ये एक पीरियड फिल्म है यानी इसकी कहानी समय में पीछे जाकर घटती है. संभवत: 70 के दशक में. फिल्म का नायक विक्रम आदित्य (आप इसे विक्रमादित्य भी पढ़ सकते हैं) एक चर्चित पामिस्ट है. पामिस्ट यानी हाथ की रेखाएं देखकर भविष्य बताने वाला. आज तक उसकी बताई हर बात सच साबित हुई है. अपने बारे में उसे लगता है कि उसकी रेखाओं में प्रेम का योग नहीं है. इसलिए वो किसी महिला के साथ रिलेशनशिप में नहीं, फ्लर्टेशनशिप में रहता है. ठीक इसी समय बड़े फिल्मी स्टाइल में उसकी मुलाकात प्रेरणा नाम की एक डॉक्टर से हो जाती है. प्रेम होता है. मगर दोनों के इस प्रेम के पूरा होने में कई मुश्किलें हैं. जिसमें पहले नंबर पर है किस्मत. और दूसरे नंबर पर है खालिस बेवकूफी.

प्रभास ने एक हालिया इंटरव्यू में कहा था कि 'बाहुबली' के बाद वो सफल होने का प्रेशर बहुत ज़्यादा महसूस करते हैं.
'राधे श्याम' की सबसे बड़ी समस्या है इसका कॉन्ट्राइव्ड होना. इसे बनाने वाले को लगता है कि उसने कुछ आउट ऑफ द वर्ल्ड टाइप की लव स्टोरी बना दी है. मगर ये फिल्म जैसे डायरेक्टर राधे श्याम कुमार के दिमाग में बनी थी, परदे पर वैसी नहीं दिखती है. इस लेवल पर के रिसोर्स और स्टारकास्ट के साथ, ये फिल्म किसी अलग लेवल पर जा सकती थी. मगर वो अपनी पूंछ के पीछे ही भागती रह जाती है. इस फिल्म में जो रोमैंटिक और सो-कॉल्ड फनी सीन्स हैं, वो बहुत अजीबोगरीब हैं. अन्य शब्दों में उन्हें अन-रियलिस्टिक भी कहा जा सकता है. फिल्म में एक सीन है, जहां विक्रम बताता है कि वो रोज़ मरने की प्रैक्टिस करता है. बाद में प्रेरणा भी उसे कॉपी करने की कोशिश करती है. फिल्म में जितने भी रोमैंटिक सीन हैं, उनमें किसी न किसी तरह का खलल ज़रूर पड़ता है. कई बार रोमैंस के बीच में अनफनी कॉमेडी आ जाती है, तो कई बार सपोर्टिंग कास्ट आकर डिस्ट्रैक्ट कर देते हैं. अगर आप सिनेमा पढ़ते हैं, तो सपोर्टिंग कास्ट का कैसे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, उसका ये फिल्म बढ़िया उदाहरण है.
प्रभास ने लंबे समय के बाद किसी रोमैंटिक फिल्म में काम किया है. वो साधारण एक्टर नहीं हैं, 'बाहुबली' प्रभास हैं. इसलिए उनकी फिल्म बड़े लेवल पर बनती हैं. 'राधे श्याम' भी उसी तरह की भव्य फिल्म है. किसी फिल्म की भव्यता, फिल्म की कहानी को विज़ुअली अपीलिंग और रिच बनाने का काम करती है. मगर वो सब चीज़ें दर्शकों को तभी भाती हैं, जब उसकी दिलचस्पी कहानी में बनी और बची रहे. जब कहानी में दम नहीं है, तो सारी साजो-सज्जा धरी की धरी रह जाती है और फिल्म बोरिंग बन जाती है. 'राधे श्याम' के साथ यही होता है. फिल्म के हिंदी वर्ज़न के डायलॉग्स ऐसे हैं कि कुछ लाइनें सुनने के बाद लगता है कि इस कहानी में कुछ भी नॉर्मल क्यों नहीं है. क्योंकि कोई अपने पार्टनर या प्रेमी से वैसे और वैसी बातें नहीं करता, जैसे विक्रमादित्य और प्रेरणा करते हैं.
