सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी मिट्टी-सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
ठाकरे : मूवी रिव्यू
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...
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फोटो - thelallantop
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ठाकरे फिल्म में एक जगह रामधारी सिंह दिनकर की ये कविता सुनाई देती है. लेकिन मुझे लगता है कि इस फिल्म में सोहनलाल द्विवेदी की गांधी जी पर लिखी कविता ज़्यादा सुहाती –
ठाकरे फिल्म का ये सीन, एक हिंट है कि कैसे पूरी फिल्म में केवल ठाकरे और उनके किरदार को निभाने वाले नवाज़ुद्दीन छाए हैं.
चल पड़े जिधर दो डग, मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर, गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर.
क्यूंकि कमोबेश यही स्थिति विवादित और लोकप्रिय, या विवादित इसलिए लोकप्रिय, जन-नेता बाल केशव ठाकरे या बालासाहेब ठाकरे की भी थी.
सो सबसे बड़ा सवाल ये कि क्या ‘ठाकरे’ फिल्म उनको तटस्थ तरीके से देखती है? उत्तर है – हां.
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हां. देखती भी है और दिखाती भी है. वो भी तब जबकि इसकी स्टोरी संजय राउत ने लिखी है. संजय राउत कौन? राज्य सभा के एमपी. शिवसेना के हैं. फिल्म में वही अकेले नहीं है जो शिवसेना से जुड़े हैं. लेकिन फिर भी फिल्म की तटस्थता की दाद देनी पड़ेगी. उतनी, जितनी ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट में संभव होती है.
कुछेक जगहों को छोड़कर ‘ठाकरे’ किसी एक पक्ष की तरफ झुकने से बहुत आसानी से बच निकलती है. आसानी से इसलिए क्यूंकि ये कोई ओपिनियन नहीं रखती. ये एक रोजनामचे की तरह आपके सामने सारा डेटा रख देती है. अब आप इसे चाहे जैसे प्रोसेस करें ये आप पर निर्भर है.
होने को कहीं-कहीं ठाकरे के कृत्यों को जस्टिफाई करने का प्रयास किया गया है. जैसे ठाकरे द्वारा एक मुस्लिम को अपने घर में नमाज़ अता करने देना. या फिर ये दिखाना कि शुरुआत 'उन्होंने' की थी. उन्होंने मतलब वो सब जिनके भी ठाकरे खिलाफ थे. यूं ऐसे ही कुछ विवादित कंटेंट के चलते जहां मराठा माणूस को ये फ़िल्म कुछ ज़्यादा पसंद आएगी दूसरी तरफ साउथ इंडियन्स इस फिल्म से किनारा कर सकते हैं.
देखिए, बाल ठाकरे को अब भी लोग फॉलो करते हैं. पूजते तक हैं. इसलिए उनके नेगटिव पॉइंट्स दिखाना तो शायद ही भारत में किसी निर्देशक के लिए संभव हो. और अगर ऐसी फ़िल्में बना भी ली जाएं तो शायद ही सिल्वर स्क्रीन तक पहुंच पाएं. लेकिन ‘ठाकरे’ मूवी उन्हें देवता बना देने का भी कोई प्रयास नहीं करती. कम से कम सायस प्रयास नहीं करती.
यानी इस मूवी को देखने के बाद अगर आप बाल ठाकरे की कोई बायोग्राफी पढ़ते हो या उनके ऊपर बनाई गई कोई डॉक्यूमेंट्री देखते हो तो आप इस मूवी द्वारा पाए अपने ज्ञान को ज़्यादा से ज़्यादा फाइन ट्यून ही कर पाओगे. इस फिल्म से जस्ट अपोज़िट आपको कोई जानकारी मिले इसकी संभावना कम है.
अगर ठाकरे यूपी में होते तो कहा जाता कि उनका भौकाल है. मुंबई में थे तो कहा गया कि उनकी चलती है, सिर्फ उन्हीं की तो चलती है!
फिल्म देखते हुए एक बड़ी मज़ेदार घटना हुई. जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी मुझे हिटलर याद आता जा रहा था. और आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब न केवल फिल्म में दो बार ठाकरे के किरदार ने हिटलर की तारीफ़ की बल्कि फिल्म से इतर अन्य रेफ्रेंसेज़ से भी इस बात की पुष्टि हुई कि ठाकरे हिटलर को या उसके कुछेक कार्यों को पसंद करते थे.
