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मूवी रिव्यू: वध

संजय मिश्रा और नीना गुप्ता ने ऐक्टिंग की मास्टरक्लास लगाई है.

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बेहतरीन शब्द ऐसी ही फिल्मों के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं

संजय मिश्रा ने पिछले कुछ सालों में लीक से हटकर कई काम किए हैं. 'कड़वी हवा', ‘आंखों-देखी’ या फिर ‘कामयाब’ सबमें उन्हें सराहा गया. उनकी लीक से हटकर एक और फ़िल्म आई है 'वध'. कैसी है? आइए नज़र दौड़ाते हैं.

संजय मिश्रा और नीना गुप्ता

मास्टर शंभूनाथ मिश्रा औपचारिक रूप से रिटायर हो चुके हैं, लेकिन घर पर अब भी बच्चों को पढ़ाते हैं. उनकी पत्नी मंजू मिश्रा भगवान में मानने वाली धार्मिक महिला हैं. ऐसी धार्मिक कि घुटने दर्द करते हैं, फिर भी रोज़ सीढ़ियां चढ़कर मंदिर जाती हैं. अपने बेटे को विदेश भेजने में उनपर खूब कर्जा हो चुका है. चुकाने में समस्या हो रही है. ब्याज बढ़ता जा रहा है. साहूकार ब्याज के लिए तंग करता है. और भी कुछ-कुछ समस्याएं हैं. ट्रेलर देखा है तो समझ ही गए होंगे. लगभग कहानी ट्रेलर में ही रिवील कर दी गई है. अब ज़रा कुछ बातें, जो फ़िल्म देखने से पहले आपको जान लेनी चाहिए.

# थ्रिलर फ़िल्म में दर्शन और सोशल कमेंट्री दबी हुई है. प्रेम दर्शन, जीवन दर्शन और समाज का दर्शन. एक अच्छी कला वो होती है, जिसमें सामने दिख रहे प्रत्यक्ष में आप कुछ अप्रत्यक्ष भी देख सकें. यानी जो नहीं कहा जा रहा, वो भी कहा जा रहा हो. एक सीन है, जहां मास्टर साहब एक बच्ची का जन्मदिन सेलिब्रेट करते हैं. उनकी पत्नी यानी मंजू उनसे पूछती है कि आपने कभी मेरा जन्मदिन तो नहीं मनाया. मास्टर जी कहते हैं: तारीख ही नहीं पता, तो जन्मदिन क्या मनाएं. दोनों हंसते हैं और जन्मदिन की एक तारीख तय करते हैं. इसमें यथार्थता का दर्शन है. डायलॉग के पीछे बेचारगी और मजबूरियत का सोशल डायलॉग है. कैसे एक लोअर मिडल क्लास कपल एक-दूसरे में समरस होते हुए, प्रेम और सच्चाई को हमारे सामने लाकर रख देते हैं. जसपाल सिंह संधू-राजीव बर्नवाल का डायरेक्शन-राइटिंग ऐसे तमाम दर्शन और यथार्थ समेटे हुए है.

