भंगारी दादा का चांदनी चौक में दबदबा था. मार्केट के बीचों-बीच उनकी दुकान थी. इलाके के पुराने बदमाश रहे. शराफत की भाषा नहीं जानते. एक दिन एक आदमी हांफते हुए आता है. बताता है कि इलाके में नया दादा आया है. आज से उसे हफ्ता देना होगा. इस नए दादा से निपटने के लिए भंगारी एक पहलवान के पास पहुंचता है. ये कोई टिपिकल पहलवान नहीं जिसकी भुजाओं का भार उसकी शर्ट ना संभाल सके. दिखने में दुबला-पतला लगने वाला, मगर सिर की एक चोट मारे तो दीवार रास्ता खोल दे. नाम था फय्याज़ टक्कर. ये आदमी आज के समय होता तो बिहार के बहुत सारे पुल बच सकते थे.
फय्याज़ टक्कर यानी रज़्ज़ाक खान: वो दुबला-पतला पहलवान जो सलमान, शाहरुख और गोविंदा से भिड़ा
रज़्ज़ाक खान ने बाबू बिसलेरी से लेकर केकड़ा चाचा जैसे किरदारों को अमर किया. बस अफसोस यही रहा कि लोग उन्हें पहचानते हैं, जानते नहीं.


फय्याज़ टक्कर का नाम सुनते ही दिमाग में एक चेहरा कौंधता है. एक आदमी जिसे हर कोई पहचानता है. बस कोई उसे केकड़ा चाचा कहता, तो कोई मानिकचंद. इन किरदारों के जूतों में पांव रखने वाले रज़्ज़ाक खान के जीवन का अफसोस यही रहा कि लोग उन्हें पहचानते थे, बस जानते नहीं थे. रज़्ज़ाक के किरदार आलू की तरह थे. हर जगह दिखते थे, आम थे, लेकिन फिल्मों के लिए उतने ही ज़रूरी भी. नाइंटीज़ के हिंदी सिनेमा के ज़रूरी एलिमेंट रहे रज़्ज़ाक खान कौन थे. उर्दू स्कूल में पढ़े लड़के का दिलीप कुमार से क्या कनेक्शन था. अगर जावेद अख्तर एक दिन खाना खाने नहीं जाते तो रज़्ज़ाक का करियर किसी और दिशा मुड़ चुका होता. उनके जीवन को थोड़ा करीब से जानने की कोशिश करते हैं.
# दिलीप कुमार और सुपरमैन के फैन
रज़्ज़ाक का जन्म मुंबई के बायकुला में हुआ. उनकी पढ़ाई अंजुमन-ऐ-इस्लाम नाम की स्कूल से हुई. ये वही स्कूल थी जहां किसी ज़माने में दिलीप कुमार भी पढ़े थे. जिस टीचर ने दिलीप कुमार को क्लास में पढ़ाया था, वो रज़्ज़ाक के प्रिंसीपल थे. रज़्ज़ाक कहते थे कि अपने प्रिंसीपल से पिटते वक्त उनके दिमाग में ये ख्याल आता था कि इस आदमी ने कभी दिलीप कुमार को भी मारा होगा. बहरहाल रज़्ज़ाक का दिलीप कुमार से सिर्फ इतना ही कनेक्शन नहीं था. वो बचपन से ही उनके सिनेमा के तगड़े वाले फैन थे. आसपास के लोग बताते हैं कि दिलीप कुमार की फिल्में देखने के बाद घर आते. रसोई से दो करछी उठाते. एक खुद पकड़ते और दूसरी अपने किसी दोस्त के हाथ में थमाते. दोनों के लिए वो स्टील की करछी अब धारधार तलवारों में तब्दील हो चुकी थीं. ‘आज़ाद’ और ‘कोहिनूर’ जैसी फिल्मों में जो तलवारबाज़ी देखी, उसे अपने हिसाब से दोहराने की कोशिश करते.