फिल्म की एडिटिंग, डायरेक्शन, कैमरावर्क और बैकग्राउंड की बात एक साथ की जाए तो इन सब में कोई नई तरह की क्रिएटिविटी दिखाने का प्रयास नहीं किया गया है, जो कि ठीक ही है. क्यूंकि -
फिल्म में दिखाई गई 70 के दशक की मुंबई
एक डॉक्यूमेंट्री में जब आप इमोशनल से इमोशनल घटनाओं को भी देखते हो तो आपकी शायद ही रुलाई फूटती है, शायद ही खून खौलता है. बस आप उससे कुछ ज्ञान ज़रूर पाते हो. अमूमन डॉक्यूमेंट्रीज़ दिल के लिए नहीं दिमाग के लिए ज़्यादा होती हैं. यूं ट्रीटमेंट के स्तर पर ‘ठाकरे’ एक फिल्म से ज़्यादा, बायोपिक से ज़्यादा एक डॉक्यूमेंट्री लगती है. टिपिकल बॉलीवुड मूवीज़ एन्जॉय करने वाले दर्शक इसे देखते हुए निश्चित तौर पर बोर होंगे.
फिल्म दरअसल एक खास वर्ग के दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गई है और ऐसे ही इसका प्रमोशन भी किया गया है. बताने की ज़रूरत नहीं कि ये एक बायोपिक है जिसमें आप नाच गाने, आउटडोर लोकेशंस नहीं एक्स्पेक्ट करते. लेकिन जिसकी अपेक्षा रखकर मूवी देखने जाते हैं, वो 70-80 % तक पा लेते हैं.
काफी प्रयास किए गए लगते हैं, लेकिन फिर भी अमृता द्वारा निभाया गया मीना ताई किरदार इतना स्ट्रॉन्ग बनकर नहीं उभरता.
कुछेक जगहों को छोड़कर ‘ठाकरे’ किसी एक पक्ष की तरफ झुकने से बहुत आसानी से बच निकलती है. आसानी से इसलिए क्यूंकि ये कोई ओपिनियन नहीं रखती. ये एक रोजनामचे की तरह आपके सामने सारा डेटा रख देती है. अब आप इसे चाहे जैसे प्रोसेस करें ये आप पर निर्भर है.
होने को कहीं-कहीं ठाकरे के कृत्यों को जस्टिफाई करने का प्रयास किया गया है. जैसे ठाकरे द्वारा एक मुस्लिम को अपने घर में नमाज़ अता करने देना. या फिर ये दिखाना कि शुरुआत 'उन्होंने' की थी. उन्होंने मतलब वो सब जिनके भी ठाकरे खिलाफ थे. यूं ऐसे ही कुछ विवादित कंटेंट के चलते जहां मराठा माणूस को ये फ़िल्म कुछ ज़्यादा पसंद आएगी दूसरी तरफ साउथ इंडियन्स इस फिल्म से किनारा कर सकते हैं.
देखिए, बाल ठाकरे को अब भी लोग फॉलो करते हैं. पूजते तक हैं. इसलिए उनके नेगटिव पॉइंट्स दिखाना तो शायद ही भारत में किसी निर्देशक के लिए संभव हो. और अगर ऐसी फ़िल्में बना भी ली जाएं तो शायद ही सिल्वर स्क्रीन तक पहुंच पाएं. लेकिन ‘ठाकरे’ मूवी उन्हें देवता बना देने का भी कोई प्रयास नहीं करती. कम से कम सायस प्रयास नहीं करती.
यानी इस मूवी को देखने के बाद अगर आप बाल ठाकरे की कोई बायोग्राफी पढ़ते हो या उनके ऊपर बनाई गई कोई डॉक्यूमेंट्री देखते हो तो आप इस मूवी द्वारा पाए अपने ज्ञान को ज़्यादा से ज़्यादा फाइन ट्यून ही कर पाओगे. इस फिल्म से जस्ट अपोज़िट आपको कोई जानकारी मिले इसकी संभावना कम है.

नवाज़ुद्दीन को आज तक मैं एक ओवररेटेड एक्टर समझता था, लेकिन जिस तरह से उन्होंने ठाकरे के हाव भाव पकड़े हैं, वो सब कुछ उन्हें पहली कतार के एक्टर्स में खड़ा कर देता है.
