कहानी सिंपल है. 19 वीं सदी का चौथा-पांचवा दशक है. अंग्रेज़ों ने हिंदुस्तानी किसानों की फसलों और उनकी जमीनों पर लगान लगाना शुरू कर दिया है. और बाद में उनकी ज़मीनों पर अपना अधिकार जमाकर उन्हें मजदूर बना दिया है.
इसके विरोध में नरसिम्हा रेड्डी नाम के तेलुगु पालेगार (जागीरदार) बाकी पालेगारों को इकट्ठा करते हैं. साथ ही आम लोगों को इस क्रान्ति में शरीक होने के लिए मोटिवेट करते हैं. इस दौरान खूब मार-काट मचती है, षड्यंत्र, दोस्ती और लव स्टोरीज़ के कई पैरलल प्लॉट्स चलते हैं और इस सब में प्रोड्यूसर्स के ढाई सौ करोड़ रुपए खर्च हो जाते हैं.

कहते हैं न कुछ चीज़ें सिर्फ नाम से बिक जाती हैं. उस हिसाब से-
# ‘चिरंजीवी’ जिन्हें क्रेडिट रोल में ‘मेगा स्टार चिरंजीवी’ बताया गया हैजैसे नाम ‘नरसिम्हा रेड्डी’ मूवी को इनिशियल पुश देने के पर्याप्त हैं.
# अमिताभ बच्चन, जिनकी तस्वीर दिखाकर उन्हें थैंक्स कहा गया है
# अनुष्का शेट्टी, बाहुबली की देवसेना और
# तमन्ना भाटिया (केजीएफ और बाहुबली वाली)

साथ में है वही लाउडनेस जिससे ‘केजीएफ’, ‘बाहुबली’ जैसी साउथ इंडियन फिल्म देख चुकने के बाद हम हिंदीभाषी दर्शक अब अंजान नहीं रहे. कई बार तो लगता है अभी नरसिम्हा रेड्डी, अपने डायलॉग पूरा करते-करते बाहुबली की तरह बोल उठेंगे- ...काटते हैं उसका गला.
और हां ‘देशभक्ति’ और ‘बलिदान’ जैसे जांचे परखे मसाले तो हैं ही.
फिल्म को आप यदि हिस्टोरिकल रेफरेंस की तरह प्रयोग में लाना चाह रहे हैं तो जान लीजिए कि इसमें क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर 50% चीज़ें सच्चाई से अलग रखी गई हैं. और बाकी बचा 50% जो है, वो है स्पेशल इफ़ेक्ट.
लेकिन ज़्यादातर स्पेशल इफेक्ट्स, स्पेशल इफेक्ट्स ही लगते हैं, असल नहीं. फिर चाहे अमिताभ के आश्रम के पीछे बहती नदी हो या पत्थरों के ऊपर बैठकर नरसिम्हा रेड्डी का मेडिटेशन. बैल से लेकर चील तक आपको कुछ भी असली नहीं लगता. गोया फिल्म बनाने वाले अपने वीएफएक्स को जानबूझकर फ्लॉन्ट करना चाह रहे हों.
एक दो युद्ध तक तो सब सही लगता है लेकिन तीन घंटे के लगभग की मूवी में ये युद्ध और मार-काट इतनी बार रिपीट होती है कि अव्वल तो बोर करती है, साथ ही करैक्टर्स और उनके बीच के इमोशंस को डेवलप नहीं होने देती.

कई जगहें ऐसी हैं जहां पर निर्देशक सुरेंदर रेड्डी परफेक्ट इमोशन को पोट्रेट करते-करते इत्तु भर से चूक जाते हैं. जैसे जले हुए बच्चे की बंद मुट्ठी वाले सीन से अगर दर्शकों को और ज़्यादा इमोशनली कनेक्ट करवाया जा सकता तो ये मास्टरपीस सीन हो सकता था. ऐसे ही एक सीन में अंग्रेज़ों के अड्डे में सुसाइड करने से पहले तमन्ना का अपनी जली हुई चुन्नी को लहरा के डांस करना बड़ा कलात्मक लगता है, लेकिन इसमें भी वो इमोशन मिसिंग है. जिसे डालने का निर्देशक ने पूरा प्रयास किया है.
हिंदी में अपने डायलॉग की डबिंग अमिताभ बच्चन (गुरु गोसाईं) ने खुद की है, और वो आवाज़ प्रभावी लगती है. स्टंट सीन की कोरियोग्राफी बेहतरीन है लेकिन फिर भी चिरंजीवी अपने थुलथुले वजन के चलते फाईट सीन में कन्विंसिंग नहीं लगते. और जहां कहीं भी कन्विंसिंग लगते हैं अपने स्टारडम के दम पर. फीमेल ऐक्ट्रेसेज़ का रोल बहुत छोटा है, जैसा ऐसी मूवीज़ का ट्रेंड ही है. लेकिन खलता है इन औरतों का पूरी तरह सबमिसिव होना. फिर चाहे वो तमन्ना का किरदार लक्ष्मी हो या नयनतारा का किरदार सिद्धम्मा. जिन्हें आत्महत्या से रोकने के लिए या शादी करने के लिए या किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्रेरित करने के लिए नरसिम्हा को एक लाइन से ज़्यादा का डायलॉग बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती. रवि किशन के रोल को देखकर आप भी कहेंगे कि क्या मजबूरी थी जो उन्होंने इस रोल को एक्स्पेट किया.

फिल्म के पॉज़िटिव में है इसका म्यूज़िक जो अमित त्रिवेदी ने दिया है. टाइटल सॉन्ग ओरिजिनल वाला, यानी तेलुगु में ज़्यादा अच्छा लगता है. हिंदी में ‘जागो नरसिंम्हा जागो रे’ में उदित की आवाज़ सुनकर अच्छा लगता है. डायलॉग्स अच्छे हैं और कई विश्व साहित्य से अनुवादित हैं. फाईट, डांस और खेतों के विहंगम दृश्य बड़े कलात्मक हैं. रंग, फ्रेम और टेक्स्टचर जैसी टेक्निकल चीज़ें भी फिल्म को खूबसूरत बनाती हैं. कुल मिलाकर अगर फिल्म 3 के बदले एक डेढ़ घंटे की होती तो कहीं एंटरटेनिंग होती.
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