रज़्ज़ाक का हाथ उर्दू में बहुत मज़बूत था. बस ऐसा अंग्रेज़ी के लिए नहीं कहा जा सकता था. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने खुद को अंग्रेज़ी सिनेमा से दूर नहीं रखा. साल 1978 में रिचर्ड डॉनर की फिल्म ‘सुपरमैन’ रिलीज़ हुई. इस फिल्म ने क्रिस्टोफर रीव को सबसे चहेता सुपरमैन बना दिया. रज़्ज़ाक अपने इंटरव्यूज़ में बताते थे कि वो ‘सुपरमैन’ देखने के बाद गले से चादर या दुपट्टा बांधकर घुमा करते थे. ऐसा असर था उस फिल्म का.
# पहले सीन में थप्पड़ खाना था
‘चमत्कार’. नाइंटीज़ की जनता का सिनेमा के ज़रिए दो बार इस टाइटल से राबता हुआ. पहली थी शाहरुख खान और नसीरुद्दीन शाह वाली फिल्म. ‘इस जहां की नहीं हैं तुम्हारी आंखें’ गाने वाली फिल्म. खैर दूसरा मौका था एक टेलिविज़न शो के ज़रिए. टीवी पर प्रसारित होने वाले शो ‘चमत्कार’ में फारुख शेख लीड रोल में थे. उनके किरदार में चमत्कारी शक्तियां होती हैं. वो अपना अंगूठा कान पर लगाता, दूसरी उंगली को आसमान की दिशा में ऊपर उठाता, और इस तरह से लोगों के मन की बात सुन सकता था. उसकी शक्तियों की वजह से पुलिस की केस सुलझाती हैं. लेकिन उनका किरदार अकेला नहीं था. उसके साथ मकोड़ी पहलवान भी था. रज़्ज़ाक ने मकोड़ी पहलवान का रोल किया था. वो फारुख के किरदार का असिस्टेंट था. हरी गंजी पहनने वाला मकोड़ी किसी पहलवान की तरह था. अपने अतरंगी तरीकों से मदद करने की कोशिश करता.

उस दशक का टीवी देखकर बड़ी हुई जनता आज भी रज़्ज़ाक को मकोड़ी पहलवान के किरदार से याद करती है. ये पहला मौका नहीं था जब वो उस जादुई स्क्रीन पर दिखे हों. रज़्ज़ाक बचपन से अवगत थे कि उन्हें एक्टर ही बनना है. अपने सफर की शुरुआत उन्होंने कुंदन शाह और सईद अख्तर मिर्ज़ा के निर्देशन में बने टीवी शो ‘नुक्कड़’ से की. ये उनका पहला टीवी शो था. उसके कुछ समय बाद ही उन्हें अपनी पहली फिल्म भी मिली. हुआ यूं कि रज़्ज़ाक किसी रेस्टोरेंट में बैठे थे. वहां जावेद अख्तर भी खाना खाने आए थे. उन दिनों वो बोनी कपूर के लिए एक बड़ी फिल्म लिख रहे थे. बतौर डायरेक्टर ये सतीश कौशिक की पहली फिल्म होने वाली थी. लीड रोल में अनिल कपूर और श्रीदेवी थे. ये फिल्म बड़े स्टंट्स और विज़ुअल्स से लैस होने वाली थी. जावेद अख्तर की नज़र रज़्ज़ाक पर पड़ी. दिमाग में दो तार भिड़े, करंट दौड़ा और वो रज़्ज़ाक के पास पहुंचे.
उन्होंने रज़्ज़ाक से कहा कि बोनी कपूर एक बहुत बड़ी फिल्म बना रहे हैं. नाम है ‘रूप की रानी चोरों का राजा’. क्या आप उसमें काम करना चाहेंगे? रज़्ज़ाक के लिए ये किसी सपने के पूरे होना जैसा था. उन्होंने तुरंत हामी भर दी. फिल्म में उन्होंने मेन विलेन जुगरान के आदमी केशव का रोल किया. सेट पर पहले दिन उन्हें अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ और अनुपम खेर के साथ शूट करना था. मार्क, लाइटिंग जैसी टेक्निकल बातें किसी विदेशी कॉन्सेप्ट की तरह थीं. ऊपर से उन्हें डेढ़ पेज का डायलॉग थमा दिया गया. आमतौर पर ये सारे पहलू किसी को भी नर्वस कर सकते थे. मगर रज़्ज़ाक के केस में ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने डेढ़ पेज का डायलॉग याद कर के परफॉर्म किया. सीन के अंत में अनुपम खेर का किरदार जुगरान उन्हें थप्पड़ भी मारता है. रज़्ज़ाक ने ऐसा काम किया कि एक टेक में ही उनका पहला सीन फाइनल हो गया.