प्रभास ने फिल्म में ज़ाहिर तौर पर विक्रम आदित्य का रोल किया है. जिस इंट्रीग फैक्टर की बात हमने शुरुआत में की थी, वो विक्रम से जुड़ा हुआ था. मगर फिल्म में वो रेगुलर रोमैंटिक हीरो के रोल में हैं. जो हर चीज़ को बढ़ा-चढ़ाकर करने में विश्वास रखता है. हालांकि उन ओवर द टॉप सीन्स में प्रभास बड़े ग्रेसफुल लगते हैं. वो अपनी ओर से कोशिश करते हैं. मगर फिल्म को बचा नहीं पाते. पूजा हेगड़े ने डॉक्टर प्रेरणा का किरदार निभाया है, जिसकी लाइफ में कुछ ऐसा चल रहा है जिसे अवॉयड नहीं किया जा सकता. ये बहुत ही ड्रमैटिक कैरेक्टर है. मगर उसमें डेप्थ नहीं है. हालांकि ये एक्टर्स की गलती नहीं है. अच्छी बात ये है कि फिल्म में उन्हें तकरीबन प्रभास जितना ही स्क्रीनटाइम दिया गया है. फिल्म में जयराम, मुरली शर्मा, भाग्यश्री और कुणाल रॉय कपूर जैसे एक्टर्स भी नज़र आते हैं. जैसा मैंने कहा, सिर्फ नज़र आते हैं. उनका बेसिक काम अच्छी-भली चल रही कहानी को भटकाने का है.

फिल्म की अच्छी बात ये है कि पूजा हेगड़े को बराबर स्क्रीन स्पेस मिला है.
'राधे श्याम' दिखने में सुंदर फिल्म है. फिल्म का VFX वर्क कमाल का है. बस एक ट्रेन वाले सीक्वेंस को छोड़कर. क्योंकि फिल्म में दिखाई गई ट्रेन कभी रियल नहीं लगती. अपनी तमाम खामियों को ढंकने के लिए फिल्म धांसू लेवल का क्लाइमैक्स प्लान करती है. स्टोरीवाइज़ नहीं, विज़ुअली. वो फिल्म का इकलौता पार्ट है, जिसे आप बिना पलक झपकाए देखते हैं. फिल्म के हिंदी वर्ज़न में तीन-चार रोमैंटिक गाने हैं. मगर वो कहानी पर बोझ जैसे लगते हैं. उनके वहां होने का काई जस्टिफिकेशन नहीं है. वो बस हैं क्योंकि रोमैंटिक फिल्म में गाने होते हैं. ये फिल्म मात्र सवा दो घंटे लंबी है. मगर देखते वक्त ऐसा लगता है मानों पिक्चर खत्म ही नहीं हो रही. क्योंकि फिल्म दर्शकों के साथ कोई कनेक्ट नहीं स्थापित कर पाती.
'राधे श्याम' बनावटी किस्म की रोमैंटिक फिल्म है. मगर उसे लगता है कि वो बिल्कुल दिल की बात कर रही है. विचार के स्तर ये बड़ी कॉम्पलिकेटेड साउंड कर सकती है. क्योंकि फेटलिज़्म के कॉन्सेप्ट पर बात करती है. फिल्म में कई सीन्स हैं, जो एक्सट्रा लगते हैं. क्योंकि वो कहीं भी फिल्म को उसके अंजाम तक पहुंचने में मदद करते नहीं दिखते हैं. बिखराव है. जो सिमट नहीं पाता. 'राधे श्याम' बड़े लेवल पर बनी एक बिलो ऐवरेज फिल्म है, जो अपने प्रिविलेज को नासमझी में व्यर्थ कर देती है.
ये हमारा मानना है, आपको क्या लगता है वो कमेंट सेक्शन में बताइए.