शंभुनाथ के रोल में संजय मिश्रा

# 'वध' में सस्पेंस और थ्रिल का तानाबाना इतनी मास्टरी से बुना गया है, आप हतप्रभ हो जाएंगे. सिनेमा में सस्पेंस और संगीत भाइयों की तरह होते हैं. जितना सस्पेंस राइटिंग-डायरेक्शन-सिनेमैटोग्राफी के जिम्मे होता है, लगभग उतना ही बैकग्राउन्ड म्यूजिक के जिम्मे भी होता है. सबसे अच्छी बात है, इसका बीजीएम लाउड नहीं है. जहां पर ज़रूरत है, वही पर लाउड है. साउन्ड डिजाइन ऐसा है कि ये दर्शक को अपने अनुसार चलाता है. एकदम से तनाव के पीक पर ले जाकर नीचे पटक देता है. सिर्फ़ बीजीएम अच्छा होने से ही काम नहीं चलता, उसे कैसे इस्तेमाल किया गया है, वो भी बहुत महत्वपूर्ण होता है. यहां म्यूजिक का इस्तेमाल बहुत ही स्मार्टली किया गया है. ये हमारे दिमाग से खेलता है. हम इसके साथ ट्रैवल करते हैं. एक सीन है जहां पांडे, मास्टर जी के घर में घुसता है. सस्पेंस और थ्रिल से भरपूर म्यूजिक बज रहा होता है. अचानक वो मास्टर जी के तमाचा रसीद देता है. म्यूजिक बंद हो जाता है. ऐसे ही जब मास्टर जी 'वध' करते हैं. उस दौरान जो सर्वशक्तिमान टाइप का तगड़ा बीजीएम बजता है, इसके लिए कम्पोजर लवी सरकार और म्यूजिक देने वाले मोफ्यूजन को टोकरे भर बधाई. अब आप सोच रहे होंगे कम्पोजर और म्यूजिक देने वाले के मैंने दो अलग नाम क्यों लिए? क्योंकि ऐसा ही मेकर्स ने किया है. इसलिए जिसके भी हिस्से बीजीएम का क्रेडिट जाना हो, उसे मिल जाए.

# मैंने अभी बीजीएम की बात की. अब एम्बियंस की बात करते हैं. एक अच्छा सिनेमा वो भी होता है, जिसमें साइलेंस का प्रयोग बहुत चतुराई से किया गया हो. जिसमें आसपास की आवाज़ों को बेहतरीन ढंग से सीन में पिरोया गया हो. 'वध' इसका नायाब नमूना है. इसमें दिखाया गया है प्रकृति में भी संगीत होता है. एक सीन है, जो ट्रेलर में भी दिखता है, मास्टर जी आटा चक्की में बैठे हुए हैं. और आटा चक्की की घरघराहट माहौल में एक तरह का संगीत और सस्पेंस घोल रही है. ऐसे ही कई जगहों पर बिना किसी बैकग्राउन्ड म्यूजिक के सब शांत रहता है और अचानक से चीजें आपके सामने खुलती हैं. मैं तो कम से कम एम्बियंस और साइलेंस के इस्तेमाल के लिए डायरेक्टर्स को बोरा भर बधाई देना चाहूंगा.

हर फ्रेम कुछ कहता है

# कैमरा ऐंगल्स किरदारों के मूड को बहुत अच्छे से दिखाते हैं. ये उसके मेअयार को और उसके अंतर्मन की टोन सेट करने में अहम भूमिका निभाते हैं. इस फ़िल्म को इसके कैमरा ऐंगल्स के लिए भी याद रखा जाएगा. एक उदाहरण देता हूं. जब शक्ति सिंह मास्टर को मिलने के लिए थाने बुलाता है, पहले मास्टर साहब को कैमरा सिर के ऊपर से देख रहा होता है. पर जैसे ही मास्टर अपने स्टेटमेंट से मुकरता है. अगले ही क्षण कैमरा उसे नीचे से देखने लगता है. ये कॉन्फिडेंस की निशानी है. ऐसे ही तमाम मोमेंट और कैमरा ऐंगल हैं, जो सोची-समझी रणनीति का हिस्सा लगते हैं. एक फ्रेम है, जिसमें मास्टर जी पांडे की कार को धक्का दे रहे हैं और वहीं पर पीछे से पुलिस की गाड़ी निकल रही है. ये फ्रेम बहुत कुछ कहता है. ऐसे ही कई सारे बिना कट के लंबे शॉट्स हैं. जिनके लिए सिनेमैटोग्राफर सपन नरूला की तारीफ़ तो बनती है. एक और चीज़ जिसके लिए तारीफ़ बनती है, वो है आर्टिफ़िशियल लाइटिंग का इस्तेमाल. साथ ही फ्रेम में मौजूद लाइट के सोर्स का चालाकी से प्रयोग. कई मौकों पर मोबाइल के टॉर्च की रौशनी का इस्तेमाल बहुत सटीक हुआ है. साथ ही अंधेरे का इस्तेमाल भी बहुत अच्छा किया गया है. अब हर चीज़ के उदाहरण देना का समय नहीं मित्रों. माफ़ कीजिएगा.  