‘रूप की रानी चोरों का राजा’ रिलीज़ हुई और बॉक्स-ऑफिस पर बुरी तरह पिटी. मेकर्स का हौसला टूट गया. फिल्म भले ही नहीं चली, मगर उसकी बदौलत रज़्ज़ाक को ‘मोहरा’, ‘राजा हिन्दुस्तानी’ और ‘पापी गुड़िया’ जैसी बड़ी फिल्में मिलीं.
# एक ही साल में सलमान, शाहरुख और गोविंदा से भिड़े
रज़्ज़ाक खान ने अपने करियर में लगभग हर बड़े स्टार के साथ काम किया. उनके हिस्से भले ही बड़े रोल नहीं आए, लेकिन अपने काम के दम पर उन्होंने उन किरदारों में नई जान फूंकी. फिर चाहे वो ‘इश्क’ का चंगेज़ी हो या ‘हंगामा’ का बाबू बिसलेरी. रज़्ज़ाक ने अपने करियर का सबसे ज़्यादा काम नब्बे के दशक में किया. हर साल आने वाली दर्जनों फिल्मों में वो नज़र आते. मगर इनके बीच अगर किसी एक साल को हाइलाइट करना हो तो वो 1999 होगा. इसी साल डेविड धवन की फिल्म ‘हसीना मान जाएगी’ आई. गोविंदा और डेविड धवन की जोड़ी फिर लौटी. इस फिल्म में रज़्ज़ाक ने विलेन के आदमी का रोल किया.

कुछ महीने बाद अब्बास-मुस्तन की ‘बादशाह’ सिनेमाघरों में उतरती है. यहां कसीनो टेबल पर शाहरुख के सामने रज़्ज़ाक बैठे थे. किरदार का नाम था मानिकचंद. अजीब सी मूंछों वाला रईस आदमी जिसकी टोपी में हीरे जड़े थे. ‘बादशाह’ के एक महीने बाद ही सलमान खान की फिल्म रिलीज़ हुई. ये वो फिल्म थी जिसे सलीम खान ने तंज कसते हुए दुनिया की सबसे महंगी होम वीडियो कहा था. ये फिल्म थी ‘हैलो ब्रदर’. रज़्ज़ाक केकड़ा चाचा बने थे. ये आदमी 200 साल से बस्ती में रह रहा था. कोई पूछता कि ये हड्डियों का ढांचा कौन है. तो जवाब मिलता कि ये हड्डियों का ढांचा नहीं, इस बस्ती के चाचा हैं. केकड़ा चाचा ने बस्ती में पैदा हुए किसी नवजात शिशु की पहली रुलाई से लेकर उसके बुढ़ापे की गहरी अंतिम सांस तक, सब कुछ सुन रखा था. मीम कल्चर में होते तो उनका अपना रौला होता.
# कपिल शर्मा के शो से वापसी की
नाइंटीज़ के हिंदी सिनेमा ने एक टेम्पलेट सेट कर दिया था. हर फिल्म में छह-सात मिनट के दर्जनभर गाने होते जिनके इंट्रो खत्म होने तक शाम हो चुकी होती. जिन गिने-चुने सीन्स में हीरो-हीरोइन नहीं होते, वहां फिलर के तौर पर कॉमेडी एक्टर्स को डाल दिया जाता. जॉनी लीवर को इसी चक्कर में कई भुला दी जाने वाली फिल्में करनी पड़ीं. रज़्ज़ाक के करियर की अधिकांश फिल्में भी उसी दौर से निकलीं. कहीं वो गुंडे की टोली का हिस्सा बने, तो कहीं हीरो उन्हें चकमा देकर निकल पड़ता था. ये दशक खत्म होते-होते सिनेमा बदलने लगा. ‘लगान’ और ‘गदर’ एक-दूसरे के आमने-सामने रिलीज़ हुईं. ऑडियंस का टेस्ट बदल रहा था. इस बदलते टेस्ट और ट्रेंड का सबसे ज़्यादा खामियाज़ा कैरेक्टर एक्टर्स को भुगतना पड़ा.