दूसरी तरफ ठाकरे की पत्नी मीना ताई का किरदार निभाने वाली अमृता राव जब कभी भी स्क्रीन में दिखाई देती हैं ऐसा लगता है कि अभी रो पड़ेंगी. यूं उनका किरदार बहुत कमज़ोर लगता है. तब जबकि ये साफ़ दिखता है कि उसे स्ट्रॉन्ग बनाने का बहुत प्रयास किया गया था. लेकिन चूंकि ठाकरे का जीवन काफी लंबा और बड़ी घटनाओं से भरा था, सो निर्देशक अभिजित पानसे के लिए बाकी किरदारों को भी उतना ही महत्त्व दे पाना संभव नहीं लग रहा था. और दिया भी नहीं.फिल्म देखते हुए एक बड़ी मज़ेदार घटना हुई. जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी मुझे हिटलर याद आता जा रहा था. और आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब न केवल फिल्म में दो बार ठाकरे के किरदार ने हिटलर की तारीफ़ की बल्कि फिल्म से इतर अन्य रेफ्रेंसेज़ से भी इस बात की पुष्टि हुई कि ठाकरे हिटलर को या उसके कुछेक कार्यों को पसंद करते थे.
फिल्म की एडिटिंग, डायरेक्शन, कैमरावर्क और बैकग्राउंड की बात एक साथ की जाए तो इन सब में कोई नई तरह की क्रिएटिविटी दिखाने का प्रयास नहीं किया गया है, जो कि ठीक ही है. क्यूंकि -
# पुराने दशक को ब्लैक एंड वाइट दिखाने वाली जांची परखी रणनीति में क्या बुरा है.फिल्म मेकिंग और उसकी टेक्निकलिटी के लिहाज़ से ये सब प्लस न भी हो तो माइनस तो कतई नहीं है. कैलकुलेट है. और वैसे भी अंततः आपकी फिल्म कंटेंट ड्रिवेन है.
# या क्या बुरा है कि जब हीरो की एंट्री हो तो उससे पहले उसका पूरा ऑरा क्रिएट किया जाए.
# या एडिटिंग में भी वही पारंपरिक तरकीब क्या बुरी है कि इस सीन के एंड में पत्थर फेंकों तो अगले सीन की कांच टूटे. या इस सीन में बाबरी मस्ज़िद के गुंबद पर हथौड़ा मारा जाए तो अगले सीन में जज ऑर्डर-ऑर्डर कहकर अपना हथौड़ा टेबल पर मारे.
# या कार के अंदर कैमरा रखकर बाहर की भीड़ का दौड़ना दिखाया जाए.

अच्छी बात ये भी है कि फिल्म का ट्रीटमेंट, प्रीमियम है. पैसों की कमी कहीं नहीं दिखती. फिर चाहे वो सत्तर-अस्सी के दशक से सेट्स हों या फिल्म की शुरुआत में एक जगह पर यूज़ किए गए एनिमेशन.
फिल्म को कई सारे चैप्टर्स में बांटा गया है. इन चैप्टर्स में दो चीज़ें एक साथ होती हैं. एक तो किसी भी चैप्टर या उससे संबंधित घटना के तह तक नहीं जाया गया है (रिसर्च के स्तर पर नहीं लेकिन उसे फिल्म में जैसे दिखाया गया है उस स्तर पर) लेकिन इसके बावज़ूद सब कुछ इतना फ़ास्ट पेस भी नहीं हो पाता कि फिल्म देखते वक्त आप खुद को नाखून कुतरते या रोएं खड़े हो जाने वाली स्थिति में पाएं. क्यूंकि दर्शकों की उत्सुकता घटनाओं या उनके डेवलपमेंट के चलते नहीं, क्लाइमेक्स के चलते नहीं, ज्ञान अर्जित करने के चलते रहती है.एक डॉक्यूमेंट्री में जब आप इमोशनल से इमोशनल घटनाओं को भी देखते हो तो आपकी शायद ही रुलाई फूटती है, शायद ही खून खौलता है. बस आप उससे कुछ ज्ञान ज़रूर पाते हो. अमूमन डॉक्यूमेंट्रीज़ दिल के लिए नहीं दिमाग के लिए ज़्यादा होती हैं. यूं ट्रीटमेंट के स्तर पर ‘ठाकरे’ एक फिल्म से ज़्यादा, बायोपिक से ज़्यादा एक डॉक्यूमेंट्री लगती है. टिपिकल बॉलीवुड मूवीज़ एन्जॉय करने वाले दर्शक इसे देखते हुए निश्चित तौर पर बोर होंगे.
फिल्म दरअसल एक खास वर्ग के दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गई है और ऐसे ही इसका प्रमोशन भी किया गया है. बताने की ज़रूरत नहीं कि ये एक बायोपिक है जिसमें आप नाच गाने, आउटडोर लोकेशंस नहीं एक्स्पेक्ट करते. लेकिन जिसकी अपेक्षा रखकर मूवी देखने जाते हैं, वो 70-80 % तक पा लेते हैं.

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है, दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
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फिल्म रिव्यू:मणिकर्णिका -