मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.

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आज की फिल्म है 'श्वास'.
मराठी सिनेमा पूरे हिंदुस्तान से अपने नायाब कंटेंट के लिए तारीफें बटोर रहा है. एक से बढ़कर एक बेहतरीन फ़िल्में बन रही हैं मराठी में. विषय की नवीनता और बेहद संजीदा ट्रीटमेंट वाली फिल्मों का एक पूरा ज़खीरा है वहां. मराठी सिनेमा ने ये करवट सन 2004 में बदली थी. 'श्वास' फिल्म की रिलीज़ के साथ. 'श्वास' ही वो फिल्म है जिसने मराठी सिनेमा के लिए कंटेंट बेस्ड सिनेमा के दरवाज़े खोले. 'श्वास' ही वो फिल्म है जिसने मराठी को 51 साल बाद नैशनल अवॉर्ड दिलाया. और 'श्वास' ही वो फिल्म है जिसने ऑस्कर के लिए जाने वाली पहली मराठी फिल्म होने का सम्मान हासिल किया.

फिल्म का पोस्टर.
'श्वास' एक बेहद इमोशनल कहानी है. महाराष्ट्र के कोंकण इलाके के एक गांव में रहते हैं केशव विचारे. उनकी पूरी दुनिया है उनका 6-7 साल का पोता परशुराम उर्फ़ परश्या. समस्या तब खड़ी होती है जब परश्या को दिन ब दिन कम दिखने लगता है. आशंकित दादाजी उसे लेकर मुंबई में एक प्रतिष्ठित डॉक्टर के द्वारे पहुंचते हैं. डॉक्टर कई सारे टेस्ट्स करवाते हैं और जो रिज़ल्ट सामने आता है उससे दादा-पोते की छोटी सी दुनिया तहस-नहस होकर रह जाती है.
पता चलता है कि परश्या की आंखों में एक बेहद रेयर किस्म का कैंसर हुआ है. इलाज एक ही है. अगर परश्या की जान बचानी है तो तुरंत ऑपरेशन करना होगा. यहां तक भी गनीमत है. मामले का दुखद पहलू कुछ और ही है. ऑपरेशन के बाद परश्या फिर कभी देख नहीं पाएगा. उसकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली जाएगी. दादा को न ये सिर्फ कठिन निर्णय लेना है बल्कि पोते को ये बताना भी है कि उसकी ज़िंदगी हमेशा के अंधेरे में डूबने वाली है.
जब ऑपरेशन का वक़्त आता है दादा पोते को लेकर हॉस्पिटल से गायब हो जाते हैं. हॉस्पिटल में अफरातफरी मच जाती है. क्या ऐसा ऑपरेशन की दहशत की वजह से हुआ है? या उनके साथ कोई हादसा पेश आया है? या इस गायब होने के पीछे कोई तीसरी ही वजह है? ये सब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. हम सिर्फ इतना बता सकते हैं कि ये फिल्म आपको इमोशंस से लबालब भर देगी.

'श्वास' इस मामले में बहुत ख़ास फिल्म है कि ये एक बेहद इमोशनल कहानी को बिना किसी मेलोड्रामा के पेश करती है. गुंजाइश होने बावजूद. न कोई तीखा बैकग्राउंड म्यूजिक बजता है, न ही ओवरएक्टिंग होती दिखाई देती है. कहानी अपनी पूरी स्वाभाविकता के साथ परदे पर घटती जाती है. कुछ सीन तो बेहद प्रभावी हैं. जैसे वो सीन जब डॉक्टर परश्या को पहली बार उसकी लाइलाज बीमारी के बारे में बताते हैं. आशंकित, डरे हुए दादाजी की प्रतिक्रिया देखकर आपका कलेजा हिल जाता है. कुछेक संवाद आपको झकझोरकर रख देते हैं. जैसे दादाजी का आसावरी को ये कहना कि दो मिनट आंखें बंद करके चलकर दिखाओ.
एक्टिंग के फ्रंट पर सभी मुख्य कलाकार न सिर्फ कन्विंसिंग हैं बल्कि भरपूर दाद डिज़र्व करते हैं. अश्विन चितळे ने परश्या की मासूम दुनिया को एफर्टलेस तरीके से पेश किया है. दादा के रोल में अरुण नलावडे शो-स्टीलर हैं. तमाम फिल्म में उनके चेहरे से अपने ग्रैंडसन के लिए चिंता झलकती रहती है. डॉक्टर साने के रोल में संदीप कुलकर्णी शानदार हैं. अपने पेशे की करुणा और महा व्यस्तता की झल्लाहट वो सटीक तरीके से अभिव्यक्त करते हैं. सोशल वर्कर आसावरी की रोल में अमृता सुभाष की परफॉरमेंस पर्याप्त एनर्जेटिक है.

डॉक्टर साने.
इस फिल्म की आत्मा इसकी कहानी है. माधवी घारपुरे की लिखी शॉर्ट स्टोरी को डायरेक्टर संदीप सावंत ने कहीं पढ़ा. उन्हें धुन लग गई कि इस पर फिल्म बनानी है. मसला था पैसों का. सावंत और उनके दोस्तों ने न जाने कितने ही फाइनांसर्स के चक्कर काटे. बड़ी मुश्किल से 60 लाख का जुगाड़ हो पाया. उन्हीं 60 लाख रुपयों में ये मास्टरपीस बन गया. जिसने अपने बजट से लगभग पांच गुना ज़्यादा कमाई की. ये सिनेमा वालों के लिए सबक था कि कैसे स्क्रिप्ट ही असली चीज़ है सिनेमा मेकिंग में. अगर कंटेंट दमदार है तो सक्सेस लाज़मी है.
एक बेहद उम्दा कहानी को बेहद सलीके से फिल्माने के लिए डायरेक्टर संदीप सावंत को भरपूर तारीफें मिलनी चाहिए. मिली भी. 'श्वास' को यकीनन कटेंट बेस्ड मराठी सिनेमा की राह प्रशस्त करने वाली फिल्म माना जाएगा. ज़रूर देखिएगा. फिल्म बहुत से ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध है.
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