फिल्ममेकर्स को समझ नहीं आ रहा था कि इन एक्टर्स को कैसे इस्तेमाल किया जाए. प्रियदर्शन हिंदी सिनेमा को बड़ी कॉमेडी फिल्में देते रहे. उनमें रज़्ज़ाक के लिए जगह भी रहती. किसी फिल्म में वो बाबू बिसलेरी थे जिसे नाम बताने पर कह दिया जाता, “तो क्या करूं? नहाऊं?” तो कहीं वो फोन नंबर 888 को तीन टकले कहकर संबोधित करता. हिंदी सिनेमा ने जिन एक्टर्स को कैरेक्टर आर्टिस्ट के सांचे में डाला हुआ था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब उनके साथ क्या करना है.
# करियर की बेस्ट फिल्म जो कभी आई ही नहीं
साल 2016 में रज़्ज़ाक खान का निधन हो गया. उसके बाद फिल्म इंडस्ट्री के लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी. उनसी जुड़ी यादें साझा की. अनुराग कश्यप ने लिखा कि एक और अच्छे इंसान चले गए. कपिल शर्मा ने कहा कि एक टैलेंटेड कलाकार नहीं रहे. अरशद वारसी ने लिखा कि फनी मैन रज़्ज़ाक खान नहीं रहे. दुख की इस घड़ी में हंसल मेहता ने रज़्ज़ाक की एक परफॉरमेंस को याद किया. हंसल ने लिखा कि रज़्ज़ाक की सबसे उम्दा परफॉरमेंस ‘दुबई रिटर्न’ में थी, जो दुर्भाग्यवश डिब्बे में बंद पड़ी है. हंसल इस फिल्म को रज़्ज़ाक के करियर का सबसे बेस्ट काम मानते हैं.
रज़्ज़ाक पहले टपोरी भाषा बोलने वाले किरदार निभाते थे. उनके सारी किरदारों के उपनाम ‘भाई’ पर खत्म होते. ये तब नया था. लेकिन फिर फॉर्मूला नाम की चीज़ ने इसे खूब घिसा. रज़्ज़ाक के करियर में एक जैसे किरदारों के बीच खिलजी भाई की एंट्री होती है. ये पहले आए तमाम भाइयों से अलग था. फिल्म थी ‘दुबई रिटर्न’. आदित्य भट्टाचार्य ने बनाई थी. दिमाग पर ज़ोर डालने पर शायद कोई घंटी न बजे, क्योंकि ये फिल्म कभी रिलीज़ ही नहीं हुई. इसे रिलीज़ करने की कई कोशिशें की गईं मगर बात नहीं बन पाई. बाबिल ने कुछ साल पहले अनाउंस था कि इसे फ्री में यूट्यूब पर रिलीज़ किया जाएगा. लेकिन ये फिल्म उस पते पर नहीं दिखती.
‘दुबई रिटर्न’ एक फन-मुंबई फिल्म थी. फिल्म में इरफान ने आफताब अंग्रेज़ नाम के एक गैंगस्टर का रोल किया. छोटे-मोटे क्राइम करता था. हाल ही में दुबई से लौटा है. अब उसे मुंबई के अंडरवर्ल्ड में अपना नाम चमकाना है. इसी मकसद के साथ एक मर्डर कर देता है. लेकिन उसकी ज़िंदगी का दुख ये है कि उस मर्डर का क्रेडिट कोई और ले उड़ता है. अब वो किसी भी तरह अपना क्रेडिट लेना चाहता है. दुनिया को दिखाना चाहता है कि वो कोई हल्की चीज़ नहीं है.
01 जून 2016 को कार्डियक अरेस्ट की वजह से रज़्ज़ाक का निधन हो गया. उनकी फिल्मोग्राफी में 150 से ज़्यादा फिल्में हैं. बस उन्हें इसी बात का अफसोस रहा कि जिस मुकाम के हकदार थे, वो अभी भी पाना बाकी था.
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