगर कोई वायरस या बैक्टेरिया हमारे शरीर पर बार-बार हमला करे, तो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता उससे लड़ने के लिए तैयार हो जाती है. इसी वजह से कई बीमारियों के टीके भी बनाए जाते हैं. लेकिन कोरोना वायरस का ये जो 'मॉडल' है, ये हमारे शरीर के लिए नया है. इसको लेकर शरीर किस तरह रिएक्ट करता है, और इम्यूनिटी कितना काम आती है, इस पर अभी रीसर्च बाकी है. कई डॉक्टर्स इस बात से सहमत नहीं हैं कि भारतीयों की इम्यूनिटी उन्हें इस वायरस से लड़ने में कोई ख़ास मदद करती है.लोगों की आदत है, उन्हें लगता है जो बुरा होगा, दूसरों के साथ होगा, हमारे साथ न होगा. इसे ऑप्टिमिस्टिक बायस कहते हैं. (सांकेतिक तस्वीर: Pexels)
अगर कोई दूसरा वायरस भी शरीर पर अटैक करता है, तो शरीर इंटरफेरोन्स बनाता है. ये एक तरह का प्रोटीन होता है, जो वायरस से लड़ता है. अगर आपके शरीर के किसी सेल पर वायरस ने अटैक किया, तो वो सेल इंटरफेरों बनाएगा, और दूसरे सेल्स को सिग्नल भेजेगा कि भई इन्फेक्शन से लड़ने को तैयार हो जाओ. बार-बार होने वाले इन्फेक्शन की वजह से हमारे इंटरफेरोन्स बेहतर रूप से तैयार रहते हैं. ये हमारी इम्यूनिटी के काम आता है.
रियलिटी चेक?
डॉक्टर सुजीत राजन रेस्पिरेटरी फिजिशियन हैं. यानी सांस से जुड़े रोगों के एक्सपर्ट. उन्होंने 'मिंट' में बताया,
ऐसा कोई सुबूत नहीं है, जो इस बात को पक्का कर सके कि आम तौर पर भारतीयों का इम्यून सिस्टम COVID-19 से लड़ने के लिए ज़्यादा मजबूत है. मानव का इम्यून सिस्टम बेहद कॉम्प्लेक्स होता है और वातावरण से लेकर कई दूसरे फैक्टर के आधार पर ये रिएक्ट करता है. सिगरेट पीना, दवाएं, नींद, तनाव, एक्सरसाइज वगैरह- सबका इस पर असर पड़ता है. इसलिए ये कहना कि भारतीयों का इम्यून सिस्टम ज़्यादा मजबूत है, एक बेहद मिसलीडिंग स्टेटमेंट है. अगर ऐसा होता, तो फिर पूरी दुनिया में TB के सबसे ज्यादा मामले हमारे यहां नहीं होते. अस्थमा के मामलों में हम दुनिया में दूसरे नम्बर पर हैं और उसकी वजह से होने वाली मौतों में पहले नंबर पर.ये तो हुई एक्सपर्ट्स की राय. पर ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में लोगों को लगता है कि वो कोरोना से बच जाएंगे. माइकल शाल्मैन 'द न्यूयॉर्कर' नाम के न्यूज पोर्टल के लिए लिखते हैं. उन्होंने अपनी रीसर्च में पाया कि अमेरिका के भी अधिकतर अधेड़ और 60 से ऊपर की उम्र वाले लोग कोरोना को लेकर सीरियस नहीं थे. ये पीढ़ी वो है, जो अपने समय में बहुत बड़ी विद्रोही थी. मने कि 60 और 70 के दशक में इन लोगों का बहुत रौला था, जो आज के टाइम में मिलेनियल्स का है.
इनकी भी यही दिक्कत है. इनको भी इस बात का ऑप्टिमिज्म है कि हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा, जबकि इतने इन्फेक्शस वायरस के सामने टिकने के लिए हम तैयार नहीं हैं. इसके लिए रीसर्च अभी शुरुआती स्टेज में है. इसलिए सब धान साढ़े बाईस पसेरी तौलने की हड़बड़ाहट ठीक नहीं.
सिर में ये सोच आती कैसे है?
'कोरोना वायरस से इन्फेक्शन हमें नहीं होगा' वाली सोच के पीछे एक महत्वपूर्ण फैक्टर है. इसे कहते हैं 'ऑप्टिमिस्टिक बायस'. यानी आशावादिता की तरफ झुकना. उम्मीद रखना कि जो सबके साथ हो रहा है, वो हमारे साथ नहीं होगा.
कार एक्सीडेंट? हमारे साथ नहीं होगा. रेल दुर्घटना? हमारे साथ नहीं होगी. लंग कैंसर? हम फूंकते हैं तो क्या हुआ, दूसरों को होगा हमें नहीं होगा.
ऐसा चार कारणों से होता है. हम नहीं कहते. साइकॉलजी कहती है.
1. लोग जब अच्छे परिणाम चाहते हैं. मान लीजिए आप चाहते हैं कि आपके 90 परसेंट नम्बर आएं, तो अगर आपका पेपर खराब भी हुआ होगा तो भी आप सोचेंगे, कोई न. नंबर ठीक-ठाक आएंगे मेरे. उम्मीद पर दुनिया कायम है वाली बात.