# शायद शंभुनाथ मिश्रा का किरदार संजय मिश्रा के करियर के टॉप थ्री परफ़ॉर्मेंसेस में से एक है. उसका किरदार एक समय पर डरा भी हुआ है और उसी समय आंखों में रोष है. साहस है. एक समय एक साथ किसी किरदार में ये तीनों चीजें उतारना बहुत कठिन होता है. संजय मिश्रा इस कठिनता को बड़ी सहजता से आत्मसात करते हैं. सबसे अच्छी बात है कि बहुत कम बोलकर भी वो बहुत ज़्यादा बोलते हैं. उनकी डायलॉग डिलीवरी भी बहुत शानदार है. कैसे एक मिडल क्लास पति अपनी पत्नी और किसी जान से प्यारी बच्ची के लिए प्रोटेक्टिव हो सकता है. संजय मिश्रा ने मास्टर का किरदार निभाया है और दिखाया है कि वो अभिनय में भी मास्टर ही हैं. 

प्रजापति पांडे के रोल में सौरभ सचदेवा

# संजय मिश्रा की पत्नी के रोल में नीना गुप्ता ने जितना रियल हो सकता है, होने की कोशिश की है. एक सीन है, जहां मास्टर साहब पत्नी के घुटने में मालिश कर रहे होते हैं. अचानक से फोन आने पर वो चारपाई से उठती हैं. उस उठने में ही नीना गुप्ता दिखाती हैं कि वो कितनी बड़ी ऐक्ट्रेस हैं. हालांकि एक दो-जगह वो थोड़ा-सा बनावटी भी लगी हैं. जब संजय मिश्रा को गुंडे पकड़ लेते हैं और वो दौड़कर दरवाजे पर आती हैं, जोर चिल्लाती हैं. वहां उनमें बहुत थोड़ी सी लाउडनेस आ गई है. मानव विज ने पुलिस ऑफिसर शक्ति सिंह के किरदार में अद्भुत काम किया है. उनकी आंखें बहुत तगड़ी ऐक्टर हैं. एक्सप्रेसिव आंखें और उनका इस्तेमाल भी मानव ने बेहतरीन किया है. सौरभ सचदेवा को हमने इससे पहले ‘सेक्रेड गेम्स’ के सुलेमान ईसा के रोल में देखा है. उन्होंने प्रजापति पांडे के रोल में खुद को ऐसा डुबोया है, क्या कहने! आपको उनसे नफ़रत हो जाती है. उनका किरदार ऐसा है, जिसे देखकर लगता है कि ये अगले पल कुछ भी कर सकता है. उन्होंने इस कुछ भी कर सकने की संभावना को जीवंत कर दिया है. मैं उन्हें और ज़्यादा अच्छा काम करते हुए देखना चाहता हूं. संजय मिश्रा के बेटे बने दिवाकर ने भी सही काम किया है. उन्होंने छोटे-से किरदार में ऐक्टिंग का नमक स्वादानुसार ही इस्तेमाल किया है.

# अब आखिरी बात ये है कि फ़िल्म की एन्डिंग और बेहतर हो सकती थी. 'वध' का अंत इतने अच्छे कॉन्टेन्ट के साथ न्याय नहीं करता है. ऐसा लगता है कुछ चीजें जस्टीफाई करने के लिए जबरन दिखा दी गई हैं. बाक़ी मुझे फ़िल्म से कोई खास शिकायत नहीं है. अक्सर आपलोग कमेंट करते हैं कि क्लियर बताओ फ़िल्म देखनी चाहिए कि नहीं. आज मैं क्लियर बता रहा हूं, देख डालिए. बहुत सही फ़िल्म है.

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