अमित त्रिवेदी के संगीत का इंतज़ार रहता है. फिल्मों के भीतर वो कहानी के खाली अनकहे स्थानों का वारिस बन जाता है. फिल्मों के बाहर अकेली राहों पर अकेली रातों का संगी. इसीलिये 'उड़ता पंजाब' का भी इंतज़ार था.. अभिषेक चौबे की 'उड़ता पंजाब', सुदीप शर्मा की 'उड़ता पंजाब', अमित त्रिवेदी की 'उड़ता पंजाब'. अब उसके संगीत की गिरह खुल गई है,
'चिट्टा वे' "जिन्दगी चिल्ल है या
कियो, जियो स्पीड विच
आजादी लिपटी
मजा है सारा वीड विच" ये गाना फ्लैश की तरह आता है सामने. चकाचौंध कर देता है. बाबू हाबी का रैप है. शाहिद माल्या की अपीली आवाज़ है. यह गीत 'चिट्टा' का कच्चा-चिठ्ठा है. आखिर में परेडी पेस है. ड्रग्स के लिए 'पहले मज़ा, फिर मज़ार कर गया' लिखने वाले शैली साहब के बोल किसी चेतावनी से सामने आते हैं.
'इक कुड़ी' 'इक कुड़ी', शिव कुमार बटालवी की यह कविता आधुनिक पंजाबी की शायद सबसे प्यारी कविताओं में से एक है. बटालवी ने इसे लिखते हुए अपना तरुणाई भरा धड़कता दिल मिलाया था. कोरा, नर्म, उजला, सुर्ख. दिप-दिप करता सच्चा दिल. इसी कविता को अमित त्रिवेदी ने अपनी सुकूनभरी धुन में पिरोया है. शाहिद माल्या जहां इसे किसी मैदानी नदी से सुलझेपन में पिरोते हैं, दिलजीत दोसांझ इसे किसी झील से गहरे ठहराव के साथ गाते हैं.
गर फिल्म का पहला गाना ‘चिट्टा वे’ त्रिवेदी के देव डी वाले ‘इमोशनल अत्याचार’ की याद दिलाता था, तो ‘इक कुड़ी’ आयशा वाली ‘शाम’ है. मधुर, मिश्री सा मीठा.
'डर डा डा डस्से' "आहट से डरियो डरियो वे
खौफ के अंदर लग्गे डेरे
हौले से चलियो चलियो वे
रातां दे काले काले चेहरे
डर डा डा डस्से वे" 
'चिट्टियाँ कलाइयाँ' वाली सिंगर कनिका कपूर की आवाज़ में एक खड़ापन है. जैसे ये गाते हुए उनके हाथ में छड़ी हो. लेकिन यह हमलावर रुख नहीं, यहाँ यह अदृश्य छड़ी किसी भयभीत का हथियार है. ये गीत कमज़ोर के साथ खड़ा होता है, भय के सामने खड़ा होता है. याद है, सबसे सताई गई पीढ़ी सबसे ज्यादा गाने रचती है. दूसरी आवाज़ बाबू हाबी की है, रंगीन बोतल में अंधेरा भरे हुए हैं.
'उड़ता पंजाब' "राइफल दिखा के, मुशायरे लुट्टिए
उप्पर से कुद्द के, आज टुट्टिए,
काली सी बोतल में रंगीन भर के ख़ाब
उड्ड-दा पंजाब!" अमित त्रिवेदी इस गाने के 'राम' हैं और विशाल डडलानी 'लखन'. विशाल के रैप में उदंडता है तो अमित बदतमीजी भी कितनी शराफत से कर रहे हैं, देखिये. लेकिन इस मस्ती से भरे और सुरखाब के पर लगे गीत की परछाईं बहुत गहरी काली है.
यह 'घर फूंक मस्ती' वाला गीत नहीं, यह आत्मदाह के बाद की निर्लिप्तता है. वरुण ग्रोवर ने लोहे को अंगारे सा गरम कर फिर ज़हर में बुझाया है और वहां से खड़े होकर इस गाने के बोल रचे हैं.
'हंस नच ले' अलबम का स्वाद बनाये रखते हुए ये गीत गिटार की खराशों से शुरू होता है, लेकिन फिर फ़ौरन ही हारमोनियम साथ दूसरी पगडंडी पर निकल जाता है. यह गीत फिल्म की उजली आत्मा है, डूबते को बचा लेने की सीरत वाला गीत. तबले और हारमोनियम वाला गीत जो शायद नयेपन का नहीं, नास्टैल्जिया वाला खिलाड़ी है. शाहिद माल्या साहब की आवाज़ की पवित्रता यहां कुछ सुरेश वाडकर की याद दिलाती है, मासूमियत कुछ हंस राज हंस की.
यह इश्क-मजाज़ी में इश्क हकीकी की बात है और इश्क हकीकी में इस दुनिया जहान का किस्सा. शैली साहब ने पंजाब की डेरों वाली, दरगाहों वाली बोली को पिरोया है इस गीत में.
'वडिया' इस गीत का अमित त्रिवेदी के स्टाम्प अलबम 'देव डी' से शायद सीधा संबंध जोड़ा जा सकता है. इसे गाया भी खुद त्रिवेदी ने ही है. संगीत लगातार फिसलता चला जाता है. जैसे किसी अंतहीन फिसलपट्टी पर पटक कर पीछे से हाथ छोड़ दिया गया हो.
गिरते ही जा रहे हैं... लेकिन परवाह नहीं. जैसे पीछे बचाने को कुछ भी नहीं.
https://www.youtube.com/watch?v=g334Sn9L3rY