होमी भाभा और विक्रम साराभाई अमीर घरों के लड़के थे. मुफ़लिसी में पैदा नहीं हुए थे, जो उन्हें दुनिया बदलनी हो. दोनों अलग थे लेकिन फिर भी एक बात सेम थी. दोनों ने खुद से बड़ा जुनून खोजा, उससे डूबकर प्यार किया और झोंक दिया खुद को उसमें. एक को इंडिया का पहला रॉकेट बनाना था, दिखाना था कि इंडिया भी वो करने में सक्षम है जिसका दंभ दूसरे देश भरते हैं. दूसरे को देश का पहला एटम बॉम्ब बनाना था, वो भी ऐसे हालात में जब हिरोशिमा और नागासाकी का दाग वर्ल्ड हिस्ट्री पर लग चुका था. जब कोई इंसान खुद से बढ़कर किसी चीज़ में डूब जाए, तो उसे क्या कहेंगे– पागल, स्वार्थी या महान आविष्कारक. शो इन तीनों पहलुओं को अच्छे से स्पेस दे पाता है.

दो लोग, जिन्होंने खुद पर यकीन किया और कमाल कर दिखाया.
ये शो किसी को हीरो या विलन की तरह नहीं दिखाता. वो दोनों महान साइंटिस्ट थे, ये हम आज जानते हैं. लेकिन उस दौर में उनसे भी गलतियां हुईं. कभी अपनी फीलिंग्स की कद्र नहीं की, तो कभी किसी दूसरे की. शो उनका ये पक्ष दिखाने में भी उतनी ही दिलचस्पी रखता है, जितना उनके साइंटिफिक अचीवमेंट दिखाने में. अगर होमी भाभा और विक्रम साराभाई को लार्जर दैन लाइफ हीरो की तरह ट्रीट किया जाता, तो पूरा पर्पज़ डिफीट हो जाता. फिर ये कहानी कम और फैन लेटर ज़्यादा लगती. शो दो लोगों के बारे में था, दो दुनियाओं के बारे में था, उन दुनियाओं में रहने वाले किरदारों के बारे में था. ये वो किरदार हैं जिन्होंने डॉक्टर साराभाई और डॉक्टर भाभा को बनाया.
एक ऐसा ही अहम किरदार है मृणालिनी का. एक क्लासिकल डांसर, जिससे विक्रम को पहली नज़र वाला प्यार हो जाता है. उसे देख आंखों में हल्का पानी तैरने लगता है, जैसे आंखें चमक रही हों. अपने प्यार का इज़हार भी फिल्मी स्टाइल में करता है. पूरी बस के सामने. 'जब से तुम मिली को मैं अपने आप को अधूरा पाता हूं' टाइप बातें कर के. बस रुक जाती है, मृणालिनी और विक्रम उससे उतर जाते हैं. यहां तक देखने पर ये सीन पूरा फिल्मी लगता है. फिर आता है रियलिटी चेक. जब मृणालिनी कहती है कि उसका मद्रास जाना ज़रूरी है और ये आखिरी बस थी. विक्रम को करेक्ट करती है कि वो कैसे उसे अपनी प्रेमिका के तौर पर देख रहा है, न कि एक अलग इंसान की तरह. मृणालिनी बनी रेजिना कैसांड्रा अपने कैरेक्टर का ग्रेस भली-भांति कैरी कर पाती हैं. शो की राइटिंग ने केवल विक्रम और होमी को ही नहीं, बल्कि बाकी किरदारों को भी डेप्थ दी है, जिस वजह से वो खोखले या प्रॉप किस्म के नहीं लगते.
‘रॉकेट बॉयज़’ की प्रोमोशन के दौरान ईश्वाक सिंह ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जिम सर्भ हमारी फिल्म इंडस्ट्री के एसेट हैं. यहां हर एक सीन में ये बात जस्टिफाई होती दिखती है. जिम बड़े असरदार ढंग से होमी का बेफिक्रा सा सेंस ऑफ ह्यूमर कैरी करते हैं, किसी के फालतू ओपीनियन को ज्यादा तूल न देने वाला एटिट्यूड कैरी करते हैं. वो एक किस्म का पागलपन, उन्हें देखकर लगता है कि असली होमी भाभा भी ऐसे ही रहे होंगे. किसी भी पॉइंट पर ये नहीं लगता कि आप जिम सर्भ को एक्टिंग करता देख रहे हैं. ऐसा बाकी एक्टर्स के लिए कहना भी गलत नहीं होगा.

शो अपने दोनों किरदारों की जर्नी साथ लेकर चलता है.
पैशन ड्रिवन होमी की तुलना में विक्रम शांत किस्म के हैं. ‘पाताल लोक’ के बाद से ही ईश्वाक सिंह से उम्मीदें बढ़ना लाज़मी था और ‘रॉकेट बॉयज़’ में उन्होंने वन स्टेप अबव वाला ही काम किया है. उन्हें विक्रम साराभाई जैसा लुक देने के लिए उनके कानों को प्रॉस्थेटिक की मदद से ऊंचा किया गया है. शो की कास्ट में चाहे ईश्वाक सिंह, रेजिना कैसांड्रा, जिम सर्भ, सबा आज़ाद हों या रजीत कपूर, सब ने रिटन स्क्रिप्ट के साथ इंसाफ किया है. फिर भी शो के दूसरे डिपार्टमेंट पर आगे बढ़ने से पहले एक एक्टर की बात करनी ज़रूरी है.
वो हैं दिब्येंदु भट्टाचार्य, जिन्होंने शो में रज़ा मेहदी नाम का किरदार निभाया है. रज़ा पूरी तरह से होमी भाभा और उनकी पॉलिसी के खिलाफ रहता है. फिर भी वो यहां विलेन नहीं है. उसे अपोज़िट फोर्स कहा जा सकता है. रज़ा को होमी से उसके प्रिविलेज की बू आती है. मानता है कि उस जैसों को अपने मुकाम तक पहुंचने के लिए क्या-कुछ देखना पड़ा और होमी को वही सब थाली में सजा हुआ मिल गया. रज़ा को कुछ तो कागज़ पर लिखे ने बनाया, कुछ दिब्येंदु ने, जिन्हें और भी प्रोजेक्ट्स करते रहने चाहिए.
‘रॉकेट बॉयज़’ का ट्रेलर देखकर लग रहा था कि हिस्ट्री की कहानी दिखाने के लिए भूरा कलर पैलेट इस्तेमाल किया है. ताकि पुराने ज़माने वाली फ़ील आ सके. शो देखने के बाद कह सकते हैं कि ये सिर्फ एस्थेटिक वैल्यू बढ़ाने या शो को ‘सुंदर’ बनाने के लिए नहीं किया गया. ये टोन नैरेटिव के साथ चलती है. जैसे-जैसे हमारे किरदार नए और आज़ाद भारत में एंटर करने लगते हैं, वैसे ही कलर भी चेंज होने लगते हैं. अभय पन्नू के डायरेक्शन में बना ‘रॉकेट बॉयज़’ इस बात का अच्छा एग्ज़ाम्पल है कि हिस्ट्री के अहम किरदारों को आम इंसानों की तरह दिखाकर भी उनकी कहानी कैसे सुनाई जा सकती है. उन्हें हर बार भगवान बनाना ज़रूरी नहीं. शो सोनी लिव पर स्ट्रीम हो रहा है, देखा जाना चाहिए.